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पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि देश में पहले लॉकडाउन की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “महाभारत का युद्ध अठारह दिन तक चला था. कोरोना वायरस के खिलाफ इस युद्ध में 21 दिन लगेंगे.” इसका घोषित मकसद संक्रमण श्रृंखला को तोड़ना बताया गया.
लॉकडाउन का दूसरा फेज घोषित करते समय प्रधानमंत्री का जोर था- ‘हमने सही रास्ता चुना है’ और ‘धैर्य रखें’. चिदंबरम लिखते हैं कि सरकार ने कुछ भारी गलतियां कर दीं. एक गलती लॉकडाउन के लिए बमुश्किल चार घंटे की मोहलत देना और दूसरी गलती 25 मई को वित्तीय कार्रवाई योजना के तहत गरीबों के बैंक खाते में रकम पहुंचाने में नाकाम रहना. (वक्त पर) प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था नहीं कर पाना भी बड़ी गलती रही.
इस फेज के पहले पांच दिनों में औसतन 3215 लोग रोज संक्रमित हुए हैं. चिदंबरम लिखते हैं कि आगे दो विकल्प हैं- एक लॉकडाउन का चौथा फेज और दूसरा लॉकडाउन खत्म करते हुए आर्थिक और व्यावसायिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करना. दूसरी स्थिति में धारावी जैसे इलाके में प्रतिबंधों को जारी रखना जरूरी हो सकता है. फैसला प्रधानमंत्री को करना है. यह मुश्किल फैसला होगा.
तवलीन सिंह जनसत्ता में लिखती हैं कि पिछले हफ्ते जर्मनी में लॉकडाउन हटाने के प्रयास शुरू होने की खबर अच्छी लगी. वहां फुटबॉल मैच की तैयारी हो रही है लेकिन दर्शक नहीं होंगे. स्वीडन की ओर दुनिया देख रही है जहां न होटल बंद हुए न रेस्टोरेंट और न बार. स्वीडन में कोरोना का असर लॉकडाउन वाले अमेरिका और इंग्लैंड की तुलना में कम हुआ है. यह भी सवाल उठने लगे हैं कि क्या भारत में लॉकडाउन की जरूरत नहीं थी?
यह भी कहा जा रहा है कि अगर पहला लॉकडाउन नहीं हुआ होता तो बहुत पहले 50 हजार का आंकड़ा भारत पार कर गया होता. वहीं यह भी कहा जा सकता है कि लॉकडाउन के तीसरे फेज से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ है. अर्थशास्त्री कहने लगे हैं कि 30 साल में गरीबी कम करने में मिली सफलता पर पानी फिर सकता है.
हर साल भारत में टीबी से 15 लाख और मलेरिया से 20 हजार मर जाते हैं. हर साल करीब दो लाख बच्चे दस्त और निमोनिया के कारण 5 साल भी नहीं जी पाते. लॉकडाउन कोरोना की गति रोक सकता है, इसे हरा नहीं सकता. लेखिका कहती हैं कि कोरोना से जंग प्रधानमंत्री अकेले नहीं लड़ सकते. वह मुख्यमंत्रियों और दूसरी पार्टियों का साथ लें.
अरविंद सुब्रमण्यम और जोश फेलमन ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि COVID-19 से गंभीर बनी हुई है, सामाजिक गतिविधियां रुकी हुई हैं लेकिन लॉकडाउन से निकलने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं. आर्थिक गतिविधियों पर सबका ध्यान है. वॉरेन बफे की बहुचर्चित प्रतिक्रिया है कि ज्वार-भाटा में जब लहरें लौट जाती हैं तब नुकीली चट्टानों के दर्शन होते हैं. देखना यह है कि COVID-19 की बाढ़ खत्म होने के बाद किस तरह का रूखापन चट्टानों में देखने को मिलता है.
COVID-19 के बाद रेड इंक यानी घाटे में जा चुकी कंपनियां पूरी अर्थव्यवस्था की बैलेंस शीट बिगाड़ने वाली हैं. इस नुकसान से उबरने में लंबा समय लग सकता है. लोन लने वाले लोगों, उद्योगों-फर्मों में एक तिहाई ने मोहलत के लिए आवेदन दिया है. अगर इनमें से एक चौथाई भी बेड लोन होता है तो एनपीए 5 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ जा सकता है. हालांकि बैंक अधिकारी मान रहे हैं कि एनपीए 9 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ जा सकता है. ऐसे में कुल एनपीए 18 लाख करोड़ रुपये का हो जाएगा, जो पूरे आउटस्टैंडिंग का 18 फीसदी होगा. सुब्रमण्यम-फेलमन की सलाह है कि एनपीए की स्थिति से परंपरागत तरीके से न निपटा जाए, बल्कि नया अप्रोच लिया जाए. बैंक वास्तविक स्थिति का पता लगाकर ऐसी कंपनियों की मदद करें और इसके लिए केंद्र सरकार गारंटी की रकम सुनिश्चित करे.
हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि भारतीय श्रम कानून जटिल हैं. इस पर उचित चर्चा जरूरी है. श्रम कानून ऐसा हो, जो करोड़ों लोगों के लिए रोजगार पैदा करे और उन्हें सुरक्षित रखे. भारत में 6.3 करोड़ कंपनियां हैं लेकिन इनमें से 18,500 कंपनियों की पूंजी ही 10 करोड़ रुपये या उससे ऊपर है. असंगठित श्रम बाजार के लिए भारतीय श्रम कानून को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. आर्थिक सर्वे 2020 में कहा गया था कि हर पांचवीं नौकरी संगठित क्षेत्र से आती है. वास्तविक आंकड़ा शायद इससे भी कम है. असंगठित क्षेत्र के कामगारों को वे सुविधाएं नहीं मिलतीं जो संगठित क्षेत्र के कामगारों को मिलती हैं.
चाणक्य लिखते हैं कि 2014 से ही नरेंद्र मोदी सरकार उद्योग और कामगारों के बीच संतुलन बनाने में जुटी रही है. वेतन, विवाद, सुरक्षा और स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर कानून बनाए गए हैं या फिर वे बनने की प्रक्रिया में हैं. समवर्ती सूची में होने के कारण श्रम कानून राज्य सरकारों के दायरे में भी आता है. लिहाजा इंस्पेक्टर राज की वजह से उद्योग जगत अक्सर परेशानी में रहता है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारों ने अपने-अपने राज्य में श्रम कानूनों को स्थगित करने का फैसला किया है. उम्मीद है केंद्र सरकार से इसके लिए जरूरी अनुमति भी मिल जाएगी. इन सरकारों का मानना है कि निवेशकों को आकर्षित करके ही रोजगार पैदा किए जा सकते हैं. मगर, सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि मजदूरों के अधिकार से समझौता न हो. वहीं, कारोबार और अर्थव्यवस्था के लिए भारतीय श्रम कानूनों का बदला जाना भी जरूरी है.
सी रंगराजन और डीके श्रीवास्तव ने ‘द हिंदू’ में लिखा है कि COVID-19 दुनिया की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था को भी. भारत के लिए 2020-21 के लिए 0.8% से 4% के विकास दर के अनुमान की बड़ी रेंज बताती है कि अनिश्चितता कितनी ज्यादा है. आईएमएफ ने भारत के लिए 1.9%, चीन के लिए 1.2% विकास दर का अनुमान लगाया है. वैश्विक विकास दर (-)3% रहने का अनुमान है.
रंगराजन-श्रीवास्तव लिखते हैं कि ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) 8 सेक्टरों पर निर्भर करती है. इसको हम चार समूहों में बांट दें तो ग्रुप ए में कृषि और सहयोगी सेक्टर और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, रक्षा और दूसरी सेवाएं आती हैं. इस क्षेत्र में स्थिति सामान्य रहने की संभावना है. ग्रुप डी में ट्रेड, होटल, रेस्टोरेंट, ट्रैवल और टूरिज्म आते हैं जिसका प्रदर्शन 30 फीसदी से कम रहने के आसार दिख रहे हैं. ग्रुप बी में माइनिंग, बिजली, गैस, पानी और पेशेवर सेवाएं कंस्ट्रक्शन, रियल इस्टेट आदि आती हैं. इस क्षेत्र से 50 फीसदी प्रदर्शन की उम्मीद है. ग्रुप सी के तहत मैन्युफैक्चरिंग है जिसके प्रदर्शन में भारी गिरावट दिख रही है. इसे मदद और समर्थन की जरूरत है. वह लिखते हैं कि तीन तरह के पैकेज हो सकते हैं- एक गरीब और वंचित तबके की रक्षा और उन्हें राहत देने के लिए, दूसरा मांग और खपत को बढ़ाने के लिए ताकि ज्यादा से ज्यादा वस्तु और सेवाओं का उपभोग हो. हॉस्पिटल और दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च की भी लेखक वकालत करते हैं जिससे बड़ा फर्क देखने को मिल सकता है.
ट्विंकल खन्ना मदर्स डे के मौके पर टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं कि मां अपनी संतानों के लिए अधिकतम करती हैं, फिर भी संतानों की शिकायत रहती है कि जब दूसरे की मम्मियां स्वादिष्ट व्यंजन बना रही थीं तब उसे केवल बटर टोस्ट से संतोष करना पड़ा. संतानों की यह भी शिकायत होती है कि माताएं ईर्ष्यालु डिटेक्टिव की तरह घूमा करती हैं कि वह होममेकर के रूप में बेटी की कोई न कोई गलतियां निकाल लें. लॉकडाउन के दिनों में भी वह सोफे में कमियां निकालकर उसे बनवाने के लिए बाजार जाने को कह देती हैं, जब बाजार में फल-सब्जी और राशन के अलावा सारी दुकानें बंद हों. संतानें माताओं में ये कमियां देखती हैं मगर इन सबके बीच जो लगाव होता है वह अद्भुत होता है।
लेखिका अपने मातृत्व के बारे में बताते हुई लिखती हैं कि वह अपने बच्चों में विश्वास जगाती हैं, उनकी मदद करती हैं और उनसे अच्छा बर्ताव करती हैं. उनकी कोशिश रहती है कि बच्चे सोचें कि ज्यादातर माएं अच्छी होती हैं. वास्तव में हर मां की यही सोच होती है. ट्विंकल बताती हैं कि मेरी मां आज भी बुलाती हैं कि आओ मेरे बगल में बैठो, तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त नहीं होता.
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