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The Kerala Story: SC ने बोलने की आजादी को बरकरार रखा, लेकिन फैलती नफरत का क्या?

क्या बैन पर रोक लगाने का मतलब यह है कि 'द केरला स्टोरी' को सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी मिल गई है? पूरी तरह से नहीं!

यशस्विनी बसु
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>The Kerala Story and&nbsp;Supreme Court</p></div>
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The Kerala Story and Supreme Court

(फोटो- Altered By Quint Hindi)

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'द केरला स्टोरी'/The Kerala Story से जुड़ी विवादों की आंधी थमने का नाम नहीं ले रही है. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार, 18 मई को पश्चिम बंगाल में फिल्म के प्रदर्शन पर ममता बनर्जी सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध पर रोक लगाने का आदेश जारी कर दिया है.

यह आदेश देते समय ही भारत के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पडरीवाला की तीन-जजों वाली बेंच ने फिल्म के निर्माताओं को भी तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के खिलाफ आगाह किया.

लेकिन इस सबके बीच कौन सा सवाल दब गया?

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत गारंटीकृत एक मौलिक अधिकार है. 'द केरला स्टोरी' के मामले में इस मौलिक अधिकार से जुड़ें "उचित प्रतिबंधों" की श्रेणी को फिर से तराजू पर रखा गया था.

'द केरला स्टोरी' फिल्म केरल राज्य की महिलाओं के इस्लाम में कथित रूप से जबरन धर्मांतरण और बाद में आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठनों में शामिल होने पर आधारित है.

शुरुआत में लगभग 32,000 महिलाओं की दुखद कहानियों का पता लगाने के बारे में दिखावटी दावों के साथ फिल्म का प्रचार किया गया था. लेकिन फैक्ट-चेकर्स ने जल्द ही ऐसे दावों की अतिशयोक्ति और काल्पनिकता की ओर इशारा किया.

क्या SC द्वारा डिस्क्लेमर जोड़ने का आदेश पर्याप्त है? क्या बहुत देर हो चुकी है?

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने गुरुवार, 18 मई को को वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा की और किसी भी मनमाने प्रतिबंध के खिलाफ आगाह किया.

फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए तत्काल सभी रोकों को रद्द करते हुए, कोर्ट ने निर्माताओं को फिल्म में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के लिए भी फटकार लगाई और उन्हें एक डिस्क्लेमर जोड़ने का निर्देश दिया. फिल्म निर्माताओं को यह डिस्क्लेमर जोड़ना है कि इस दावे का कोई तथ्यात्मक समर्थन नहीं है कि 32,000 महिलाओं का धर्मांतरण किया गया और फिल्म के सभी सच्ची घटनाओं के काल्पनिक वर्जन हैं.

लेकिन विचार करने का सवाल यह है कि क्या इस तरह के सुरक्षा उपाय उस संभावित सांप्रदायिक नफरत को दूर करते हैं जो यह फिल्म "वास्तविक गवाहियों" की आड़ में काल्पनिक तथ्यों को चित्रित करके भड़का सकती है?
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फिल्म पर लगे प्रतिबंध का बचाव करते हुए, पश्चिम बंगाल राज्य ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि फिल्म को निजी प्रदर्शन से प्रतिबंधित नहीं किया गया है - यानी, टेलीविजन या ओटीटी प्लेटफार्मों पर इसे दिखाया जा सकता है. लेकिन इसे सार्वजनिक व्यवस्था के लिए कथित खतरे की वजह से इसे सार्वजनिक रूप से दिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.

राज्य ने यह भी तर्क दिया कि शुरुआती दर्शकों के रिव्यु देखने के बाद ही, इस तरह का निर्णय रिलीज के बाद लिया गया था.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार का निर्णय "अत्यधिक विस्तार/ओवरब्रेथ" का मामला था. यह सीधे तौर पर प्रोड्यूसर्स के भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के प्रयोग से जुड़ा हुआ है और सार्वजनिक वैमनस्य  के अनुमान के आधार पर इसे रोका नहीं जा सकता है.

लेकिन क्या फिल्म की रिलीज के लगभग एक महीने बाद 20 मई तक जोड़ा जाने वाला एक पोस्ट डेटेड डिस्क्लेमर, दर्शकों के बीच नफरत और अविश्वास की धारणा को दूर करेगा? क्या एक डिस्क्लेमर फिल्म के ट्रेलर द्वारा बनाई गई शुरुआती छाप को खत्म करने में प्रभावी होगा या यह कानूनी अनुपालन का एक खानापूर्ति मात्र होगा?

कोई यह भी तर्क दे सकता है कि अनिवार्य डिस्क्लेमर अभी भी संदेह के लिए जगह छोड़ता है. अनजान लोग सोच सकते हैं कि क्या 32,000 की संख्या केवल अटकलें थी या इसमें सच्चाई का कोई अंश है. अपने मौजूदा स्वरूप में डिस्क्लेमर शायद ही फिल्म के लंबे दावों को स्पष्ट रूप से खारिज करने का काम करता है.

इसके अलावा, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पश्चिम बंगाल सरकार का आदेश उचित प्रतिबंधों की सीमा को कैसे लांघता है? यह, दुर्भाग्य से, मामले के राजनीतिकरण और बैन पर रोक लगाने के SC के आदेश की गलत व्याख्या के लिए जगह छोड़ता है.

लेकिन यह क्लीन चिट नहीं...

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध पर स्थगन आदेश जारी किया, क्या इसका मतलब यह है कि केरल स्टोरी को शीर्ष अदालत से हरी झंडी मिल गई है? एकदम नहीं!

रिट याचिका अभी भी विचाराधीन है, इसलिए गुरुवार का आदेश केवल पश्चिम बंगाल में प्रतिबंध को उलट देता है. हालांकि यह एक स्वागत योग्य विकास है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखता है, लेकिन इसका इस्तेमाल केरल स्टोरी के खिलाफ लगाए गए हेरफेर और गलत बयानी के आरोपों को खारिज करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

फिल्म के खिलाफ याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि इसमें ऐसे दृश्य शामिल हैं जो स्पष्ट रूप से मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाते हैं और भारत में मुस्लिम नागरिकों के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं.

हालांकि, पीठ ने यह फैसला करने से परहेज किया कि फिल्म आपत्तिजनक है या नहीं. याचिकाकर्ताओं के इस दावे को ध्यान में रखते हुए कि फिल्म में ऐसी डिटेल्स दर्शायी गयी है जो न केवल असत्यापित हैं, बल्कि आग लगाने वाली और उत्तेजक भी हैं, पीठ ने फिल्म देखने और एक सिद्धांत तैयार करने का फैसला किया है कि स्क्रीन पर क्या दिखाया जा सकता है और क्या नहीं.

अब इस मामले की सुनवाई जुलाई में होगी.

हालांकि, द केरला स्टोरी को अभी के लिए स्क्रीन पर हिट करने का लाइसेंस मिला है. यह देखना होगा कि भारत के धार्मिक ताने-बाने पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा और क्या एक डिस्क्लेमर सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए पर्याप्त आधार है.

जब हम सुप्रीम कोर्ट के प्रोटोकॉल के सिद्धांत का इंतजार कर रहे हैं, एक ही उम्मीद है कि दो महीने में देरी बहुत ज्यादा न सिद्ध हो जाए.

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