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संडे व्यू : महाराष्ट्र की छवि को आंच, ‘लुटियन्स’ भी बदनाम

शरद पवार की खिसक गयी जमीन, माया ही रहेगा ‘हिन्दू राष्ट्र’?

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पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स 
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पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स 
(फोटो: iStock)

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खराब हुई महाराष्ट्र की तस्वीर

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि जब महाराष्ट्र और शेष भारत सो रहा था तब उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के अगले सीएम के तौर पर देवेंद्र फडणनवीस को शपथ दिला दी गयी. यह सब ऐसे समय में हुआ जब ऐसा लग रहा था कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस शुरुआती झिझक खत्म करने के बाद सरकार बनाने के लिए एक मंच पर आ चुके हैं. मगर, देवेंद्र के शपथ ग्रहण के बाद भी कहानी खत्म नहीं हुई. 54 एनसीपी सदस्यों में से कुछ ही अजित पवार के साथ गये. अब देवेंद्र फडणनवीस सरकार के लिए बहुमत दिखाना बड़ी चुनौती है.

चाणक्य लिखते हैं कि जहां कहीं भी क्षेत्रीय क्षत्रप मजबूत रहे हैं जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है, मगर ऐसे क्षत्रपों की गैर मौजूदगी में जनता ने विभिन्न पार्टियों को मिलकर सरकार बनाने का जनादेश सामने रखा है. महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन में दरार आ जाने के बाद नयी परिस्थिति पैदा हुई.

शिवसेना-बीजेपी दूर हुई, शिवसेना और एनसीपी-कांग्रेस नजदीक आए और बीजेपी ने भी भ्रष्टाचार के दाग वाले अजित पवार को अपने साथ जोड़ने में कोई कोताही नहीं दिखलायी. इन सबसे अलग राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर भी देश का ध्यान गया जिन्होंने राष्ट्रपति शासन से पहले बीजेपी को 48 घंटे, शिवसेना को 24 घंटे और एनसीपी को भी 24 घंटे तक समय से पहले ही राष्ट्रपति शासन लागू करने की पहल की. रात के अंधेरे में राष्ट्रपति शासन हटाना और नई सरकार को शपथ दिलाना भी चर्चा में है. सब मिलाकर अगर देखें तो लेखक मानते हैं कि इससे महाराष्ट्र को लेकर अच्छी तस्वीर नहीं बनी है.

शरद पवार की खिसक गयी जमीन

अमर उजाला में नीरजा चौधरी लिखती हैं कि महाराष्ट्र में जो सियासी घटनाक्रम हुआ है उसने शरद पवार की राजनीतिक जमीन सरका दी है. कभी किंगमेकर दिख रहे थे, आज वे लूजर दिख रहे हैं. वह लिखती हैं कि बीजेपी की एनसीपी को तोड़कर सरकार बनाने की कोशिश अप्रत्याशित नहीं है. अप्रत्याशित बात ये है कि शरद पवार जैसे दिग्गज नेता ये भांप नहीं पाए कि उनकी ही पार्टी टूट रही है.

शिवसेना का अपने सहयोगी दल के प्रति अड़ियल रवैये को महाराष्ट्र में सरकार बनने में हो रही देरी के लिए जिम्मेदार बताती हुईं नीरजा लिखती हैं कि आखिरकार बीजेपी को सियासी खेल में उतरना पड़ा. 

कांग्रेस ने शिवसेना और एनसीपी के साथ गठबंधन करने के लिए जो वक्त लिया, वह उनके मुताबिक स्वाभाविक था. मगर, बीजेपी को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि यह गठबंधन होगा. जब उसने देखा कि गठबंधन होने जा रहा है तो उसने अपने उस रुख में बदलाव किया कि शिवसेना को थक हारकर उसके साथ आना ही पड़ेगा. बीजेपी की सोच में बदलाव का ही नतीजा है ताजा रणनीति, जिसने अजित पवार को शरद पवार से अलग कर पवार की पार्टी और परिवार दोनों को तोड़ दिया है. नीरजा लिखती हैं कि महाराष्ट्र में मैदान खुला हुआ है और हो सकता है कि देवेंद्र फडणनवीस सरकार बहुमत साबित कर दिखाए.

