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संडे व्यू: क्या राफेल पर टूटेगी खामोशी? फादर स्टेन पर मध्यमवर्ग चुप क्यों?

संडे व्यू में पढ़ें देश के चुनिंदा अखबारों के अहम लेख

क्विंट हिंदी
भारत
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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शी को करना होगा चीनी मॉडल में बदलाव

एसए अय्यर ने सवाल उठाया है कि क्या 21वीं सदी में दुनिया में चीन का आधिपत्य हो जाएगा? चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party Of China) के 100वीं जयंती पर घोषणा की है कि ‘चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद’ के सामने दुनिया नतमस्तक हो जाएगी. क्या ऐसा होने वाला है या फिर हश्र जापान और यूएसएसआर जैसा हश्र होने वाला है जो नंबर वन होने का सपना देख रहे थे?

अय्यर बताते हैं कि चीन अब भी औसतम आय वाला देश है जहां प्रतिव्यक्ति आमदनी 10 हजार डॉलर है. यह अमेरिका के मुकाबले छठा हिस्सा है. चीन की प्रतिव्यक्ति आय निश्चित रूप से लगातार ऊपर जाएगी लेकिन जब यह 20 या 30 हजार डॉलर प्रति व्यक्ति तक पहुंचेगी तो उसके बाद यह तभी बढ़ेगी जब चीन की नीतियों में लोच आएगा.

चीन ने अब तक निरंकुश सियासत और बंद अर्थव्यवस्था का विकल्प नहीं देखा है. चार प्रमुख एशियाई देशो में ताईवान और हांगकांग ने लोकतंत्र को अपनाया है. लेखक का मानना है कि कोरिया और ताइवान ने भी जिस तरह से सामाजिक और आर्थिक दबावों को दरकिनार किया है उसका असर चीन पर भी पड़ेगा.

अय्यर बताते हैं कि रूसी नेता ख्रुश्चेव ने 50 के दशक में दुनिया को विकास में पीछे छोड़ देने का दावा किया था जिस पर कई अर्थशास्त्री भी विश्वास करने लगे थे लेकिन 80 का दशक आते-आते उनका विश्वास टूट गया. निस्संदेह चीन का मॉडल सोवियत मॉडल से बेहतर है.

चीन कम्युनिस्ट आधिपत्य के सिद्धांत को भी नहीं मानता और डेंग जियोपिंग ने वैश्विक स्पर्धात्कम बाज़ार को स्वीकार किया था. शी ने उस सोच में बदलाव किया, लेकिन उसे खारिज नहीं किया. सिंगापुर की सफलता से प्रेरित होकर चीन ने वैश्विक कारोबार और निवेश का स्वागत किया. उईघर के उदाहरण से पता चलता है कि जिनपिंग अधिक मजबूत राजनीतिक नियंत्रण के पैरोकार हैं. लेखक को विश्वास है कि दुनिया में अमेरिका, यूरोप, जापान और संभवत: भारत के साथ बहु-ध्रुवीय अर्थव्यवस्था होगी.

क्या टूटेगी खामोशी, उठेगी आवाज़?

पी चिदंबरम (P Chidambaram) ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मुश्किल हालात में शांत बने रहने की योग्यता फ्रांस में सॉंग्फ्रवा शब्द से व्यक्त होती है. भारत ने इस मामले में फ्रांस को पीछे छोड़ दिया है. भूखे-प्यासे पैदल लाखों लोगों का पलायन और उसके प्रति उदासीनता, अस्पतालों के बाहर एंबुलेंसों की कतार और उसे अभिशाप मान लेना, कोविड से 4 लाख से ज्यादा मौत को निजी समझ लेना, लाखों गरीब बच्चों के ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रहने पर भी खामोश रहना भारत में ही हो सकता है. श्रम और रोजगार मंत्री, स्वास्थ्यमंत्री और शिक्षा मंत्री ने इस्तीफे तो दिए लेकिन इसे अपनी गैर-जिम्मेदारी से नहीं जोड़ा. मुश्किल हालात में शांत बने रहने का यह गुण राफाल मामले में भी दिखता है.

