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संडे व्यू: मोदी सम्‍मान के हकदार, NRC से कुछ भी हासिल नहीं हुआ

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पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स 
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पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स 
(फोटो: iStock)

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देश अलग, अवाम एक

के. जॉर्ज वर्गीज ने द हिन्दू में 22 सितम्बर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की सभा और उससे जुड़ी सियासत पर कलम चलाई है. मोदी के लिए ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे पहले की तरह गूंजना तय है. इस तरह लेखक ने एक अवाम की दो देशों के लिए निष्ठा पर ध्यान दिलाया है.

लेखक ने बताया है कि चाहे मोदी हों या ट्रम्प, दोनों नेता अपने देश से घुसपैठियों को बाहर का रास्ता दिखाने के पक्षधर रहे हैं. भारत में एक राष्ट्र, एक भाषा, एक चुनाव, एक बाजार जैसी बातें हैं, तो अमेरिका में भी यह आवाज उठी है कि ‘जो जहां से आए हैं, चले जाएं’. ट्रम्प मोदी की लोकप्रियता का चुनावी इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं घरेलू राजनीति में वे अमेरिका में मौजूद विविधता का विरोध करते रहे हैं.

भारतीय अमेरिकी हिन्दुत्व समूह अमेरिका में अल्पसंख्यक अधिकारों की वकालत करते हैं, लेकिन मोदी की सियासत हिन्दुस्तान में बहुसंख्यकवाद की है. अमेरिका में मोदी के समर्थक चाहते हैं कि ट्रम्प के सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ होने की सोच का डेमोक्रेट विरोध करें. वहीं भारत में हिन्दुत्व की श्रेष्ठता को खुद मोदी बढ़ावा दे रहे हैं. लेखक ने अलग-अलग उदाहरणों से दिखाया है कि अमेरिका में जुट रही भीड़ एक से अधिक देशों के साथ निष्ठा दिखा रही है.

मोदी को सम्मान पर मत उठाओ सवाल

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि अमेरिकी शहर ह्यूस्टन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वागत में खलल डालने की भी तैयारी चल रही है. वह लिखती हैं कि अमेरिका में मोदी समर्थक हैं तो मोदी विरोधी भी. ये विरोधी तब से हैं, जब से 2002 वाले दंगों के बाद अमेरिका में वीजा नहीं दिया जा रहा था. ऐसे लोग बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की ओर से नरेंद्र मोदी को दिए जाने वाले ‘गोल्कीपर्ज ग्लोबल अवॉर्ड’ का विरोध कर रहे हैं. ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की सफलता के लिए मोदी इस अवॉर्ड के हकदार हैं.

तवलीन लिखती हैं कि पहले कार्यकाल में लालकिले से अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता की बात की थी और 2019 में गांधी जयंती पर खुले में शौच करने की प्रथा पर रोक की घोषणा हो सके, इसके लिए अपील की थी. आलोचक मोदी को इस सम्मान के लायक नहीं मान रहे हैं. उन पर गोरक्षकों द्वारा फैलाई जा रही हिंसा, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद आम लोगों की नजरबंदी का सवाल उठा रहे हैं. ऐसी कोशिश वामपंथी पत्रकार 2002 में हुए दंगों के बाद से भी करते रहे थे, जिन्होंने कभी राजीव गांधी या दूसरे नेताओं पर ऐसी उंगली नहीं उठायी.

लेखि‍का मानती हैं कि नोटबंदी और गोरक्षा के नाम पर हत्याएं मोदी सरकार की विफलताएं रही हैं, लेकिन उतने ही मुखरत तरीके से वह भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘स्वच्छ भारत’ के लिए सम्मान का हकदार भी बताती हैं.

भगत सिंह-सुभाष के साथ सावरकर की प्रतिमा पर बखेड़ा

रामचंद्र गुहा ने अमर उजाला में प्रकाशित अपने लेख में विनायक दामोदर सावरकर की प्रतिमा दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थापित किए जाने से जुड़े विवाद पर अपनी राय रखी है. भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमाओं के साथ सावरकर की प्रतिमा लगाए जाने के विरोध की राजनीति पर उन्होंने लिखा है कि आज के युवा उन महापुरुषों के बीच वैचारिक मतभेदों को समझने-सुनने तक को तैयार नहीं हैं.

