फिल्म द केरल स्टोरी (The Kerala Story) का विवाद अभी थमा नहीं है. इसके तमाम दावों को तथ्यों की मदद से झुठलाने के बावजूद सत्ताधारी पक्ष लगातार केरल से लड़कियों के आईएसआईएस में भर्ती होने की दलील दे रहा है. उसके हिसाब से लड़कियां निरीह हैं, और उन्हें कोई भी झुठला-फुसलाकर कुछ भी करा सकता है. मुसलमान लड़के उनसे शादियां करके, उन्हें इस्लाम कबुलवाते हैं, और फिर एक आतंकी संगठन का मेंबर बनने पर मजबूर करते हैं. अंदाज मसीहाई है और इसके जरिए मुसलमान लड़कों को निशाना बनाया जा रहा है.
ये सब ‘लव जिहाद’ का मामला है यानी सारा का सारा मामला ‘लव जिहाद’ का है. ऐसा लव जो जिहाद के लिए किया जाता है. इससे हिंदू लड़कियों को बचाने के लिए अलग-अलग राज्य सरकारों ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाए हैं.
ऐसे कानून हरियाणा (2022), मध्य प्रदेश (2021), उत्तर प्रदेश (2021), हिमाचल प्रदेश (2019), उत्तराखंड (2018), झारखंड (2017), राजस्थान (2017) और कई दूसरे राज्यों में हैं.
मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में शादी के लिए धर्म परिवर्तन पर पाबंदी है. ऐसा ही गुजरात में भी है, जहां 2003 में यह कानून बनाया गया था. कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इसके लिए शर्तें तय की गई हैं. कर्नाटक के 2022 के धर्म परिवर्तन विरोधी अध्यादेश के तहत धर्म परिवर्तन पर कोई भी ऐतराज जता सकता है, और ऐसी स्थिति में शादी मुमकिन नहीं है. कोई मतलब, आपका पड़ोसी, आपका कलीग, या कोई भी जानकार शख्स ऐतराज जताकर शादी को रोक सकता है.
दिलचस्प बात यह है कि इनमें से किसी भी कानून में ‘लव जिहाद’ जैसे शब्द का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया है. 2020 में गृह मामलों के राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी खुद लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कह चुके हैं कि 'लव जिहाद' शब्द की परिभाषा किसी कानून में नहीं दी गई है. केंद्रीय एजेंसियों ने ऐसे कोई मामले दर्ज नहीं किए हैं, खासकर केरल में. इसी तरह राष्ट्रीय महिला आयोग भी अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अनिकेत आगा की आईटीआई पर कह चुका है कि आयोग के पास लव जिहाद से जुड़ी शिकायतों की श्रेणी के तहत कोई डेटा नहीं है.
यानी इस शब्द का इस्तेमाल सिर्फ सार्वजनिक सभाओं और चुनावी प्रचार के दौरान ही किया जाता है, और सिर्फ फीयर साइकोसिस फैलाने के लिए. लड़कियों को, उनके परिवारों को डराने के लिए कि मुसलमान लड़के हिंदू लड़कियों पर डोरे डालने के लिए मोटरसाइकिल लिए चक्कर काटे रहते हैं और हिंदू लड़कियां उनकी मर्दानगी पर रीझकर उनके झांसे में आ जाती हैं. पर लड़कियों की अपनी एजेंसी का क्या? ऐसी दहशतगर्द साजिश की कहानी सुनाकर, रवायती तौर पर यह साबित किया जाता है कि लड़की के विवेक पर वैसे ही भरोसा नहीं किया जा सकता. उसके सोचने समझने की ताकत पर यकीन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह कमजोर दिमाग की होती है. इसलिए उसके दिमाग की धुलाई करके उसे मुसलमान बनाकर इस्लामिक स्टेट के लिए सीरिया भेजा जा सकता है.
बेशक, केरला स्टोरी नाम की फिल्म इसी पैरानोया को फैलाती है. इसमें 32,000 लड़कियों के ऐसा हश्र होने का दावा किया गया है और यह आंकड़ा गिरते-गिरते 3 पर आ गया है. लेकिन ऐसा रिस्क तो किसी भी शादी में संभव है.
