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कश्मीर का विशेष दर्जा नाटकीय रूप से खत्म कर नरेन्द्र मोदी उन खास प्रधानमंत्रियों के दर्जे में शामिल हो गए हैं, जिन्होंने राजनीति तो बेमिसाल की, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर नाकाम रहे.
अतीत के पन्नों को खंगालें तो आप एक अनोखा तौर-तरीका पाएंगे. भारत के सभी सफल प्रधानमंत्री, जिन्होंने दो बार सत्ता संभाला, उन्होंने राजनीति तो बेहतरीन की, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर असफल रहे.
ये तौर-तरीका जवाहरलाल नेहरू के साथ शुरु हुआ. वो हर मायने में एक बेहतरीन इंसान थे. उनकी सरकार के पास कुछ बड़ा करने लायक धन नहीं था. लेकिन उनकी सोच बड़े से भी बड़ी और गहरे से भी गहरी होती थी.
लेकिन उन्होंने आयात से परे, भारी पूंजी निवेश मॉडल अपनाकर भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया. इसके नतीजे आज भी हमें भुगतने पड़ रहे हैं.
उनकी बेटी इन्दिरा गांधी भी उसी रास्ते पर चलती रहीं. वो एक बेहतरीन राजनेता थीं, लेकिन अपने पिता की तरह उन्होंने ने भी अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया. उनका जोर उद्योगों और वित्तीय संसाधनों को सरकारी नियंत्रण में रखने पर ज्यादा था. नेहरू ने गलत मदों में निवेश कर समस्या पैदा की, तो इन्दिरा गांधी ने उन समस्याओं को और गंभीर बनाया.
इसके बाद मनमोहन सिंह की बारी आई, जिन्होंने दो बार सत्ता संभाली. लेकिन नेहरू-इन्दिरा की पैदा की गई समस्याओं का हल निकालने में वो भी नाकाम रहे, जिसमें राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकांश हिस्सा अक्सर गलत मदों में इस्तेमाल किया जाता था.
2014 में सत्ता पर नरेन्द्र मोदी काबिज हुए. हर किसी ने सोचा कि वो संसाधनों को ज्यादा असरदार बनाने के लिए उनका सही इस्तेमाल करेंगे. लेकिन वो भी नेहरू-इन्दिरा के रास्ते पर चलते रहे और लोगों को निराशा हाथ लगी. फिर भी वो नरसिम्हा राव की तरह जाल में फंसने से बच गए. 2019 आम चुनावों में उनकी पार्टी को भारी बहुमत के साथ जीत हासिल हुई.
अर्थशास्त्र के लिहाज से भारत 1957 के बाद से बिलकुल नहीं बदला है. राष्ट्रीय बचत की बर्बादी होती है, और वो बचत कभी पर्याप्त नहीं होते. वास्तविक मूलभूत समस्या राजनीतिक है. क्योंकि संविधान और चुनाव प्रणाली, दोनों ही काबीलियत से ज्यादा बराबरी पर जोर देते हैं.
नतीजा ये निकलता है कि दस साल विकास की रफ्तार अच्छी होती है, तो अगला डेढ़ दशक गलत संसाधन वितरण के कारण उस उपलब्धि के मिट्टी में मिला देता है.
सवाल है कि संवैधानिक और राजनीतिक सीमाओं को देखते हुए PM मोदी को क्या करना चाहिए? और क्या वो वाकई ये सब कर पाएंगे? अर्थव्यवस्थाओं के तकनीकी सुधार जगजाहिर हैं. लेकिन हर प्रधानमंत्री को मालूम था कि वो समस्या उनके लिए मायने नहीं रखती, क्योंकि असली समस्या राजनीतिक विरोधी थे, और उनमें भी सबसे गंभीर समस्याएं सत्ताधारी पार्टी के सदस्य ही पेश करते थे.
नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ. दोनों नेहरू-इन्दिरा के मॉडल को बदलना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी ही उनके रास्ते का रोड़ा थी.
हो सकता है कि PM मोदी को इन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़े. बीजेपी से नहीं तो निश्चित रूप से RSS से. आखिरकार जब आपके दोस्त पुरातनपंथी हों, तो उन्हें समझाना ज्यादा कठिन होता है.
लिहाजा मैं एक चिन्तन शिविर आयोजित करने की सलाह दूंगा, जिसमें सरकार अपने समर्थकों को आर्थिक मुद्दों पर शिक्षित करे. इस शिविर में कांग्रेस पार्टी की 1955 में अबादी प्रस्ताव का सम्मान करना चाहिए, जिसमें आर्थिक मोर्चा सरकार को सौंप दिया गया था. अर्थव्यवस्था के बटन को निजी क्षेत्र को वापस सौंपना होगा. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मोदी को आर्थिक मोर्चे पर भी वही साहसिक कदम उठाने होंगे, जो उन्होंने धारा 370 को हटाकर दिखाया. किसी ने सोचा भी नहीं था कि ये मुमकिन है, लेकिन PM मोदी ने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया.
अर्थव्यवस्था के साथ भी उन्हें यही करना चाहिए. सरकार को आर्थिक विकास के रास्ते से उसी प्रकार दूर करना होगा, जिस प्रकार उन्होंने कश्मीर के रास्ते से धारा 370 को दूर किया है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 17 Aug 2019,09:41 AM IST