तीनों महापुरुषों में एक समानता है कि उन्होंने किसी न किसी समय महात्मा गांधी का विरोध किया था, मगर इन विरोधों की प्रकृति अलग थी. भगत सिंह अपने क्रांतिकारी मार्क्सवादी सोच के कारण गांधी से असहमत थे, तो सुभाष चंद्र बोस ने असहमति के बावजूद महात्मा गांधी को सार्वजनिक रूप से ‘महात्मा’ स्वीकार किया था. वहीं सावरकर का गांधी विरोध इतना तीव्र था कि कस्तूरबा गांधी की जेल में मृत्यु होने के बाद उन्होंने अपने समर्थकों को मरणोपरांत उनके नाम पर इकट्ठा किए जा रहे चंदे में अंशदान से भी रोका था.

लेखक का मानना है कि सावरकर हिन्दुओं के लिए अलग राष्ट्र के समर्थक थे और यही बात एबीवीपी को उनसे जोड़ती है. वे यह भी लिखते हैं कि वामपंथियों को लेनिन और स्टालिन तो प्रिय रहे हैं, लेकिन भगत सिंह सिर्फ इस अजीबोगरीब तर्क के कारण कम प्रिय रहे, क्योंकि उनका संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध नहीं था. इसी तरह सुभाष चंद्र बोस से कांग्रेस ने दूरी रखी, जिसका भारतीय जनता पार्टी ने फायदा उठाया. वे लिखते हैं कि मूर्तियों की सियासत के बीच किसी को सही बात समझने की फुर्सत नहीं.

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बीड़ी-सिगरेट लॉबी के दबाव में ई-सिगरेट पर बैन?

एसए अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ई-सिगरेट पर प्रतिबंध को लेकर सवाल उठाए हैं. उन्होंने लिखा है कि बीड़ी-सिगरेट स्वास्थ्य के लिए जितना हानिकारक है, उसके मुकाबले ई-सिगरेट कहीं नहीं ठहरता.

एक अध्ययन के हवाले से लेखक बताते हैं कि ई-सिगरेट बीड़ी-सिगरेट के मुकाबले 95 फीसदी कम हानिकारक है. ई-सिगरेट पर प्रतिबंध के बाद टोबैको कम्पनियों के शेयर 10 फीसदी बढ़ जाने का जिक्र करते हुए लेखक सरकार के फैसले पर सिगरेट-बीड़ी लॉबी के दबाव और प्रभाव की ओर इशारा करते हैं.

लेखक ने बताया है कि आईएमएफ के सलाहकार एमिल सनले का अध्ययन बताता है कि तम्बाकू पर टैक्स का महज 5 फीसदी हिस्सा बीड़ी से आता है, जबकि इसकी खपत कुल तम्बाकू उत्पाद का 77 फीसदी है. लेखक का कहना है कि यह अजीब विडम्बना है कि स्वास्थ्य को नुकसान करने वाली बीड़ी से जुड़े लोगों को भी वही सब्सिडी मिलती है, जो अनाज पैदा करने वाले किसानों को. लेखक आशंका जताते हैं कि ई-सिगरेट पर प्रतिबंध के बाद लोग एक बार फिर जानलेवा बीड़ी-सिगरेट की ओर आकर्षित होंगे. ई-सिगरेट ने बीड़ी-सिगरेट से लोगों को दूर किया था. लेखक इस बात की जोरदार वकालत करते हैं कि बीड़ी-सिगरेट के उत्पादन में दी जा रही सब्सिडी को कम कर उसे आयुष्मान जैसी योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए.