गाली बन गयी ‘लुटियन्स’

इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं तवलीन सिंह कि लुटियन्स शब्द का राजनीतिक प्रयोग सबसे पहले खुद उन्होंने ही शुरू किया था और अब यह शब्द उन जैसे लोगों के खिलाफ ही इस्तेमाल किया जाने लगा है. जब 2013 में उन्होंने नरेंद्र मोदी के अगले प्रधानमंत्री होने और उसके बाद लुटियन्स में रहने वाले अमीरों की लुटिया डूब जाने की बात कही थी, तब नरेंद्र मोदी की ओर से उन्हें मिलने के लिए बुलावा आया था. गुजरात जाकर लेखिका ने उनसे मुलाकात की थी और नरेंद्र मोदी ने लुटियन्स दिल्ली के बारे में उनकी लिखी गयी बातों को सही बताया था.

लेखिका बताती हैं कि जिस आराम और चैन की जिंदगी जनप्रतिनिधि और सरकारी अफसर गुजारते रहे हैं और झूठे समाजवाद की आड़ लेते रहे हैं, उसे खत्म करने की उम्मीद नरेंद्र मोदी से की गयी थी. मगर, ऐसा नहीं हुआ. सिर्फ चेहरे बदल गये. सबकुछ पहले जैसा है. 

पिछली सरकारों और राजनीतिज्ञों को कोसने के लिए लुटियन्स अब गाली बन गया है जबकि उन चेहरों की जगह पर नये चेहरे आ गये हैं. ये चेहरे पहले वाले लोगों की तरह अंग्रेजी नहीं बोलते, हिन्दी या गुजराती बोलते हैं, धर्म में आस्था जताते हैं, हिन्दुत्व की बातें करते हैं, विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की बात कहते हैं. भारत के मतदाता अब भी ऐसे लोगों को प्रतिनिधि बना रहे हैं जो ऐसी जिंदगी जी रहे हैं जैसी कि वे सोच भी नहीं सकते. वह हसरत रखती हैं कि ऐसा कब होगा जब भारत के चुने हुए प्रतिनिधि भी आम लोगों की तरह मेट्रो में यात्रा करें, आम लोगों जैसी जिन्दगी जीएं.

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माया ही रहेगा ‘हिन्दू राष्ट्र’?

इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई लिखते हैं कि महाराष्ट्र में घट रही सियासत संघ परिवार के लिए बड़ा धक्का है जो लम्बे समय से हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा चला रहा हैं. शिवसेना कभी संघ परिवार का हिस्सा नहीं रही और उसकी बीजेपी के साथ थोड़ी दूरी भी रही. खासकर अयोध्या विवाद में भी, जहां शिवसेना आगे बढ़कर बाबरी विध्वंस की जिम्मेदारी भी वह लेती रही. मेघनाद लिखते हैं कि महाराष्ट्र चुनाव में चुनाव पूर्व गठबंधन सफल रहा, लेकिन विफल भी होता तो इस गठबंधन को टूटना ही था क्योंकि भारत में किसी भी पार्टी का आदर्श नहीं रह गया है. ये पार्टियां जीत के बाद सिर्फ पैसा बनाती हैं.

देसाई मानते हैं कि हिन्दू राष्ट्र का सिद्धांत रखने के बावजूद महाराष्ट्र में ब्राह्मण और मराठा की सियासत बीजेपी-शिवसेना पर हावी हो गयी. हरियाणा में जाटवाद हावी दिखा. अतीत में भी देखा गया है कि अयोध्या की रथयात्रा इसलिए शुरू की गयी थी कि मंडल आंदोलन का जवाब दिया जा सके. 

पूरे उत्तर भारत में जातीय वोट बैंक हैं. दक्षिण भारत में द्रविड़ सियासत का बोलबाला है. ऐसे में वास्तव में हिन्दू राष्ट्र का सिद्धांत है कहां? लेखक का मानना है कि संघ परिवार को दोहरी चुनौती है. एक बीजेपी का आधार सिकुड़ने लगा है और दूसरी ओर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर चिन्ताजनक परिस्थिति बन रही है. जब तक बीजेपी जबरदस्त सफलता की ओर आगे नहीं बढ़ती है हिन्दू राष्ट्र की माया भी माया ही रहने वाली है.