पी चिदंबरम ने आगे याद दिलाया है कि फ्रांसीसी पत्रिका मीडियापार्ट ने बीते शनिवार को रफाल विमान सौदे पर अप्रैल 2021 की अपनी रिपोर्ट आगे बढ़ाते हुए रिपोर्ट छापी तो भारत में एक पत्ता भी नहीं हिला. रक्षा मंत्रालय, रक्षा मंत्री सब खामोश रहे. यह ‘सांग्फ्रवा’ होता है. रिपोर्ट में मीडियापार्ट ने खुलासा किया कि फ्रांसीसी विमान निर्माता कंपनी दासो उस बिचौलिए को दस लाख यूरो देने को सहमत हो गयी थी जिसके खिलाफ एक अन्य रक्षा सौदे के मामले में भारत में जांच चल रही है.

चिदंबरम बताते हैं कि एक भारतीय कंपनी डेफिस सॉल्युशंस को सही में पांच लाख अट्ठानबे हजार नौ सौ पच्चीस यूरो का भुगतान किया गया था. कई तरह के तथ्य भी सामने आए और उस आधार पर फ्रांस की पब्लिक प्रॉजीक्यूटर सर्विसेज ने नयी जांच शुरू की और न्यायिक जांच के लिए जज नियुक्त कर दिया. राफाल विवाद में भारत की चार संस्थाओं मीडिया, सुप्रीम कोर्ट, संसद और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने देश को निराश किया है. एक बार फिर इन चौखटों पर सुनवाई नहीं होनी है. हालांकि उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से ही है जहां ताजा हवा बहनी शुरू हुई है.

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चुप क्यों है भारत का मध्यमवर्ग?

सागरिका घोष ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि बीमार स्टेन स्वामी (Father Stan) को जमानत देने से लगातार इनकार किया जाता रहा लेकिन कोई गुस्सा नहीं उपजा. पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े मगर सोशल मीडिया में कुछ कह-सुनकर बातें खत्म हो गयीं. कोविड के समय में शहरों में चरम पर पहुंची बेरोजगारी और स्वास्थ्य सेवाओं में कमी के कारण मौतें हुईं लेकिन भारत के शहरी मध्यमवर्ग को कोई शिकायत नहीं हुई. क्या यह जुलूस-प्रदर्शन को लेकर कर गुस्से का नतीजा है? नहीं.

सागरिका लिखती हैं कि लोग सरकार की ओर से थोड़ी सी दया के बदले स्वतंत्रता का त्याग करने और यहां तक कि गरिमा को भी छोड़ने को तैयार हैं. समाज पूरी तरह से ध्रुवीकृत हो चुका है और परस्पर विश्वास टूट गया है. सरकार व्यक्तिगत आजादी पर हमले कर रही हैं. न ट्रायल की जरूरत है न बेल देने की.

मगर, भारतीय मध्यमवर्ग इससे उद्वेलित नहीं है. 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान भी यही मध्यमवर्ग था. भ्रष्टाचार के खिलाफ 2010-11 में जो प्रदर्शन दिखा या निर्भया मामले में 2012 में जैसा विरोध दिखा था, वह तब भी नज़र नहीं आया जब महामारी में लोगों की नौकरियां और जानें गयीं. आज सीएए-एनआरसी और किसान प्रदर्शनों से जुड़े लोगों पर सीधी कार्रवाई का खतरा है. अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में जनता सड़क पर उतर आयी तो ब्राजील तक में बोल्सोनारो विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं. मगर, भारत में यह विरोध नहीं दिखता.

पराया देश होता है अतीत!

करन थापर (Karan Thapar) ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बचपन में उन्होंने एलपी हार्टली की किताब पढ़ी थी- ‘द गो बिटविन’. तब उस पुस्तक में कही गयी बातें समझ में नहीं आयी थीं. अब 60 की उम्र में वही बातें समझ में आ रही हैं कि अतीत पराए देश की तरह होता है.

