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संडे व्यू:'जिम्मेदारी से भागने में माहिर PM', कहां हैं ‘अच्छे दिन’

संडे व्यू में पढ़ें देश के बड़े अखबारों के सबसे जरूरी लेख

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संडे व्यू में पढ़ें देश के बड़े अखबारों के लेख
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संडे व्यू में पढ़ें देश के बड़े अखबारों के लेख
फोटो: द क्विंट

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मोदी में जिम्मेदारी से भागने में का कौशल

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि संकट से भागने और अपनी वाहवाही कराने का कौशल प्रधानमंत्री अच्छी तरह से जानते हैं. 21 दिन में कोरोना को हराने वाले पीएम ने लॉकडाउन के दो और चरण लगा दिए और बाद के चरणों से खुद को अलग कर लिया. फिर, सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर लाद दी.

आईसीएमआर 2 लाख से ज्यादा कोरोना संक्रमण के आंकड़े बताते हुए भी खुश हो रहा है कि यह अधिकतम से दूर है. चिदंबरम लिखते हैं कि 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा मोदी के दिमाग की उपज था, जिसका ब्योरा बताने की जिम्मेदारी निभा रहीं वित्तमंत्री का जोश दूसरे दिन ही ठंडा हो गया था.

चिदंबरम ध्यान दिलाते हैं कि जम्मू-कश्मीर पर कुछ नहीं बोलते हैं पीएम मोदी, सबकुछ नौकरशाहों पर छोड़ दिया गया है. सीमापार उल्लंघनों या जवानों के मारे जाने पर भी वे कुछ नहीं बोलते. चीन के साथ विवाद पर भी चुप हैं पीएम. सेना मुख्यालय से जारी बयान रक्षा मंत्री पढ़ते हैं. पूरे अप्रैल प्रवासी कामगारों पर चुप रहे मोदी.

मामला बेकाबू होने पर रेलमंत्री सामने आए और जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर थोपने लगे. वे लिखते हैं कि सीआईआई की आम सभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि विकास दर को दोबारा हासिल करना कठिन नहीं है. ऐसा होता तो 2019-20 तक 8 तिमाही लगातर गिरती विकास दर को सरकार क्यों नहीं ठीक कर सकी? वे लिखते हैं कि अब पीएम की बातों पर किसी को भरोसा नहीं है. न उद्योग जगत को, न अर्थशास्त्रियों को और न ही प्रवासी मजदूरों को. वे सलाह देते हैं कि पीएम अपने मौजूदा आर्थिक सलाहकारों को बदलें.

कहां रह गये ‘अच्छे दिन’, ‘सोने की चिड़िया’ के सपने?

द टेलीग्राफ में संघर्षण ठाकुर लिखते हैं कि देश की जनता के नाम एक पत्र लिखा गया है. इसमें बताया गया है कि बीते 6 साल में क्या कुछ किया गया है. 1500 शब्दों के इस पत्र में बहुत कुछ कहा गया है लेकिन जो बातें नहीं कही गयी हैं वह अधिक महत्वपूर्ण है. इसमें नहीं बताया गया है कि अच्छे दिन कब आएंगे जिस आधार पर 2014 में वेसत्ता में आए थे. यह नहीं बताया गया है कि वह सोने की चिड़िया पिंजड़े से कहां उड़ गयी और पकड़ से कैसे निकल गयी जिसका जिक्र बार-बार हुआ करता था.

पत्र में यह भी नहीं बताया गया है कि जाने-अनजाने भारत किस कदर बिखर रहा है और भारतीय ही भारतीयों के पीछे पड़े हैं. पहनावा, खान-पान, पुकारे जाने वाले नाम, पढ़ने वाली पुस्तकें, प्रार्थनाएं ही एक-दूसरे की जान लेने की वजह बन गयी हैं. इसमें नहीं बताया गया है कि कश्मीर कैद में है, उसका दर्जा संघ शासित प्रदेश का हो चुका है.

नोटबंदी के खतरनाक अंजाम भी नहीं बताए गये हैं. लाखों किसानों का पैदल मार्च करना और उनकी तकलीफों के बारे में भी नहीं बताया गया है. संवैधानिक स्वायत्त संस्थाओं के प्रति जनता का विश्वास किस कदर टूटा है, इस बारे में भी इस पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है. सरकार और पार्टी में फर्क, देश के लिए और व्यक्ति की वफादारी में फर्क को लेकर भी चुप्पी है. ऐसी बातें अनगिनत हैं जिसके बारे में इस चिट्ठी में कुछ भी नहीं कहा गया है.

