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पी चिदम्बरम ने जनसत्ता में लिखा है कि उन्हें ऐसा कोई बजट याद नहीं आता जब किसी वित्तमंत्री ने अपने पूरे होशो हवास में उसे पलट दिया हो. 1 फरवरी 2019 से 23 सितंबर 2019 के बीच बजट और उसके बाद बजट के फैसलों को बदल देने का सिलसिलेवार जिक्र लेखक ने किया है.
6 बड़े फैसलों का जिक्र है जिन्हें बदल दिया गया.
लेखक का दावा है कि अपने ही बजट को बदल देने के बाद भी वित्तमंत्री की मुश्किलें कम नहीं हुई है. बजट अनुमान से अलग शुद्ध राजस्व प्राप्ति 41.4 फीसदी, कुल प्राप्तियां 44.9 फीसदी, वित्तीय घाटा 102.4 फीसदी और राजस्व घाटा 112.5 फीसदी हो चुका है.
खर्च करने और उधार लेने का रास्ता बंद हो चुका है. फिर भी सरकार क्षेत्र के बैंकों को 70 हज़ार करोड़ देने, रियल एस्टेट को 25 हज़ार करोड़, एनबीएफसी और एचएफसी को 20 हजार करोड़, आईडीबीआई बैंक को 4 हजार करोड़ और पंजाब नेशनल बैंक को 16 हजार करोड़ रुपये देने का एलान किया गया है. डॉ अरविद सुब्रमण्यन और जोश फेलममैन के आकलन के हवाले से पी चिदम्बरम लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था आईसीयू में जाती दिख रही है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बार-बार गृहमंत्री बता रहे हैं कि नागरिकता कानून से असली भारतीय नागरिकों को कोई खतरा नहीं है, लेकिन वे अपने ही दिए उन भाषणों को भूल रहे हैं जिसमें उन्होंने घुसपैठियों को ‘दीमक’ कहा था, उनको ‘चुन-चुन कर’ बाहर फेंकने की बात कही थी. ऐसे में मुसलमानों तक संदेश यही पहुंचा है कि उनके खिलाफ साजिश है यह कानून. लेखिका का मानना है कि यह संदेश जाना स्वाभाविक है और मुसलमानों में खौफ का माहौल बनना भी.
तवलीन सिंह ने अशांति और अराजकता के माहौल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण की भी याद दिलायी है जिसमें उन्होंने कांग्रेस को चुनौती दी थी कि वह हर पाकिस्तानी को भारत की नागरिकता दिलाकर दिखाए. यह भाषण भी हिंसा की आग को भड़काने वाला है. नरेंद्र मोदी को गांधी भक्त होने की याद दिलाते हुए लेखिका ने जानना चाहा है कि अगर गांधी होते तो क्या वे विरोध प्रदर्शन नहीं कर रहे होते? लेखिका का सुझाव है कि अमन और शांति अगर प्रधानमंत्री बहाल करना चाहते हैं तो वे प्रदर्शनकारियों से बातचीत करे. ऐसा करके ही निवेश के लिए अनुकूल वातावरण दोबारा हासिल किया जा सकता है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि पाकिस्तानी तानाशाहों की मंशा भारत को फिर से बांटने की रही है. इसी बुरे सपने को पूरा करने का काम कर रहा है नया नागरिकता कानून. एनआरसी के साथ यह कानून आम मुसलमानों को जोड़ता है. लाखों, करोड़ों मुसलमान साबित नहीं कर पाएंगे कि वे हमेशा से भारत के नागरिक हैं. जिनके पास छत नहीं, वे सबूत कहां से लाएंगे?
शोभा डे टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं कि हमारे प्रधानमंत्री फैशनेबल हैं और सही तरीके से तैयार की गयी बंडी से दुनिया भर में एक उभार पैदा करते हैं. पिछले दिनों उनकी टिप्पणी को फैशन पॉलिसी का मास्टर क्लास कहा जा सकता है. उन्होंने कहा था कि वे कपड़ों से पहचान सकते हैं कि बसें जलाने वाले और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने वाले कौन हैं. उनके खुफिया तंत्र से लोग निश्चित रूप से प्रभावित हुए होंगे. ऐसे देश में विरोधी लोगों की सूची जारी करने की हम उनसे उम्मीद कर सकते हैं.