कॉरपोरेट टैक्स कम होने से राजस्व घाटा बढ़ेगा

सुयश राय ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि अर्थशास्त्र का एक इंजन निजी उपभोग लगातार घट रहा है, तो दो अन्य इंजन निवेश और निर्यात भी तमाम कोशिशों के बावजूद कमजोर हो रहे हैं. इसका ही नतीजा है 5 फीसदी विकास दर.

सरकार ने अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए कॉरपोरेट टैक्स कम करने की घोषणा की है. यही एकमात्र क्षेत्र है, जहां से सरकार की आमदनी साल दर साल लगातार बढ़ रही थी. सरकार ने यह फैसला ऐसे समय में किया है, जब राजस्व वसूली उम्मीद से कम है और राजस्व घाटा के और भी अधिक हो जाने की आशंका है.

लेखक बताते हैं कि नए कॉरपोरेट टैक्स से निवेशकों के पैसे बचेंगे और इससे भारतीय फर्म विश्व स्तर पर स्पर्धी हो सकेगा. इससे उत्पाद के दाम कम होने, मांग और उपभोग बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है.

लेखक ने चार कारण बताए हैं, जिस पर सरकार के फैसले का असर दिखेगा. पहली बात ये देखने की होगी कि क्या इससे टैक्स नियमों में बड़ा बदलाव आने वाला है और कारोबार पर इसका सकारात्मक असर होगा? दूसरी बात ये है कि सरकार इसकी भरपाई कैसे करेगी- फिजूलखर्ची रोककर, संपत्ति बेचकर, सरकारी फर्म का निजीकरण करके या उधार लेकर?

तीसरी बात यह देखने की होगी कि वास्तव में कॉरपोरेट को इसका फायदा होता है या नहीं? चौथी और अहम बात ये है कि सरकार के ताजा फैसले का असर भारत में निवेश के माहौल पर कितना होगा? खासकर वित्तीय सेक्टर में सुधार, भूमि और श्रम सुधार, विदेशी पूंजी का प्रवाह, सार्वजनिक बैंकों की स्थिति में सुधार आदि कितना हो पाता है.

एनआरसी से कुछ भी नहीं हुआ हासिल

मेघनाद देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि एनआरसी मुद्दे पर बीजेपी ने जो इच्छा की, वह उसे मिल गया. जब मिल गया, तो वह उसे अब मन के अनुकूल नहीं लग रहा है. बीजेपी 1 करोड़ के करीब घुसपैठियों की उम्मीद लगाए बैठी थी, जबकि यह संख्या 19 लाख निकली. इसमें भी 5 फीसदी की त्रुटि हो सकती है. इस मसले को यह कहकर भी दबाया या भुलाया जा सकता है कि कोई घुसपैठिया नहीं है.

चाहे जिस रूप में भी इसका अंत हो, लेकिन कोई विजेता नहीं होगा. असम में रहने वाले आदिवासी अगर असमी नहीं जानते हैं, तो इस आधार पर वे वहां जन्मे नहीं माने जाएं, ये कैसे हो सकता है. राजीव गांधी ने इस तरह के समझौते को स्वीकार ही क्यों किया?

देसाई जानना चाहते हैं कि भारत के शेष हिस्से अगर लोग असम गये और उनके पास 1971 के पहले से असम का निवासी होने का प्रमाण पत्र न हो, तो वे घुसपैठिए हो जाएंगे? वे लिखते हैं कि 60 के दशक में मुम्बई में दक्षिण भारतीयों के खिलाफ शिवसेना अभियान चलाया करती थी. अगर महाराष्ट्र में एनआरसी लागू होता है तो क्या केवल मराठी लोगों को ही योग्य माना जाएगा?

विगत 70 साल में पर्याप्त नौकरियां नहीं पैदा हुईं और स्थानीय लोगों के लिए नौकरी की मांग की जाती रही है. एनआरसी से ऐसी मांग मजबूत होगी. 29 राज्य में 29 किस्म की नागरिकता बनेगी. सवाल ये है कि क्या हम बांग्लादेशी मुसलमानों की पहचान के लिए हिन्दुस्तान को ही तोड़ डालेंगे?

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