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संडे व्यू : भारत की सभ्यता नहीं है हिजाब, कमजोर हो रहा है संघवाद

सही मायने में मदर इंडिया थीं लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar). संडे व्यू में पढ़ें देश के प्रमुख अखबारों के लेख

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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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संडे व्यू में आज पढ़ें तवलीन सिंह, टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, मार्क टुली और रामचंद्र गुहा जैसी नामचीन हस्तियों के विचारों का सार.

भारत की सभ्यता नहीं है हिजाब

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हिजाब के बहाने भारतीय मुसलमानों के पहचान बदलने की कोशिश की जा रही है. कई उदाहरणों से लेखिका बताती हैं कि हिजाब को अल्लाह के ज्यादा नजदीक आने का माध्यम बताकर मासूम लड़कियों पर इसे थोपा जा रहा है. हिजाब की लड़ाई लड़ने जो लड़कियां स्कूल से हाईकोर्ट तक पहुंची हैं उन्हें वहां तक पहुंचाने वाली ताकतें कौन हैं और देशभर में इस मुद्दे पर इतना समर्थन ऐसी सोच को क्यों मिल रहा है यह महत्वपूर्ण सवाल है.

दक्षिण भारत में महिलाओं में हिजाब पहनने और पुरुषों में दाढ़ी रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है और जेहादी प्रवृत्तियों को समझने वाले इसे जेहादी सोच का विस्तार मानते हैं.

लेखिका कहती हैं कि हिजाब पहनाना हमारे देश की सभ्यता नहीं रही है. यह हमारी सभ्यता पर हमला है और भारतीय इस्लाम को परिवर्तित करके एक नया डरावना रूप देने की कोशिश है. लेखिका बताती हैं कि हमारे देश में इस्लाम का रूप इतना उदारवादी हुआ करता था कि कभी कश्मीर में औरतें अपने सर तक नहीं ढंकती थीं और उनको मस्जिदो में नमाज अदा करने की इजाजत थी.

आज हाल यह है कि श्रीनगर की सड़कों मे शायद ही कोई महिला दिखेगी जो पूरी तरह बुरके में लिपटी ना हो. यही हाल मुंबई का हो चला है. लेखिका को लगताहै कि हिजाब को लेकर जिहादी झगड़े में छिपी है कई और बातें, कई ऐसे विचार जो इस देश की भलाई के लिए बिल्कुल नहीं हैं.

मेहनत के काम पर भारी सफेदपोश काम

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि देश में सेवा निर्यात तेजी से बढ़ा है और यह विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात के लगभग बराबर आ गया है. 2000-01 में जहां सेवा निर्यात विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात का आधा था, वही यह 2010-11 में इन दोनों किस्म के निर्यात का अंतर घटा. 2020-21 में सेवा निर्यात कुल 206 अरब डॉलर का हुआ तो वस्तु निर्यात 202 अरब डॉलर का. देश में सेवा और वस्तु निर्यात का यह अनुपात औद्योगिक देशों के समान हो गया है. भारत जैसे विविध विकासशील देश के लिए यह विशिष्ट है.

ॉमगर, यह रुझान चालू वर्ष में उलटता नजर आता है. इस साल वस्तु निर्यात सेवा निर्यात की तुलना में तेज गति से बढ़ा है और ऐसा पेट्रोलियम वस्तुओँ के निर्यात की ऊंची कीमतों के कारण हुआ है. इसलिए आशा की जानी चाहिए कि यह रुझान स्थायी नहीं रहेगा.

टीएन नाइनन लिखते हैं कि चिप निर्माण के बजाए जिप डिजाइन करने में हमारी महारत और बेहतर मार्जिन होने के कारण ज्ञान आधारित उत्पादों मसल औषधियों तथा विशिष्ट रसायनों के निर्यात में हमारी सफलता हमारी खासियत है. लेखक श्रम शक्ति की लागत के कारण हम स्पर्धी हो सके हैं. इसकी वजह खेती के काम में कम मेहनताना है. बीते एक दशक में कृषि निर्यात में 68 फीसदी का इजाफा हुआ है जबकि विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में केवल 22 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है.

