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संडे व्यू: कनाडा के सुर में अमेरिका भी, बीएसपी को दोबारा खड़ा कर सकेंगी मायावती?

पढ़ें इस इतवार प्रताप भानु मेहता, सुनीता एरन, पी चिदंबरम, प्रभु चावला और करन थापर के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़िए लेखकों के विचारों का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़िए लेखकों के विचारों का सार

(फोटो: अल्टर्ड बाई क्विंट हिंदी)

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अमेरिका भी कनाडा के सुर में

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने अब विकास यादव पर आरोप लगाया है कि वह भारतीय खुफिया अधिकारी है और उसने अमेरिकी धरती पर हत्या की साजिश रचने की कोशिश की है. यह आरोप कनाडा द्वारा भारत पर उसकी धरती पर हत्या का आरोप लगाने के बाद लगाया गया है. यह खराब कूटनीतिक विवाद बन चुका है. किसी को भी इन आरोपों के कानूनी पक्ष के बारे में पहले से अनुमान नहीं लगाना चाहिए. खालिस्तानियों द्वारा की गयी हिंसा को नजरअंदाज करने का कनाडा का चौंकाने वाला इतिहास रहा है. ट्रूडो निश्चित रूप से विश्वमंच पर सबसे अनाड़ी राजनेताओं में से एक हैं. लेकिन कनाडा के खिलाफ कुछ उचित गुस्से को लोकतंत्र के रूप में खुद से पूछे जाने वाले कठिन सवालों से बचने का बहाना नहीं बनना चाहिए.

प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि अगर आरोप सच हैं तो क्या भारत के बाहर कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के भारतीय अधिकारियों पर न्यूनतम स्तर का भी भरोसा करेगा? उन पर संदेह की चादर और बढ़ेगी. और अंत में, भारत को उस श्रेणी में रखा गया है जिसका इस्तेमाल दुष्ट राज्यों का वर्णन करने के लिए किया जा सकता है. इसे एक ऐसी सरकार के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसने अमेरिकी सहायक अटॉर्नी जनरल मैथ्यु ओल्सन के शब्दों में, “घातक साजिश और हिंसक अंतरराष्ट्रीय दमन के अन्य रूपों” का इस्तेमाल किया है. ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल पाकिस्तान हमारे खिलाफ करता है.

अगर भारतीय राज्य इसके पीछे है, दूर-दूर तक भी है तो हमें नागरिकों के रूप में उसे जवाबदेह ठहराने की आवश्यकता है. और, अगर यह भारत के खिलाफ दुष्ट ऑपरेशन है तो भी हमें जवाबदेही की आवश्यकता है. यह उल्लेखनीय तथ्य है कि समितियां, कुछ स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ मिलकर अभी भी खुफिया एजेंसियों को जवाबदेह ठहराने की अनुमति देती हैं. हम अमेरिका और ब्रिटेन को गुप्त अभियानों के लिए दोषी ठहरा सकते हैं क्योंकि उन्हें उजागर करने के लिए अभी भी तंत्र मौजूद हैं.

बीएसपी को फिर से खड़ा कर सकेंगी मायावती?

सुनीता एरन ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बड़ा सवाल खड़ा किया है कि क्या मायावती बीएसपी को फिर से खड़ा कर सकती हैं जो अब दलितों की पहली पसंद नहीं रही? मायावती उत्तर प्रदेश में बीएसपी को पुनर्जीवित करने के लिए बेताब हैं. एक ऐसा प्रदेश जहां कभी उनका दबदबा था. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बनाए रखने के लिए भी यह जरूरी था. हालांकि राज्य विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है- पांच राज्यों में सात विधायक. बीएसपी की राजनीतिक दुविधा और खराब प्रदर्शन से उनके समर्थक हताश हैं. दलितों के लिए दलितों द्वारा स्थापित इकलौती पार्टी, जिसका वादा रहा है सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण और जिसका सपना रहा है कि देश को दलित प्रधानमंत्री मिले.

सुनीता एरन लिखती हैं कि 1984 में स्थापना के बाद बीएसपी ने 1995 से 2003 तक अलग-अलग पार्टियों के गठबंधन में और 2007-2012 तक स्वतंत्र रूप से उत्तर प्रदेश पर तीन बार शासन किया. उसके बाद से बीएसपी लगातार हार रही है. अब मायावती ने चुनावी साझेदार खोजने की अपनी रणनीति बदल दी है और अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है. क्या यह एक और प्रयोग है या फिर एक सुधार?