शोभा डे लिखती हैं कि अब लोग अपने घरों में आलमारी खंगाल रहे हैं कि कहीं उनके पास ऐसे कपड़े न रह जाएं जिसके कारण वे भी संदिग्ध हो जाएं. एक बंडल बिल्कुल सही नहीं लगा, तो दूसरा बंडल बॉर्डर लाइन पर दिखा. इसी तरह एक बंडल सवालों में घिरा दिखा. किसे पता कि कल को क्या बिल आ जाए कि क्या पहनना है. वह लिखती हैं कि कॉमन ड्रेस कोड यानी सीडीसी जल्द आ सकता है. अमित शाह को शायद हरा पसंद न हो. सफेद जल्दी गंदा हो जाता है. ब्लू जंचता नहीं है और लाल कम्युनिस्टों का रंग है. इसलिए भगवा ही सही रहेगा. इसलिए हर भारतीय को इसी रंग का यूनिफॉर्म पहनना होगा. जो ड्रेस कोड नहीं मानेंगे उनकी नागरिकता खत्म हो जाएगी और उन्हें पाकिस्तान भेजा जाएगा.
लेखिका लिखती हैं कि सीएए और एनआरसी के बाद लोगों के पास विरोध के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. वह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री उनकी भी पहचान ड्रेस से करें. उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी. वैसे भी वह जानलेवा ड्रेस पहना करती हैं! आखिर में वह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री बताएं कि तब वे क्या करेंगे जब देश की जनता एकजुटता दिखाने के लिए बुर्के और टोपी में सड़क पर उतर आएगी.
मुकुल केसवन ने ‘द टेलीग्राफ’ में लिखा है कि वे उसी जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाते रहे हैं जहां घुसकर दिल्ली पुलिस ने सीसीटीवी कैमरे तोड़े और लाइब्रेरी के भीतर भी छात्र-छात्राओं को नहीं बख्शा. वह लिखते हैं कि देश के पहले राष्ट्रवादी आंदोलन खिलाफ मूवमेंट ने इस यूनिवर्सिटी को जन्म दिया.. यह गांधी के दिल के करीब था. 1947 में बंटवारे के बाद खुद गांधीजी ने सितम्बर के महीने में इस यूनिवर्सिटी का दौरा किया था. उन्हें यहां पढ़ने-पढ़ाने वाले छात्रों और शिक्षकों की चिन्ता थ. सबसे अधिक समय तक देश के राष्ट्रपति रहे जाकिर हुसैन ने गांधीजी की योजना के अनुरूप इस यूनिवर्सिटी को सींचा.
लेखक बताते हैं कि घटना के अगले दिन वे यूनिवर्सिटी कैम्पस गए. व्यापक तोडफोड़ के निशान हर जगह महसूस किए जा सकते थे. छात्र-छात्राओं को बर्बरता से पीटा गया था. समस्तीपुर के एक युवक की आंख फोड़ दी गयी. पुलिस ने एक लाइब्रेरी को आजाद कराया था, मगर पता नहीं क्यों? सड़क पर हुई हिंसा में जामिया के छात्रों की भागीदारी सामने नहीं आयी. फिर भी पुलिस ने न सिर्फ शारीरिक हिंसा की, बल्कि गालियां और सांप्रदायिक फब्तियां कसीं. एक छात्र को बाहर खींचकर ले जाती पुलिस को जिस तरीके से छात्राओं ने अहिंसक प्रतिरोध करते हुए लेट कर बचाया, वह सत्याग्रह हमेशा याद किया जाएगा. मुस्लिम और गैर मुस्लिम प्रदर्शन के साथ अलग-अलग तरीके से निबटने का यह वाकया है. लेखक इस बात पर संतोष जताते हैं कि देश भर के छात्रों ने जामिया की घटना के विरोध में प्रदर्शन किए.
योगेश वाजपेयी ने ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा है कि उन्नाव गैंगरेप केस में विधायक कुलदीप सेंगर को सज़ा ज़रूर मिली, लेकिन यह बात भी साबित हुई है कि अलग-अलग स्तरों पर पीड़िता और उसके परिवार के साथ अन्याय हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरीके से देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी के लिए टिप्पणी की है वह गम्भीर है.
लेखक ने सिलसिलेवार ढंग से यह याद दिलाया है कि जून 2017 में बलात्कार के बाद दर्ज केस में बलात्कार का जिक्र तक नहीं होता. लड़की गायब हो जाती है. दो हफ्ते बाद जब उसकी बरामदगी होती है तब बलात्कार का केस दर्ज होता है.10 महीने बाद पीड़िता के पिता पर हमला होता है. उनकी मौत हो जाती है. पीड़िता मुख्यमंत्री के सामने आत्मदाह का प्रयास करती है. हाईकोर्ट के निर्देश पर सीबीआई को केस दिया जाता है. इस दौरान पीड़िता और उसके परिवार की जान लेने की कोशिश दुर्घटना कराकर की जाती है.आखिरकार सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेता है और पूरे केस की जांच लखनऊ के बजाए दिल्ली में दैनिक आधार पर होती है. कुलदीप सेंगर को मिली सज़ा से न्याय पर भरोसा पैदा होता है. मगर, यह घटना यह भी बताती है कि पीड़ित पक्ष कितना लाचार है और अपराधी कितना मजबूत.
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