लेखक सवाल उठाते हैं कि क्या निर्यात बाजारों के लिए श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर देने के लिहाज से बहुत देर हो चुकी है? लेखक खुद चीन के उदाहरण से इसका जवाब ‘नहीं’ में देते हैं. वे बताते हैं कि उच्च श्रम लागत के बावजूद चीन कपड़ों का निर्यात करके हमसे ज्यादा आमदनी करता है. अगर भारत ने केवल वस्तुओं का व्यापार किया होता तो 150 अरब डॉलर का भारी भरकम घाटा के कारण रुपये का मूल्य कम हुआ होता. उससे हमारी विनिर्मित वस्तुएं निर्यात बाजार में सस्ती हुई होती. देश का विदेशीमुद्रा भंडार बढ़ा है. आम बजट में यह राहत की बात है कि सरकार ने बान्ड बाजार को अंतरराष्ट्रीय पूंजी के ले ज्यादा नहीं खोला. यदि ऐसा किया जाता तो समस्या और गहन हो जाती.

आंकड़ों का काला जादू

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कृषि और उद्योग में भी मोदी का प्राथमिकता मॉडल निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाला रहा है. नोटबंदी के बाद मोदी अपना दर्शन बदलते दिखे. जब निजी क्षेत्र से मोहभंग होने लगा तो सरकार ने नेतृत्व वाले मॉडल के समर्थक हो गये. 2022-23 के बजट के साथ यह बदलाव पूरा हो चुका है. यह एक इंजन से चलने वाला बजट है और यह इंजन है सरकार का पूंजीगत खर्च. लेखक ने पूंजीगत खर्च के आंकड़े पर भी सवाल उठाए हैं.

चिदंबरम ने लिखा है कि सरकार ने कर्ज चुकाने को भी पूंजीगत खर्च की श्रेणी में ला दिया है. एअर इंडिया के निजीकरण के पहले उसके पुराने कर्जो और देनदारियों को चुकाने में लगायी गयी रकम भी पूंजीगत खर्च का हिस्सा बता दी गयी है. अगर इस राशि को घटा दें तो 2021-22 में पूंजीगत खर्च 5,50, 840 करोड़ रुपये होगा.

यह 6,02,711 करोड़ कतई नहीं है. वित्तमंत्री ने राज्यों के लिए यह प्रावधान किया है कि अगर वे पूंजीगत खर्च बढ़ाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें एक लाख करोड़ तक का ब्याज मुक्त कर्ज लेने की इजाजत होगी. लेखक को आशंका है कि राज्य सीधे बाजार से उधारी लेंगे और केंद्र सरकार सिर्फ ब्याज चुकाएगी. इस रकम को भी बजट अनुमान में डालने का घृणित काम किया गया है.

पी चिदंबरम लिखते हैं कि पिछले साल सरकार ने बीपीसीएल, सीसीएल, एससीआई समेत दो सरकारी बैंकों और एक सरकारी बीमा कंपनी के निजीकरण का फैसला किया था लेकिन वह कोशिश अधूरी रही. 6 लाख करोड़ की सरकारी संपत्तियों के मौद्रीकरण का ऐलान पर भी अमल नहीं हुआ. रेलवे के 109 रूटों पर 151 यात्री गाड़ियों के निजीकरण की बोलियां आमंत्रित की गयीं, लेकिन कोई सामने नहीं आया. लेखक का मानना है कि इसक मूल वजह है कारोबारी माहौल अच्छा नहीं रह गया है.

लेखक की सलाह है कि नगदी हस्तांतरण और अप्रत्यक्ष करों में कटौती करके गरीब और मध्य वर्ग के हाथों में और पैसा पहुंचाया जाए ताकि मांग में वृद्धि हो सके. वे बंद हो चुकी या घाटे में जा चुकी एमएसएमई को फिर से खड़ा करने की भी सलाह देते हैं. इससे लाकों लोगों का रोजगार शुरू हो सकेगा जो छिन चुका है. लेखक कल्याण कार्यक्रमों पर भी खर्च बढ़ाने की सलाह देते हैं.

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कमजोर हो रहा है संघवाद, दबाव में हैं प्रदेश

रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में भारतीय संघवाद पर उठ रही चिंता को व्यक्त किया है. गणतंत्र दिवस पर तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल की प्रदर्शनी मॉडल को खारिज कर देना उदाहरण है जो गैर बीजेपी शासित प्रदेश हैं. केरल की सरकार बर्खास्त करने के रूप में भारतीय संघवाद पर हमला 1959 में शुरू हुआ था जो क्रमश: बढ़ता चला गया.

इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल में 50 बार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल किया. जबकि, नरेंद्र मोदी के सात साल के कार्यकाल में 8 बार इसका इस्तेमाल किया जा चुका है. इस लिहाज से ऐसा जरूर लगता है कि मोदी का कार्यकाल भारतीय संघवाद पर हमले के तौर पर अपेक्षाकृत बेहतर है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है.