लेखक लिखते हैं कि वेल्हम ब्वॉयज स्कूल के प्रिंसिपल के खिलाफ धारा 505 (2) लगी है जो शत्रुता पैदा करने या बढ़ाने, नफरत फैलाने या अलग-अलग समुदायों में बुरी नीयत से फूट डालने के आरोपों पर लगती है. यह गैर जमानती धारा है. तीन साल तक की जेल हो सकती है. ऐसा क्या भयानक उन्होंने किया? उन्होंने स्कूल के लिए हलाल मीट का विज्ञापन दिया. बजरंग दल के विकास वर्मा को यह नागवार गुजरा. उनके मुताबिक हिन्दुओं की भावनाएं आहत हुई हैं.

करन थापर बताते हैं कि वे कभी वेल्हम्स नहीं गये, लेकिन उससे सटे दून स्कूल में 6 साल पढ़ाई की. ऐसी चीजें 1960 के दशक में नहीं होती थीं. हम न जानते थे और न परवाह करते थे कि हमें कैसा मांस दिया जा रहा है. न ही अभिभावकों को चिंता थी. लेखक बताते हैं कि स्कूल के दिनों में धर्म और जाति को लेकर हम बिल्कुल बेपरवाह हुआ करते थे.

हम इसी बात पर ध्यान देते कि कई लोग खेल में हमसे बेहतर हैं या कोई हमसे बड़ा स्कॉलर है. करन लिखते हैं कि जब वे युवा हुए तब ‘लव जिहाद’ नहीं था. न ही तब गाय लिंचिंग जैसे शब्द प्रचलित थे. पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ शरणार्थी को किसी ने दीमक नहीं कहा. इसके बजाए 5 पैसे का स्टांप टैक्स देकर हमने उनके ठहरने में मदद की. अब लेखक पूछते हैं कि क्या अतीत किसी पराए देश की तरह नहीं लगता?

सबक तब लेंगे जब मानेंगे गलती

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जब प्रधानमंत्री (PM Modi) का कद अपने मंत्रिमंडल से कुछ ज्यादा ऊंचा होता है तो मंत्रियों का आना-जाना बेमतलब हो जाता है. स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने कोविड महामारी के दौर में नेतृत्व नहीं दिखलायी, निराश किया. मगर, जो नये स्वास्थ्यमंत्री आए हैं वे भी इस क्षेत्र से अनजान हैं. साथ में रसायन और उर्वरक मंत्रालय की भी जिम्मेदारी दी गयी है. प्रधानमंत्री अब तक यह नहीं देख पाए हैं कि कोविड के दूसरे दौर में जौ मौत हुई हैं वह इसलिए हुई हैं क्योंकि हमारी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि मंत्रिमंडल में फेरबदल वाले दिन वह दिल्ली से सटे यूपी के गांवों में थीं. जायजा लेने पर पता चला कि गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओँ के हालात अखिलेश राज जैसे ही हैं. लोगों ने बताया कि अप्रैल-मई महीने में कोविड भयंकर रूप से फैला था. लोगों ने अस्पताल जाना जरूरी नहीं समझा क्योंकि वहां जाने का मतलब मौत था. घर में ही इलाज किया. यहीं ठीक हुए. लेखिका कहती हैं कि महामारी को हराना है तो सही आंकड़े जानना जरूरी है. मगर, योगी आदित्यनाथ की सरकार आंकड़े छिपाने की कोशिश में लगी हुई है.

तवलीन सिंह बताती हैं कि केंद्र सरकार में काबिल और शक्तिशाली स्वास्थ्य मंत्री की आज जैसी जरूरत पहले कभी नहीं थी. स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में सुधार के बिना आर्थिक सुधार बेमतलब होंगे. लेखिका सवाल उठाती हैं कि बीते 18 महीनों से गरीबों के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं. अस्वस्थ, अशिक्षित बच्चे कैसे बनाएंगे मोदी के सपनों का नया भारत?

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Published: 11 Jul 2021,09:24 AM IST

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