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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की 7 जजों की संविधान पीठ ने 1998 के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें सांसद/विधायक को संसद या राज्य विधानसभा में वोट करने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने पर आपराधिक मुकदमे से छूट दी गई थी.
बार एंड बेंच के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने जेएमएम विधायक सीता सोरेन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि संसद सदस्य (सांसद) और विधानसभा सदस्य (विधायक) रिश्वत लेने का आरोप लगने पर संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत अभियोजन से किसी छूट का दावा नहीं कर सकते हैं.
बेंच की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ ने की. पीठ ने पिछले साल अक्टूबर में इसपर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (4 मार्च) को 1998 के पीवी नरसिम्हा राव के फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि संसद और विधानसभा के सदस्य विधायिका में वोट या भाषण के लिए संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के तहत छूट का दावा कर सकते हैं.
1998 के अपने फैसले में पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 105 की पृष्ठभूमि में सांसदों को संसद में कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है. इसी तरह की छूट राज्य विधानमंडल के सदस्यों को अनुच्छेद 194(2) द्वारा मिली हुई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, "सुप्रीम कोर्ट का एक महान निर्णय जो स्वच्छ राजनीति सुनिश्चित करेगा और सिस्टम में लोगों का विश्वास गहरा करेगा."
अदालत ने कहा, "नरसिम्हा राव के फैसले के बहुमत और अल्पमत के फैसले का विश्लेषण करते समय, हम असहमत हैं और इस फैसले को खारिज कर देते हैं कि सांसद छूट का दावा कर सकते हैं. नरसिम्हा राव के मामले में बहुमत का फैसला जो विधायकों को छूट देता है, गंभीर खतरा है और इसलिए इसे खारिज कर दिया गया है."
न्यायालय ने साफ किया कि संसद या विधानसभा में कही या की गई किसी भी बात के संबंध में अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत विधायकों को दी गई छूट विधायी सदन के सामूहिक कामकाज से जुड़ी है.
कोर्ट ने कहा कि ये प्रावधान एक ऐसे वातावरण को बनाए रखने के लिए हैं जो स्वतंत्र विचार-विमर्श की सुविधा प्रदान करता है. हालांकि, अगर किसी सदस्य को भाषण देने के लिए रिश्वत दी जाती है तो ऐसे माहौल खराब हो जाएगा. इसलिए, न्यायालय ने यह माना कि "संविधान के अनुच्छेद 105 (2) या 194 के तहत रिश्वतखोरी को छूट नहीं दी गई है".
हालांकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि केवल ऐसे सामूहिक कार्य ("संसद में विचारों का मुक्त आदान-प्रदान") ही अनुच्छेद 105 और 194 में प्रतिरक्षा प्रावधानों द्वारा संरक्षित हैं. दूसरी ओर, रिश्वतखोरी ऐसी छूट के अंतर्गत नहीं आती है.
अदालत ने कहा, "यह आवश्यक नहीं है कि रिश्वत जिसके लिए दी जाती है, वही कार्य किया जाता है, प्राप्त करने का कार्य ही अपराध को जन्म देता है."
सुनवाई के दौरान, केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने दलील दी थी कि सांसदों/विधायकों को दी गई छूट उन्हें रिश्वत लेने के लिए आपराधिक मुकदमे से नहीं बचा सकती.
सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री (सीएम) हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन द्वारा दायर याचिका से उठा. विशेष रूप से, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किए जाने के बाद हाल ही में हेमंत सोरेन ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था.
मामले की केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) जांच की मांग करते हुए 2012 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के पास एक शिकायत दर्ज की गई थी. सीता सोरेन पर आईपीसी के तहत आपराधिक साजिश और रिश्वतखोरी के अपराध और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत एक लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार का आरोप लगाया गया था.
2014 में, मामले को रद्द करने की मांग वाली उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए, झारखंड हाईकोर्ट ने कहा कि सोरेन ने उस व्यक्ति को वोट नहीं दिया था जिसने उन्हें रिश्वत की पेशकश की थी.
सोरेन द्वारा उनकी याचिका खारिज करने के हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने के बाद मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया.
2019 में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3-न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की सदस्य सीता सोरेन के सुप्रीम का दरवाजा खटखटाने के बाद इस मुद्दे को एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया था.
कोर्ट ने पिछले साल 2023 में 20 सितंबर को मामले को सात जजों की संविधान पीठ के पास यह तय करने के लिए भेज दिया था कि क्या पीवी नरसिम्हा राव मामले में फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है.
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