advertisement
मदुरै स्थित NGO एविडेंस की एक हालिया रिपोर्ट में 114 दलित पंचायत अध्यक्षों ने बताया है कि कैसे उन्हें गंभीर भेदभाव, धमकियों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. यह रिपोर्ट जो तमिलनाडु में दलितों और आदिवासियों के अधिकारों और कल्याण पर केंद्रित है. इसमें जिन 114 पंचायत अध्यक्षों का सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 79 महिलाएं थीं.
तमिलनाडु में 12,609 पंचायतें हैं, जिनमें से 2,250 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं.
द क्विंट से बात करते हुए, वाडुगपट्टी शहर की पंचायत अध्यक्ष और दलित नेता पी सुपुथायी ने कहा कि उन्होंने अध्यक्ष के रूप में उस समय पदभार संभाला था जब दलित बच्चों को ऊंची जातियों के लोग स्कूल में जूते पहनने की सजा के रूप में उनके सिर पर जूता ले जाने के लिए मजबूर करते थे.
सुप्पुथाई ने एक और घटना का जिक्र किया जो लगभग एक महीने पहले हुई थी. उनकी पंचायत के एक इलाके में बाईपास रोड के पास रहने वाले एक दबंग जाति के परिवार ने दावा किया था कि इस सड़क के पास उगने वाले फूलों के पौधे उनके अपने हैं. चूंकि इस क्षेत्र में दुर्घटना होने की संभावना ज्यादा होती थरर और ये पौधे दृश्यता/विजिबिलिटी में बाधा डालते थे, सुपुथायी ने साइट का दौरा किया और पौधों की छंटाई करने का आदेश दिया. सुपुथायी का आरोप है कि दबंग परिवार ने उन्हें गाली दी और उन्हें ड्यूटी करने से रोक दिया.
सुपुथायी ने आरोप लगाया कि उन्हें अपने आधिकारिक पद का सम्मान नहीं मिला. सुपुथायी के अनुसार उन्होंने उन लोगों पर और कार्रवाई नहीं की जिन्होंने उनका अपमान किया था, केवल इसलिए कि उनका "उद्देश्य दंड देना नहीं था बल्कि उन्हें यह सिखाना था कि जातिगत भेदभाव स्वीकार्य नहीं है".
जाति-विरोधी एक्टिविस्ट और नारीवादी लेखिका शालिन मारिया लॉरेंस ने द क्विंट को बताया, "एक पंचायत नेता एक गांव के प्रशासन, सामाजिक और विकासात्मक जरूरतों की पहचान, और समाधानों और योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार होता है. इसमें गरीबों और शोषितों से कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. यह सुनिश्चित करना पंचायत अध्यक्ष की जिम्मेदारी है कि सभी के साथ समान व्यवहार किया जाए और कल्याणकारी उपाय दिए जाएं. जब एक दलित अध्यक्ष बनता है, तो गांव में जाति-संचालित सामाजिक संरचना परेशान हो जाती है क्योंकि दलितों को नेतृत्व करने और निर्णय लेने का मौका मिलता है."
शालिन मारिया लॉरेंस ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि जाति-आधारित आरक्षण केवल अध्यक्ष पद के लिए लागू होता है और उपाध्यक्ष के पद पर लागू नहीं होता है. यानी यह उच्च जाति के प्रतिनिधियों को प्रत्येक आरक्षित पंचायत में निर्वाचित होने की अनुमति देता है.
इस बारे में बात करते हुए कि कैसे उत्पीड़ित समुदायों के लोगों के लिए उनकी शिक्षा और पेशेवर उपलब्धियों के बावजूद जाति आधारित भेदभाव कभी खत्म नहीं होता, लॉरेंस ने कहा कि बहुत कम दलित पंचायत नेता हैं. यहां तक कि जो लोग सामाजिक असमानताओं के बावजूद राजनीतिक सत्ता हासिल करते हैं, उन्हें फिर से अन्यायपूर्ण जातीय शक्ति द्वारा प्रताड़ित किया जाता है.
NGO एविडेंस के कार्यकारी निदेशक काथिर ने द क्विंट को बताया कि तमिलनाडु के 19 जिलों के दलित नेताओं के साथ बातचीत में जातिगत भेदभाव की जमीनी हकीकत के बारे में चौंकाने वाले सच सामने आए.
उनकी टीम द्वारा की गयी स्टडी से पता चला कि 114 पंचायत अध्यक्षों में से 12 दलित नेताओं को राष्ट्रीय महत्व के दिनों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति नहीं थी.
उनमें से 45 को मंदिर उत्सवों में भाग लेने के अधिकार से वंचित कर दिया गया.
2021 में, पझायूर राशन की दुकान के पास एक पानी की टंकी को मानव मल से दूषित किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि दलित कॉलोनी में ग्राम सभा आयोजित करने के लिए धमकियों का सामना करने वाली पझायूर पंचायत अध्यक्ष विद्या ने इसकी शिकायत की लेकिन शिकायत दर्ज नहीं की गई थी.
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक गांव में एक युवा स्वयंसेवक/वोलंटियर को काम पर रखा जाए और प्रोत्साहन के रूप में प्रति माह 5,000 रुपये का भुगतान किया जाए ताकि यह निगरानी की जा सके कि कार्यक्रम जनता के बीच सफल हैं और सरकार को रिपोर्ट करें. सरकारी अधिकारियों के बजाय, एक उच्चायोग को इन स्वयंसेवकों का प्रभारी होना चाहिए.
रिपोर्ट में प्रत्येक दलित पंचायत नेता को वेतन के रूप में 10,000 रुपये और पेंशन में 5,000 रुपये देने का सुझाव दिया गया, इसके अलावा राज्य सरकार को 10 सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली पंचायतों की पहचान करने और प्रत्येक को 25 लाख रुपये इनाम के रूप में देने की अनुशंसा की गयी है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined