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सरकार तीन कदम उठाती तो RBI को हताशा भरी मौद्रिक नीति अपनाने की जरूरत न होती

'हताश' मौद्रिक नीति उस कड़वी सच्चाई को बयां करती है जिसे वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में टालने की कोशिश की थी.

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बाजार को जीता नहीं जा सकता, न साधा जा सकता है और न ही किसी तरह से दबाया या चुप कराया जा सकता है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Finance Minister Nirmala Sitharaman) ने ये खोज बजट वाले दिन 'ग्रोथ, ग्रोथ, ग्रोथ' का गुणगान करने के कुछ ही घंटों के भीतर की. अपनी छोटी सी स्पीच में वित्त मंत्री आसानी से कमजोर बॉन्ड मार्केट्स, रूपये-डॉलर के एक्सचेंज रेट्स और तेल की कीमतों जैसी सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बातों को आसानी से इग्नोर करती हुई निकल गईं.

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लेकिन जिस पल उन्होंने अर्थव्यवस्था पर कर्ज का बम गिराया कि सरकार पिछले साल से 50 प्रतिशत ज्यादा यानी 5 लाख करोड़ रुपये ज्यादा कर्ज लेगी, सेंट्रल बैंक मजबूर हो गया. मजबूर हो गया कि अगले हफ्ते ही वो हताशा से भरी हुई मौद्रिक नीति पेश करे जो चीख-चीख उन चुनौतियों के बारे में बात कर रही है जिनपर निर्मला सीतारमण चुप रह गईं थीं.

हताशा भरी मुद्रा नीति

मैंने मुद्रा नीति Monetary Policy को ‘desperate’ या हताशा भरा इसलिए कहा क्योंकि, इसमें अनिवार्य और जरूरी बातों को हर तरह से टालने की कोशिश की गई है.

इससे ब्याज दरें दसवीं तिमाही में भी कम रहीं जबकि US का खजाना इसी अवधि में चौगुना तक बढ़ गया और तेल की कीमतें भी दोगुनी हो गईं.

voluntary retention route (VRR) को 1 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ा दिया गया, जिससे बॉन्ड मार्केट्स में विदेशी निवेशकों से एडिशनल कैपिटल को खींचा जा सके. निवेशकों ने गिरते हुए बाजार में 10 बेसिस प्वाइंट की कटौती कर अपनी प्रतिक्रिया दे दी. आखिरकार 1 लाख करोड़ रुपये से क्या होगा जब वित्त मंत्री ने हैरान करने वाला कदम उठाते हुए 2.50 लाख करोड़ रुपये (30 बिलियन डॉलर) के निवेश को ही दरकिनार कर दिया हो. अगर उन्होंने कैपिटल गेन टैक्स के नियमों में बदलाव करके भारतीय पूंजी के वैश्विक बॉन्ड बाजार में आने के लिए रास्ता खोला होता तो ये निवेश तेजी से आ सकता था. ये एक सुनहरा अवसर था जो अब जा चुका है.

1 डॉलर की कीमत 75 रुपये से ज्यादा बढ़ गई है. वहीं तेल की कीमतें भी तीन अंकों में हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये हमेशा से ही सबसे डराने वाली बात रही है.

लेकिन ईमानदारी से कहूं तो हमें डरने या निराश होने की जरूरत नहीं है. कुछ समझदारी भरे फैसले इस तनाव को कम कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए रायसीना हिल के ब्यूरोक्रेट्स को डॉलर मार्केट्स को लेकर झुकने या पीछे हटने के तर्कहीन डर को छोड़ना होगा.

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पहला काम Sovereign Dollar Bonds के साथ बेधड़क आगे बढ़ना

याद कीजिए 6 जुलाई 2019 को इन्हीं वित्त मंत्री ने बड़ी ही खुशी से 10 बिलियन डॉलर के विदेशी सरकारी बॉन्ड्स की घोषणा की थी? लेकिन फिर दुर्भाग्य से मूखर्तापूर्ण अलोचनाओं की बौछार के डर से उन्हें इसे खत्म करना पड़ा. अगर वो इस साहसिक विचार को रिवाइव करतीं तो ये 5 प्रतिशत सरकारी ग्रॉस बॉरोइंग प्रोग्राम और सिर्फ डेढ़ प्रतिशत फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व्स की बहुत ही दूरदर्शी योजना होती.

एक ही झटके में वो फॉरेन करेंसी रिस्क के जोखिम को अपने खाते में डाल सकती थीं, इससे डोमेस्टिक बॉन्ड मार्केट को फायदा होता और लोकल इंट्रेस्ट रेट्स को कम करने में भी मदद मिलती.

जाहिर है कि उनके मंत्रालय को प्रगतिशील फॉरेन रिस्क मैनेजमेंट स्किल्स को विकसित करना चाहिए जिससे डॉलर को रोकने और इंटरनेशनल करेंसी मार्केट्स में ट्रेजरी ऑपरेशन के लॉन्च को तेज करने में मदद मिले.

हां, बाहर जाती पूंजी के दौर में ये जोखिम भरा हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से चूंकि ये मुश्किल और जोखिम भरा है, इसमें रोमांचक संभावनाएं और फायदे हैं.

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बदकिस्मती से, मैं अभी से सिर्फ न कहने वालों को ही सुन रहा हूं. चलिए एक एक करके इन सभी शंकाओं को दूर करने की कोशिश करते हैं-

पहला ऑब्जेक्शन: डॉलर-रुपये की अस्थिर दरें लंबे समय में लागत बढ़ा देंगी.

जवाब: ये गलत है. डॉलर की दरों को रोकने के लिए 5 परसेंट का प्रीमियम देने से हमारी कीमतें हमेशा के लिए नियंत्रित और परिमाणनात्मक हो जाएंगी, जबकि ये ब्याज दरें उस दर से थोड़ी ज्यादा होंगी जिस पर सरकार लोकल मार्केट से उधार लेती है. ये चीजें कुछ सकारात्मक बातों से पूरी की जा सकती हैं, जिससे विदेशों में उपक्रम शुरू करने में लाभ मिलेगा. इसमें ये तथ्य भी शामिल है कि निजी कर्जदारों को इससे घरेलू बॉन्ड मार्केट्स में ज्यादा कैश मिलेगा.

दूसरा ऑब्जेक्शन: विदेश में क्यों जाना जब FPIs (foreign portfolio investors) अब 1 लाख करोड़ रुपये तक का अतिरिक्त उधार घरेलू बाजार से ही ले सकते हैं?

जवाब: ये ऊपर से देखने में थोड़ा आकर्षक लग सकता है, क्योंकि जब आप विदेश में sovereign bond पर जा रहे हैं, तो आपको ऋणदाताओं की बिल्कुल एक नई कैटेगरी तक पहुंच का मौका मिलता है. ये FPI से कहीं ज्यादा है जिसे भारत में निवेश का अधिकार मिला हुआ है.

तीसरा ऑब्जेक्शन: विदेशी निवेशक बिना किसी विचार के हमारे बॉन्ड्स को छोड़ सकते हैं जिससे रुपया टूट सकता है और दिक्कत आ सकती है.

जवाब: ये गलत है. चूकि इन बॉन्ड का कारोबार डॉलर्स और विदेशी एक्सचेंज में होगा इसलिए इनकी बिकवाली का रुपये या घरेलू बाजार असर नहीं पड़ेगा. दरअसल, रुपये वाले बॉन्ड्स से FPI एक्सपोजर बढ़ेगा और तब बिकवाली का डर घरेलू बाजार और रुपये वाले बॉन्ड को होगा, जिसका दोष डॉलर बॉन्ड पर थोपा जा रहा है.

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दूसरा काम विदेशी बाजार में LIC के 5 प्रतिशत को बेचना

हालांकि ये अभी तक पुख्ता नहीं हुआ है, लेकिन वित्त मंत्री ने इस साल के लिए विनिवेश का आंकलन 75,000 करोड़ तक करके इसकी पुष्टि की है और कहा है कि वह NSE/BSE पर एलआईसी का बस 5 प्रतिशत ही बेचेंगी. चूंकि एलआईसी की कीमत 150 से 200 बिलियन डॉलर यानी 10 से 15 लाख करोड़ के बीच है इसलिए आप इस गणित को आसानी से समझ सकते हैं.

लेकिन ये सरकार एलआईसी के आईपीओ को लेकर इतनी डरी हुई क्यों है. मुझे लगता है कि इसकी वजह इससे पहले दो IPO GIC और New India Assurance का बुरी तरह से पिट जाना है, जिसकी वजह से उनकी आधे से ज्यादा आईपीओ वैल्यू खत्म हो गई. ये बात सरकार को डरा रही है. कई लोग भारतीय बाजार की इस क्षमता पर भी संदेह करते हैं कि क्या ये मार्केट एक ही बार में 100,000 करोड़ रुपये की खरीदारी कर पाएगा.

इसलिए ये बात भी चल रही है कि इस ऑफर को 50,000 करोड़ प्लस के दो हिस्सों में बांट दिया जाए. जिसका मतलब है कि बेचो, डकार लो और फिर बेचो.

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एलाआईसी China Life से बड़ी है तो विदेशों में जाने का जोखिम क्यों नहीं उठाती?

यहां हम China Life Insurance (Group) कंपनी जो उस देश में सबसे बड़ी है, उसकी तुलना एलआईसी से करते हैं-

  • China Life के 1.8 million सेल्स फोर्स चैनल्स की तुलना में एलआईसी के पास करीब 3 मिलियन फील्ड एजेंट हैं.

  • दोनों ही कंपनियों ने करीब 300 million पॉलिसीज बेची हैं.

  • एलआईसी का 66 प्रतिशत मार्केट शेयर China Life के half-a-billion कस्टमर्स से बड़ा है.

  • लिस्टिंग में एलआईसी के मार्केट कैप के 150 से 200 बिलियन डॉलर रेंज में होने की उम्मीद है जो China Life के 90-100 बिलियन डॉलर से कहीं ज्यादा है.

  • एलआईसी भारत में NSE और BSE में लिस्टेड होगी. वहीं China Life शंघाई, हॉन्ग कॉन्ग और न्यूयॉर्क में लिस्टेड है.

अब थोड़ा अलग हटकर और बड़ा सोचिए. हमें एलआईसी के ऑफरिंग को दो भागों में क्यों बांटना चाहिए, जिसमें कई महीनों में अलग-अलग किया गया हो. साफ है कि हम अपने लोकल इंवेस्टर्स से डरे हुए रहते हैं कि हो सकता है उन्हें इसमें बहुत ज्यादा रूचि न हो. इसके बदले क्यों नहीं हम आधे इशू को भारत में बेचते हैं और इसी के साथ इसका दूसरा हिस्सा विदेशों में. इससे LSE/NYSE पर करीब 10 बिलियन डॉलर का फायदा हो सकता है.

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अब एक बार फिर आंकड़ों पर नजर डालते हैं.

  • Sovereign Dollar Bonds से 10 बिलियन डॉलर

  • 10 बिलियन डॉलर LSE/NYSE के 5 प्रतिशत एलआईसी स्टॉक के ऑफर से.

  • 30 बिलियन डॉलर capital gains tax rules में सुधार करने से जिससे खजाने को विदेशी बॉन्ड इंडेक्स में शामिल होने की अनुमति मिले.

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