advertisement
एसए अय्यर ने सवाल उठाया है कि क्या 21वीं सदी में दुनिया में चीन का आधिपत्य हो जाएगा? चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party Of China) के 100वीं जयंती पर घोषणा की है कि ‘चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद’ के सामने दुनिया नतमस्तक हो जाएगी. क्या ऐसा होने वाला है या फिर हश्र जापान और यूएसएसआर जैसा हश्र होने वाला है जो नंबर वन होने का सपना देख रहे थे?
चीन ने अब तक निरंकुश सियासत और बंद अर्थव्यवस्था का विकल्प नहीं देखा है. चार प्रमुख एशियाई देशो में ताईवान और हांगकांग ने लोकतंत्र को अपनाया है. लेखक का मानना है कि कोरिया और ताइवान ने भी जिस तरह से सामाजिक और आर्थिक दबावों को दरकिनार किया है उसका असर चीन पर भी पड़ेगा.
चीन कम्युनिस्ट आधिपत्य के सिद्धांत को भी नहीं मानता और डेंग जियोपिंग ने वैश्विक स्पर्धात्कम बाज़ार को स्वीकार किया था. शी ने उस सोच में बदलाव किया, लेकिन उसे खारिज नहीं किया. सिंगापुर की सफलता से प्रेरित होकर चीन ने वैश्विक कारोबार और निवेश का स्वागत किया. उईघर के उदाहरण से पता चलता है कि जिनपिंग अधिक मजबूत राजनीतिक नियंत्रण के पैरोकार हैं. लेखक को विश्वास है कि दुनिया में अमेरिका, यूरोप, जापान और संभवत: भारत के साथ बहु-ध्रुवीय अर्थव्यवस्था होगी.
पी चिदंबरम (P Chidambaram) ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मुश्किल हालात में शांत बने रहने की योग्यता फ्रांस में सॉंग्फ्रवा शब्द से व्यक्त होती है. भारत ने इस मामले में फ्रांस को पीछे छोड़ दिया है. भूखे-प्यासे पैदल लाखों लोगों का पलायन और उसके प्रति उदासीनता, अस्पतालों के बाहर एंबुलेंसों की कतार और उसे अभिशाप मान लेना, कोविड से 4 लाख से ज्यादा मौत को निजी समझ लेना, लाखों गरीब बच्चों के ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रहने पर भी खामोश रहना भारत में ही हो सकता है. श्रम और रोजगार मंत्री, स्वास्थ्यमंत्री और शिक्षा मंत्री ने इस्तीफे तो दिए लेकिन इसे अपनी गैर-जिम्मेदारी से नहीं जोड़ा. मुश्किल हालात में शांत बने रहने का यह गुण राफाल मामले में भी दिखता है.
चिदंबरम बताते हैं कि एक भारतीय कंपनी डेफिस सॉल्युशंस को सही में पांच लाख अट्ठानबे हजार नौ सौ पच्चीस यूरो का भुगतान किया गया था. कई तरह के तथ्य भी सामने आए और उस आधार पर फ्रांस की पब्लिक प्रॉजीक्यूटर सर्विसेज ने नयी जांच शुरू की और न्यायिक जांच के लिए जज नियुक्त कर दिया. राफाल विवाद में भारत की चार संस्थाओं मीडिया, सुप्रीम कोर्ट, संसद और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने देश को निराश किया है. एक बार फिर इन चौखटों पर सुनवाई नहीं होनी है. हालांकि उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से ही है जहां ताजा हवा बहनी शुरू हुई है.
सागरिका घोष ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि बीमार स्टेन स्वामी (Father Stan) को जमानत देने से लगातार इनकार किया जाता रहा लेकिन कोई गुस्सा नहीं उपजा. पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े मगर सोशल मीडिया में कुछ कह-सुनकर बातें खत्म हो गयीं. कोविड के समय में शहरों में चरम पर पहुंची बेरोजगारी और स्वास्थ्य सेवाओं में कमी के कारण मौतें हुईं लेकिन भारत के शहरी मध्यमवर्ग को कोई शिकायत नहीं हुई. क्या यह जुलूस-प्रदर्शन को लेकर कर गुस्से का नतीजा है? नहीं.