वुहान में एक डॉक्टर ने दिला दी गांधी की याद

राजमोहन गांधी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कोविड-19 से छुटकारा पा लेने के वर्षों बाद भी वुहान के डॉक्टर ली वेनलियांग के 30 जनवरी के उस बयान को याद रखा जाएगा, जिसके लिए उन्हें 7 फरवरी को गिरफ्तार कर लिया गया था- “ मैं समझता हूं कि एक स्वस्थ समाज में अलग-अलग आवाज़ होनी चाहिए.”

इससे पहले 30 दिसंबर 2019 को ही ली वेनलियांग ने वी चैट के ह्वाट्सएप ग्रुप में अपने छात्रों को आगाह किया था कि वुहान के पशु बाजार में एक-दूसरे के संपर्क में आए 7 लोग ऐसे मिले हैं जिनका आइसोलेशन में उपचार किया जा रहा है और जिन्हें सांस की गंभीर तकलीफ है. वुहान पुलिस ने उन्हें अफवाह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. 4 हफ्ते बाद और ली की मौत के 10 दिन पहले चीन की सर्वोच्च अदालत ने यह टिप्पणी की कि अच्छा होता अगर लोग उन अफवाहों को मान लेते, मास्क लगाते, सैनिटाइज करते.

राजमोहन गांधी लिखते हैं कि गांधी के शहादत दिवस के दिन ली की टिप्पणी हर किसी को गांधी की याद दिलाती है. वे लिखते हैं कि नोटबंदी हो या लॉकडाउन- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कैबिनेट सहयोगियों से सलाह ले सकते थे. क्या यह ‘स्वस्थ’ नहीं होता, बुद्धिमानी नहीं होती? वास्तव में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बाद भारतीय समाज की बर्बरता सामने आयी है.

प्रवासियों के पलायन ने भारतीय समाज की असमानता को उजागर कर दिया है. गांधी लिखते हैं कि ली ने सौ साल पहले महात्मा गांधी के कार्यों की याद दिला दी है. 1896 में जब प्लेग फैला था तब राजकोट में गांधी ने पाया था कि दलित अपने घरों को अधिक साफ-सुथरा रखते हैं. 34 साल के ली जितनी ही उम्र तब गांधी की थी, जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में प्लेग प्रभावित इलाकों में भारतीयों को साफ-सुथरे और रोशनी वाले इलाको में रहने को प्रेरित किया था. गांधी की ही तरह ली की टिप्पणी कहती है कि पाप से नफरत करो, पापी से नहीं.

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कोविड-19 से बदलेगा संघीय ढांचा

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि कोविड-19 के कारण देश में नया संघीय ढांचा विकसित होगा. संविधान में ‘राज्यों का संघ’ की चर्चा है मगर फेडरल सिस्टम या संघीय व्यवस्था का जिक्र नहीं है. कई लोग मानते हैं कि भारत में अर्ध-संघीय व्यवस्था है. वास्तव में कई दशकों से दिल्ली और राज्यों में राजनीतिक पार्टी सत्ता का नियंत्रण करती रही है.

मजबूत दिल्ली, कमजोर प्रांत के तौर पर इस दौर को याद रख सकते हैं. क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ इसमें बदलाव आया क्योंकि उन्हें दिल्ली की सत्ता भी इसी मकसद से चाहिए थी कि वे क्षेत्रीय तौर पर बेहतर काम कर सकें. अनुच्छेद 356 की अहमियत भी कम हो गयी.

2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनके पास मुख्यमंत्री के तौर पर 20 साल का अनुभव था. उन्होंने को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म बनाने की बात कही. लेकिन वास्तव में केंद्र और राज्यों में बीजेपी की सरकारों ने केंद्र को ताकतवर बना दिया. इंदिरा गांधी वाला युग लौट आया. मजबूत पीएम के हाथ में मजबूत केंद्र.

एक बार फिर 2017 में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में गैर बीजेपी सरकारों के बनने और महाराष्ट्र, झारखण्ड, दिल्ली में भी गैर बीजेपी सरकारों के आने के बाद स्थिति में बदलाव आया. इसी पृष्ठभूमि में आया कोविड-19 जिसमें शुरुआती लॉकडाउन में केंद्र की ताकत दिखी और बाद के दौर में प्रांतीय सरकारें काम करती दिखीं. परस्पर स्पर्धा और श्रेय लेने की होड़ भी सामने आयी. अब खुलकर राजनीति हो रही है. केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. कोविड-19 नये सिरे से संघीय व्यवस्था को परिभाषित करने जा रहा है.