रामचंद्र गुहा ने ऐसे पांच तरीकों को चिन्हित किया है जिनके जरिए संघवाद पर हमले जारी हैं. पहला तरीका है राज्यों से परामर्श के बगैर नीतियों का निर्माण और कानून बनाया जाना. तीन कृषि कानून उदाहरण हैं. दूसरा उदाहरण यूएपीए जैसे कानूनों का इस्तेमाल राजनीतिक असंतोष को दबाने के लिए किया जाना और राज्यों की मर्जी के बगैर नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी का इस्तेमाल करना दूसरा उदाहरण है. ऐसा लगता है कि दंड देने का अधिकार केंद्र सरकार अपने हाथ में रखना चाहती हो.

देशव्यापी लॉकडाउन के लिए मध्यप्रदेश में सरकार बनने तक का इंतजार एक और उदाहरण है. लॉकडाउन के लिए राज्यों की सहमति लेने की जरूरत भी नहीं समझी गयी. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून लागू करते वक्त भी इसकी जरूरत नहीं समझी गयी. तीसरा उदाहरण है कि मोदी सरकार सीबीआई, ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को धमकाने में करने लगी हैं.

चौथा उदाहरण है कि आईपीएस और आईएएस की वफादारी सुनिश्चित कर रही है ताकि राज्यों पर व्यवस्थित हमला जारी रखा जा सके. मोदी-शाह के कार्यकाल में राज्यपालों का दुरुपयोग भी बढ़ा है. महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल इसके उदाहरण हैं. केंद्रीय योजनाओं को प्रधानमंत्री के नाम पर व्यक्तिगत बनाते हुए भी भारतीय संघवाद पर हमला किया जा रहा है. पूर्ववर्ती सरकारों ने जहां केंद्र शासित प्रदेशों को राज्य का दर्जा दिया, वहीं वर्तमान सरकार ने राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में बदल डाला.

सही मायने में मदर इंडिया थीं लता मंगेशकर

मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में मार्क टुली ने लिखा है कि आम बजट और पांच राज्यों में चुनाव के बीच उन्होंने लता मंगेशकर पर कॉलम लिखने का फैसला किया तो इसकी खास वजह है. लता मंगेशकर का महत्व यह है कि उन्होंने इतने सालों से गीत गाए हैं और अनगिनत सालों तक ये गाये जाते रहने वाले हैं. बीते साल लता मंगेशकर को यू ट्यूब चैनल पर 6.7 अरब बार सुना गया. मंगेशकर को संगीत की शिक्षा उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर से मिली लेकिन जब लता 12 साल की थीं तभी उनके पिता का निधन हो गया. वह गोमांतक मराठा समाज की सदस्य थीं जो कभी गोवा की देवदासी समुदाय का हिस्सा हुआ करता था.

मार्क टुली लिखते हैं कि इस बात पर विवाद है कि मंगेशकर परिवार ब्राह्मण है या कि देवदासी. . सच चाहे जो हो आजादी के समय के आसपास से ही मंगेशकर की चर्चा होने लगी थी. मंगेशकर ने तब नाक से गायन की परंपरा को अपने शास्त्रीय संगीत शिक्षा की बदौलत बदलकर रख दिया. न्यू इंडिया की वह भाषा बन गयीं. 50 के दशक में रेडियो सिलोन की वजह से लता की आवाज़ पूरे दक्षिण एशिया में फैल गयी.

फिल्म के माध्यम से भी लता की आवाज़ फैली और वह तेजी से स्टार बन बैठीं. उनकी बहन आशा भोसले प्रयोगवादी रहीं, लेकिन लता शास्त्रीय संगीत के प्रति वफादार बनी रहीं. मार्क टुली ने अपने अनुभव से लिखा है कि बीबीसी के लिए उन्होंने कई बार लता मंगेशकर का इंटरव्यू लेना चाहा लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुईं जबकि उनकी बहन आशा भोंसले का इंटरव्य हो दिखा पाए. अलग-अलग भाषाओं में गा रहीं लता मंगेशकर निस्संदेह भारत की गायिका थीं.

लता पाकिस्तान में भी उतनी ही मशहूर रहीं. द डाउन में उन्हें दी गयी श्रद्धांजलि में याद किया गया है कि भारतीय फिल्में पाकिस्तान में दिखायी जाती थीं और लता मंगेशकर को खूब सुना जाता था. आजादी के आरंभिक दिनों में लता ने देश को जोड़कर रखा ठीक उसी तरह जैसे क्रिकेट ने यह काम किया. वह खुद क्रिकेट की प्रशंसक रहीं. वह सही मायने में मदर इंडिया थीं.

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