श्रद्धा वाल्कर की हत्या, और तुनीषा शर्मा की सुसाइड से मौत के समय भी यही तर्क दिया गया था कि प्रेमी मुसलमान है, और इसीलिए लड़की की जिंदगी रिस्क पर है. यानी मुसलमान लड़के से रिश्ता, एक अनसेफ स्पेस की तरफ लड़की को धकेलता है. लेकिन प्रेम करने और रिस्क लेने का हक तो हरेक लड़की को होना चाहिए. अगर केरल की 3 लड़कियों का तर्क दिया भी जाता है, तो! क्योंकि जोखिम का मतलब ये नहीं कि आप किसी व्यक्ति को खुद फैसले लेने के हक से महरूम कर दिया जाए. राइट टू टेक रिस्क पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस की प्रोफेसर और लेखक शिल्पा फड़के ने अपनी मशहूर किताब ‘वाय लॉयटर- विमेन एंड रिस्क ऑन मुंबई स्ट्रीट्स’ में बहुत कुछ लिखा है.
किताब में कहा गया है कि “रिस्क टेकिंग को अक्सर मर्दों की खासियत माना जाता है. लड़कियां अगर रिस्क लेना चाहें तो उन्हें चरित्रहीन माना जाता है... लेकिन उन्हें भी रिस्क लेने का पूरा अधिकार है. उन्हें सर्विलांस या संरक्षण की जरूरत नहीं है, बस उन्हें रिस्क लेने का अधिकार चाहिए.“
तो शिल्पा के लिए राइट टू रिस्क का मतलब, पब्लिक में महिलाओं के अधिकारों का दावा है और यहां राइट टू रिस्क, अपनी जिंदगी का फैसला खुद लेने का अधिकार है. अब इससे किसी को लड़कियों के गायब होने का डर सताए या उन्हें छोड़ दिए जाने का, तो क्या? किसी दूसरे मजहब के लड़के से शादी करने का सबसे अच्छा जरिया धर्मांतरण है, और यह सबसे उपयोगितावादी भी है. ऐसा करने पर किसी और को क्यों परेशानी होनी चाहिए और राज्य को इसकी चिंता क्यों होनी चाहिए? लड़कियां सबसे ज्यादा कहां से गायब हुई हैं?
धर्मांतरण को लेकर सबसे ज्यादा डर लड़कियों के गायब होने, शादी करके छोड़ दिये जाने का बताया जाता है. केरल में ऐसा हुआ है, यह दावा किया जा रहा है. हालांकि इसे साबित करने वाले आंकड़े नहीं हैं. जो आंकड़े हैं, वे तो इसके लिए कई दूसरे राज्यों की पोल पट्टी खोलते हैं. ऐसा पहला राज्य है, गुजरात.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के डेटा के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में गुजरात से करीब 40,000 लड़कियां गायब हुई हैं. 2016 में 7,105, 2017 में 7,712, 2018 में 9,246, 2019 में 9,268 और 2020 में 8,290 औरतों के गायब होने की शिकायत दर्ज हुई है. इन्हें जोड़ने पर यह संख्या 41,621 होती है. 2021 में राज्य सरकार ने विधानसभा में एक बयान में यह आंकड़ा पेश किया था.
इसी तरह महाराष्ट्र में उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस विधान परिषद में कह चुके हैं कि 2020-21 में दो वर्षों के दौरान राज्य में 60,000 से ज्यादा लड़कियां लापता हुईं, जिनमें से 40,000 को ढूंढ लिया गया. लेकिन 20,000 से ज्यादा अब भी गायब ही हैं. केरल की एक स्टोरी यह भी है कि वहां गायब हुई 6426 लड़कियों को साल 2020 में रिकवर किया गया और वहां का रिकवरी रेट 93.5% है. इस समय लापता लड़कियों की संख्या वहां 445 है, और यह पिछले कई सालों का अन रिकवर्ड/अनट्रेस्ड मिसिंग पर्सन्स (यहां महिलाओं) का आंकड़ा है, जिसमें पिछले वर्षों के अनट्रेस्ड मिसिंग पर्सन्स शामिल हैं.
ये एनसीआरबी के आंकड़े हैं तो, लड़कियां देश की नागरिक हैं. उन्हें सोचने समझने, रिस्क लेने का अधिकार है. अपने बारे में फैसला करने का भी. उनका मजहबी रुझान कोई भी हो सकता है. न तो माता-पिता, न ही परिवार, नातेदारों, न उनकी जाति खाप, न सरकारी अफसरान और मुंसिफ, न उनके धर्म को उनकी तरफ से बोलने का हक है. वे इस देश की संपत्ति नहीं, न ही किसी राजनैतिक दल की. वे लोग उनकी मर्जी के खिलाफ उनके अभिभावक नहीं बन सकते.
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