शक्ति संतुलन से काबू होगा चीन

पूर्व नौसेना प्रमुख रहे अरुण प्रकाश ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1950 और 1960 के दशक में लद्दाख में लगातार चीनी घुसपैठ को लेकर विरक्ति भाव में रही जवाहरलाल नेहरू सरकार की आलोचना बहुत सही है. अक्साई चीन को लेकर संसद में उनका यह कहना कि वहां घास का तिनका तक नहीं उगता, महज बहानेबाजी थी.

यह बहस आज भी कि 1962 के भारत-चीन सीमा विवाद का कारण अक्साई चीन में चीन का नेशनल हाईवे 219 बनाया जाना था या नेहरू की फॉरवर्ड प्लान में कमी थी. 30 नवंबर को एकतरफा युद्धविराम के बाद चीन ने अक्साई चीन को अपने कब्जे में कर लिया और लद्दाख को लेकर 1959 की स्थिति के दावे पर वह कायम रहा.

अरुण प्रकाश लिखते हैं कि युद्ध के बाद भी नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों देशों के बीच मैप का आदान-प्रदान नहीं होना बाद की सरकारों की भी असफलता रही. आज तक बनी हुई तनातनी की यह बड़ी वजह है. 1987 में सीमा पर गंभीर झड़प के बावजूद दोनों देशों को सीमा पर पहले समझौते 25 साल लग गये.

आज भी 22 बैठकों के बावजूद सीमा विवाद को लेकर किसी नतीजे का नहीं निकल पाना कूटनीतिक विफलता है. लेखक बताते हैं कि 1963 में पाकिस्तान को चीन ने रणनीतिक सहयोगी बनाया और भारत को सीमा पर दो मोर्चों पर उलझाए रखा. भारत की संसद ने 1962 में चीन से एक-एक इंच जमीन वापस लेने का प्रस्ताव पारित किया था. अब तक सीमा पर भारतीय सैनिकों ने पूरा साहस दिखाया है. मगर, धक्का-मुक्की कब गोलियों में बदल जाए, कहना मुश्किल है. वे सुझाते हैं कि या तो भारत को खुद ताकतवर होना होगा या फिर ताकतवर गठबंधन में आना होगा ताकि वैश्विक भौगोलिक राजनीति में चीन के साथ संबंधों में एक स्थिरता लायी जा सके.

घुटन में है दुनिया- आइ कैन नॉट ब्रेद

आनंद नीलकंठन द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि ‘आइ कैन नॉट ब्रेद’ दुनिया भर में एक आवाज़ बन चुका है. यह आवाज़ दर्द को बयां करती है. कोविड-19 के बीच दुनिया नस्लवादी वायरस से जूझ रही है. अमेरिका की सड़कों पर गुस्साए प्रदर्शनकारी काबिज हैं और इस उबाल को हर कोई महसूस कर रहा है. यह राहत की बात है कि कई लोगों को यह नस्लवादी भेदभाव महसूस हो रहा है और गोरे लोग भी आंदोलनकारियों से सहानुभूति दिखा रहे हैं.

भारत में भी हमने देखा है कि घर लौटते प्रवासी मजदूरों को पुलिस किस तरह से पीट रही थी. लेखक पूछते हैं कि भारत में कभी पुलिस की गोली से मौत पर, लिंचिंग होने पर या जातीय आधार पर कुछ गलत होने पर आखिरी बार कब प्रतिक्रिया देखने को मिली थी?

दूसरों को सबक सिखाने की बात कहते हुए ऐसी हिंसा को सही ठहरा दिया जाता है. अमेरिका में ताजा घटना के संदर्भ में लेखका मानना है कि बेशक पुलिसकर्मी दिन-रात की ड्यूटी भी करते हैं और न ही सारे पुलिसकर्मी दूसरों की जान ही लेते हैं, लेकिन जो घटना घटी है उसकी प्रतिक्रिया इसे महत्वपूर्ण बनाती है. लेखक का कहना है कि समाज किसी घटना को महत्वपूर्ण नहीं बनाता, बल्कि घटना की प्रतिक्रिया उसे महत्वपूर्ण बना देती है.

पढ़ें ये भी: लद्दाख में जारी तनाव के बीच सकारात्मक रही भारत-चीन बैठक: रिपोर्ट

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