दलितों के लिए बीएसपी एकमात्र विकल्प नहीं रह गयी है. बीएसपी के पास युवा मतदाताओं को आकर्षित करने की कोई स्पष्ट योजना नहीं है. पार्टी आज ‘बीजेपी की बी पार्टी’ का कलंक झेल रही है. बीते कुछ सालों में बीएसपी एक मौसमी पार्टी बन गयी है जो केवल चुनावों के दौरान सक्रिय होती है. धन की कमी या कभी-कभी जातिगत गणित को ठीक करने के लिए नये उम्मीदवारों को लाने के कारण बीएसपी से प्रतिबद्ध नेताओं और कार्यकर्ताओं का पलायन हुआ है. 2012 के बाद से बीएसपी ने त्तर प्रदेश में तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों सहित सभी छह चुनाव हारे हैं. दलितों को आवाज देने वाली बीसपी ने 2014 के बाद अपनी आवाज खो दी. मायावती की राजनीतिक दिशा उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाती है.

संघ-बीजेपी ने सुलझा लिए हैं मतभेद!

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मोहन भागवत को समय का अलौकिक ज्ञान है. वे बहुत कम बोलते हैं लेकिन दिन और अवसर का चुनाव बहुत चतुराई से करते हैं. लोकसभा चुनाव के बाद मोहन भागवत ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा, “अहंकार त्यागो, विनम्रता का अभ्यास करो”. उन्होंने आगे कहा था कि झूठ और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने वाले चुनावी भाषणों ने शालीनता का उल्लंघन किया है, जिसका पालन करने की राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है. जुलाई के भाषण में मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा था, “एक आदमी सुपरमैन बनना चाहता है, फिर देवता और फिर भगवान.” 12 अक्टूबर को तीसरा भाषण कुछ अलग रहा. मोदी की शैली वाले भाषण में कहा कि एक राष्ट्र के रूप में भारत मजबूत हुआ है, दुनिया हमें स्वीकार रही है, भारत की छवि, शक्ति, प्रसिद्धि और विश्व मंच पर लगातार सुधर रही है.

चिदंबरम लिखते हैं कि बांग्लादेश का जिक्र करते हुए मोहन भागवत ने पूरे जोश मे आकर ‘हिंदू समुदाय पर अकारण क्रूर अत्याचार’ का जिक्र किया. लेखक का मानना है कि मोहन भागवत के भाषण के अंत वाले हिस्से में ‘हिंदू’ शब्द के स्थान पर ‘मुस्लिम’ रखें तो ऐसा लगेगा कि वक्ता हर सांप्रदायिक संघर्ष को उचित ठहरा रहा है. भागवत के हर विचार और शब्द का इस्तेमाल भारत में मुसलमानों और दलितों, संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेतों, विश्व युद्ध से पहले जर्मनी में यहूदियों, अपनी मातृभूमि में फिलिस्तीनियों, बहुसंख्यकों द्वारा भयभीत हर अल्पसंख्यक और हर जगह महिलाओं की दुर्दशा का वर्णन करने के लिए किया जा सकता है. हमलावर कौन है और पीड़ित कौन है, यह देखने वाले की नजर में है. लेखक का कहना है कि ऐसा लगता है कि आरएसएस और बीजेपी ने अपने मतभेद सुलझा लिए हैं और एकजुट हो गये हैं. मोदी साहब की कथनी और करनी को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है इसलिए वे अपने अधिकारों का उपयोग करने, विपक्षी दलों को गाली देने और अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित महसूस करेंगे जिनके कारण मुद्रास्फीति बेरोजगारी, असमानता, मित्रवादी पूंजीवाद, सामाजिक उत्पीड़न, सांप्रदायिक संघर्ष और अन्याय हुआ है.

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भारत रत्न के हकदार हैं रतन टाटा

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में रतन टाटा को भारत रत्न का हकदार बताया है और सवाल पूछा है कि क्या मरणोपरांत यह सम्मान उन्हें दिया जाएगा? इसके कई ठोस कारण हैं जिनमें से जो बिल्कुल अलग है वह यह कि वे महान व्यवसायी, दूरदर्शी उद्योगपति और स्नेही, दयालु और अच्छे इंसान थे. जो बात उन्हें सबसे अलग बनाती है वह यह है कि उनका सम्मान किया जाता था. वे नायक थे. दूसरी बात यह है कि हम जिनकी प्रशंसा करते हैं वास्तव में उन्हें देखने के लिए अपनी गर्दन ऊपर उठाते हैं. ऐसे लोग खास होते हैं. इसलिए भी वे देश के सर्वोच्च पुरस्कार के हकदार हैं.

करन थापर का मानना है कि अगर मदर टेरेसा, एम एस सुब्बुलक्ष्मी, अमर्त्य सेन, रविशंकर, लता मंगेशकर, बिस्मिल्लाह खान, भीमसेन जोशी और सचिन तेंदुलकर इस पुरस्कार के हकदार थे और निश्चित रूप से वे थे, तो रतन टाटा के साथ ऐसा क्यों नहीं हो सकता? सच्चाई यह है कि सम्मान राजनेताओं द्वारा दिया जाता है और यह मुख्य रूप से राजनेताओं को ही मिलता है. 53 में से 18 ही राजनीति से इतर क्षेत्रों से रहे हैं. 1954 के बाद से केवल एक उद्योगपति को इसके योग्य माना गया है- जेआरडी टाटा. कई ऐसी हस्तियां हैं जिन्हें यह सम्मान मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिला. इनमें दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, सलमान रुश्दी और जुबिन मेहता शामिल हैं. इनमें से हरेक उत्कृष्ट भारतीय हैं जो अपने करियर के शिखर पर पहुंचे. दुनिया ने उनकी उपलब्धि को पहचाना और सराहा. अफसोस कि उनका देश ऐसा करने में विफल रहा.

उमर को ‘स्वर्ग’ के लिए बदलना होगा डीएनए

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पिछले हफ्ते जम्मू कश्मीर के नए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक्स पर पोस्ट किया- ‘मैं वापस आ गया हूं”. आप अब्दुल्ला से कश्मीर छीन सकते हैं लेकि आप अब्दुल्ला को कश्मीर से नहीं निकाल सकते. 3.2 मिलियन फॉलोअर्स के साथ 54 वर्षीय तीसरी पीढ़ी के अब्दुल्ला का पोस्ट घातक डीएनए निष्कर्ष था. उनकी राजनीतिक वंशावली बताती है कि वे यूनियन टेरिटरी के लिए अधिक शक्ति और पाकिस्तान के साथ बातचीत और जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों से अलग मानते हैं. उमर अब भी अलग हैं. भारतीय संविधान की शपथ लेने वाले जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री हैं. जम्मू-कश्मीर को उसका स्वर्ग वाला रुतबा वापस दिलाने के लिए उमर को निश्चित रूप से सूबे के डीएनए में ही बदलाव की पहल करनी होगी.

प्रभु चावला लिखते हैं कि शायद सत्ता से बाहर रहने के वर्षों ने उन्हें दर्दनाक व्यावहारिकता प्रदान की है. उन्होंने यह समझ लिया है कि उन्हें और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेन्स को एक नयी राजनीतिक वास्तविकता के साथ जीना होगा. उन्होंने एक नया कश्मीर संभाला है जहां वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और कश्मीरियत को जल्द से जल्द बहाल किया जाना चाहिए. अब्दुल्ला हमेशा कश्मीर के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं. कश्मीर में 1990 से एक लाख से अधिक नागरिक और सुरक्षाबल के जवान मारे गये हैं. अपनी आधुनिक छवि और मुखर रवैये के फायदों के बावजूद अब्दुल्ला जूनियर का सिंहासन कांटों का है. लोकतांत्रिक समर्थन के बावजूद उमर को यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कार्यक्रम आधारित शासन सुनिश्चित करना चाहिए जो अब तक आईसीयू में था.

जम्मू-कश्मीर को किसी भी चीज से ज्यादा राजनीतिक और आर्थिक स्थिरतता की जरूरत है. यह इकलौता ऐसा राज्य है जहां 1951 से 8 मुख्यमंत्रियों के मुकाबले 11 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है. इसने केंद्र शासन का सबसे लंबा दौर देखा है. पहली बार 1990 से 1996 तक छह साल के लिए और 2019 से सिंतबर 2024 तक का वह समय जब यह केंद्र शासित प्रदेश के अवतार में आया. उमर के दादा शेख अब्दुल्ला कश्मीर के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री थे. नेहरू के आदेश पर गिरफ्तार होने से पहले लगभग पांच साल तक उन्होंने शासन किया था. तीनों अब्दुल्लाओं के नाम अपने पहाड़ी राज्य पर सबसे लंबे समय तक शासन करने का रिकॉर्ड है- 34 साल.

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