मगर, भारतीय मध्यमवर्ग इससे उद्वेलित नहीं है. 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान भी यही मध्यमवर्ग था. भ्रष्टाचार के खिलाफ 2010-11 में जो प्रदर्शन दिखा या निर्भया मामले में 2012 में जैसा विरोध दिखा था, वह तब भी नज़र नहीं आया जब महामारी में लोगों की नौकरियां और जानें गयीं. आज सीएए-एनआरसी और किसान प्रदर्शनों से जुड़े लोगों पर सीधी कार्रवाई का खतरा है. अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में जनता सड़क पर उतर आयी तो ब्राजील तक में बोल्सोनारो विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं. मगर, भारत में यह विरोध नहीं दिखता.
करन थापर (Karan Thapar) ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बचपन में उन्होंने एलपी हार्टली की किताब पढ़ी थी- ‘द गो बिटविन’. तब उस पुस्तक में कही गयी बातें समझ में नहीं आयी थीं. अब 60 की उम्र में वही बातें समझ में आ रही हैं कि अतीत पराए देश की तरह होता है.
करन थापर बताते हैं कि वे कभी वेल्हम्स नहीं गये, लेकिन उससे सटे दून स्कूल में 6 साल पढ़ाई की. ऐसी चीजें 1960 के दशक में नहीं होती थीं. हम न जानते थे और न परवाह करते थे कि हमें कैसा मांस दिया जा रहा है. न ही अभिभावकों को चिंता थी. लेखक बताते हैं कि स्कूल के दिनों में धर्म और जाति को लेकर हम बिल्कुल बेपरवाह हुआ करते थे.
हम इसी बात पर ध्यान देते कि कई लोग खेल में हमसे बेहतर हैं या कोई हमसे बड़ा स्कॉलर है. करन लिखते हैं कि जब वे युवा हुए तब ‘लव जिहाद’ नहीं था. न ही तब गाय लिंचिंग जैसे शब्द प्रचलित थे. पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ शरणार्थी को किसी ने दीमक नहीं कहा. इसके बजाए 5 पैसे का स्टांप टैक्स देकर हमने उनके ठहरने में मदद की. अब लेखक पूछते हैं कि क्या अतीत किसी पराए देश की तरह नहीं लगता?
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जब प्रधानमंत्री (PM Modi) का कद अपने मंत्रिमंडल से कुछ ज्यादा ऊंचा होता है तो मंत्रियों का आना-जाना बेमतलब हो जाता है. स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने कोविड महामारी के दौर में नेतृत्व नहीं दिखलायी, निराश किया. मगर, जो नये स्वास्थ्यमंत्री आए हैं वे भी इस क्षेत्र से अनजान हैं. साथ में रसायन और उर्वरक मंत्रालय की भी जिम्मेदारी दी गयी है. प्रधानमंत्री अब तक यह नहीं देख पाए हैं कि कोविड के दूसरे दौर में जौ मौत हुई हैं वह इसलिए हुई हैं क्योंकि हमारी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं.
तवलीन सिंह बताती हैं कि केंद्र सरकार में काबिल और शक्तिशाली स्वास्थ्य मंत्री की आज जैसी जरूरत पहले कभी नहीं थी. स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में सुधार के बिना आर्थिक सुधार बेमतलब होंगे. लेखिका सवाल उठाती हैं कि बीते 18 महीनों से गरीबों के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं. अस्वस्थ, अशिक्षित बच्चे कैसे बनाएंगे मोदी के सपनों का नया भारत?
पढ़ें ये भी: अफगानिस्तान में तालिबान की बढ़त बीच भारत ने कंधार से राजनयिकों,जवानों को निकाला
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)