एनआरसी पर उलझी सियासत

मुकुल केसवान द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद से जुड़े पक्ष को बड़ी राहत दी जब उसने राम लला के नाम पर सारी जमीन कर दी और इसी पक्ष की मांगों के अनुरूप मुसलमानों को मस्जिद के लिए किसी और जगह जमीन देने का फैसला सुनाया. एलके आडवाणी और समर्थकों की यही मांग 30 साल पहले थी. अदालत ने बाबरी मस्जिद गिराने को अवैध बताया. वहीं इस विवाद से जुड़े पुरातात्विक सबूतों के इतिहास पर विश्वास को भी कायम रखा. वे लिखते हैं कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद से हिन्दू भारत की ओर जो कदम बढ़े हैं उस दिशा में यह फैसला मील का पत्थर है.

अब आगे नागरिकता के मामले में भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों से भेदभाव को सांस्थानिक रूप देने जा रही है. असम में खुद बीजेपी नेता हेमंत बिस्वा शर्मा ने असम में एनआरसी को खारिज कर दिया है.

केसवान ने लिखा है कि गृहमंत्री अमित शाह की मानें तो पूरे देश में एनआरसी लागू होगा. असम का अनुभव यह बताता है कि आधे से ज्यादा लोग जो खुद को भारतीय साबित नहीं कर पाएंगे, वे हिन्दू हैं. इससे सीख लेते हुए एनआरसी एक्ट में जो संशोधन लाया जा रहा है वह ऐसे हिन्दुओं को राहत देगा. इसका मतलब ये है कि एनआरसी में भारतीयता साबित नहीं कर पाने वाले लोग गैर हिन्दू और खासकर मुसलमान ही होंगे. शिया और अहमदिया मुसलमानों की भी मुश्किल बढ़ने वाली है. अब हर भारतीय तब तक गुनहगार होगा जब तक कि वह खुद को भारतीय साबित न कर दे. नागरिकता संशोधन बिल पारित होने के बाद सीमा नहीं मिलने के बावजूद अफगानिस्तान से आए लोग शरणार्थी हो सकेंगे, लेकिन सीमा मिलने के बावजूद म्यांमार के लोगों के साथ ऐसा नहीं होगा और वजह होगी शरणार्थियों का गैर मुसलमान या मुसलमान होगा. विपक्ष आपत्ति जता रहा है. सरकार को आगाह कर रहा है. मगर, सरकार भी अपने मंसूबे को पूरा करने पर आमादा है.

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का दायरा बढ़े

न्यू इंडियन एक्सप्रेस में केजी सुरेश ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का दायरा बढ़ाने की वकालत की है. उन्होंने लिखा है कि इसे न सिर्फ अखबारों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए बल्कि इसका विस्तार टीवी और वेब मीडिया तक भी होना चाहिए. प्रेस काउंसिल के इतिहास की याद दिलाते हुए केजी लिखते हैं कि 1966 में लोकतंत्र के पहरेदार की भूमिका में प्रेस काउंसिल ने काम करना शुरू किया था. 1956 में प्रेस कमीशन की सिफारिश पर आधारित यह भूमिका आगे बढ़ी थी. आजादी से पहले महात्मा गांधी और आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने प्रेस की आजादी को महत्व दिया था.

केजी लिखते है कि प्रेस दंतविहीन शेर बनकर न रह जाए, इस पर विचार करना जरूरी है. एनबीए, बीईए जैसी ब्रॉडकास्टर्स समूहों की संस्थाएं बनी हैं. मगर, अब समय आ गया है जब प्रेस काउंसिल को आगे बढ़कर मीडिया के बढ़ते दायरे से जुड़ना चाहिए.

खुद प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का दायरा बढ़े. पेड न्यूज जैसी चीजों से जूझने में चुनाव आयोग आगे आया है, मगर केजी सुरेश मानते हैं कि इस मामले में प्रेस खुद आगे बढ़कर जिम्मेदारी दिखलाए.

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