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18वीं शताब्दी के मैसूर के शासक टीपू सुल्तान इन दिनों सुर्खियों में बने हुए हैं. कर्नाटक से बीजेपी विधायक अपाचू रंजन ने स्कूल टेक्स्ट बुक से टीपू सुल्तान के चैप्टर को हटाने की मांग की है. अब टेक्स्ट बुक सोसायटी और इतिहासकारों की मीटिंग में ये फैसला होना है कि टीपू सुल्तान के चैप्टर को रखा जाए या नहीं.
इस विवाद के बीच हम टीपू सुल्तान से जुड़ी ये स्टोरी अपने पाठकों के लिए फिर से पब्लिश कर रहे हैं.
(ये स्टोरी पहली बार 30.10.17 को पब्लिश की गई थी.)
ऐंग्लो-मैसूर लड़ाई में हथियार के रूप में जिन मेटल रॉकेट का इस्तेमाल किया गया था, वो मैसूर रॉकेट टीपू की सेना ने विकसित किये थे. इन रॉकेटों की वजह से भारी नुकसान झेलने के बाद ब्रिटिश लोगों ने तेजी से इस तकनीक को सीखकर अपने हथियारों में रॉकेट शामिल किए.
इन रॉकेटों ने ना सिर्फ एंग्लो- मैसूर युद्ध में बड़ी भूमिका निभाई, बल्कि वाटरलू की लड़ाई में नेपोलियन की हार की भी वजह बने. टीपू के डिजाइन पर आधारित ब्रिटिश रॉकेटों का जिक्र अमेरिका के राष्ट्रगान तक में मिलता है.
बंदूकों के आविष्कार के बाद, चीनियों और यूरोपीय लोगों ने बांस की नलियों के इस्तेमाल से रॉकेट के परीक्षण किए थे. चूंकि लंबी दूरी के हथियारों के लिए जरूरी मारक क्षमता और स्थिरता इनमें नहीं थी, बहुत जल्दी इनकी जगह तोप ने ले ली. लेकिन, अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में टीपू ने बांस की बजाय लोहे की नलियों का इस्तेमाल शुरू किया.
बांस कमजोर होने की वजह से उसमें बारूद काफी कम भरा जा सकता था. लोहे की नलियों के इस्तेमाल से मैसूर की सेना उनमें ज्यादा बारूद भरकर उन्हें ज्यादा रफ्तार से अधिक दूर तक फेंक सकती थी. टीपू के रॉकेट अच्छी गुणवत्ता के लोहे के इस्तेमाल की वजह से 2 किलोमीटर तक मार कर सकते थे. टीपू के रॉकेटों में तलवार भी लगे होते थे, जिससे ये दोहरी मार कर पाते थे. इन रॉकेटों की डिजाइन वैज्ञानिक तरीके से की गई थी. धातु की नलियां, जिनमें बारूद भरा होता था, एक छोर से बंद होती थीं, और दूसरे छोर पर एक नोजल होता था जो रॉकेट से निकलने वाली गैस का उपयोग कर इसे दूर जाने की ताकत देता था.
ये सैनिक हाथों में थामे जाने वाले रॉकेट दागते थे, और गाड़ियों का इस्तेमाल करके एक साथ कई रॉकेट भी दागा करते थे. आधुनिक सैन्य इकाइयों की तरह, ये सैनिक रॉकेट के आकार के हिसाब से उसकी मारक क्षमता और हवाई मार्ग की गणना करने के लिए प्रशिक्षित थे. अपने इलाके में कई जगहों पर टीपू ने इन रॉकेटों को निखारने के लिये वर्कशॉप लगाए थे. स्थानीय शिल्पियों की इन रॉकेटों को विकसित करने में अहम भूमिका थी.
टीपू सुल्तान की सेनाओं ने चार एंग्लो-मैसूर लड़ाइयों में रॉकेटों का इस्तेमाल असरदार तरीके से किया. धातु के रॉकेटों के असरदार इस्तेमाल का पहला जिक्र 1780 में पहले एंग्लो- मैसूर युद्ध के दौरान पॉलिलुर की लड़ाई में मिलता है. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आगे बढ़ रही सेनाओं को मैसूर की सेना ने कई राउंड के रॉकेट हमले से पीछे हटा दिया था. इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना के कई अफसर कैद भी हुए थे.
तीसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध के दस्तावेजों में भी टीपू सुल्तान के रॉकेटों के इस्तेमाल का जिक्र मिलता है. युद्ध के दौरान, 6 फरवरी 1792 को श्रीरंगपट्टनम के पास, कावेरी नदी की तरफ बढ़ रहे ब्रिटिश अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल नॉक्स और उसके सैनिकों को भारी रॉकेट हमला झेलना पड़ा था.
सुलतानपेट टोपे की लड़ाई में, चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध के दौरान, आर्थर वेलेजली को अप्रैल 1799 में किले पर रात में हमले का आदेश दिया गया. आर्थर वेलेजली बाद में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन और वॉटरलू की लड़ाई का हीरो बना. अंधेरे का फायदा उठाकर आगे बढ़ रहे सैनिकों को भारी रॉकेट हमले का सामना करना पड़ा. यूनिट के सैनिक और वेलेजली, जिन्होंने कभी रॉकेट का सामना नहीं किया था, चौंक गए और अस्त-व्यस्त हो गए. खासतौर पर वेलेजली अपनी सेना के बेकाबू हो जाने की वजह से अपमानित महसूस कर रहा था.
टीपू के शस्त्रागार से जब्त किए गए रॉकेटों की मदद से कॉन्ग्रीव रॉकेट विकसित हुए, जिनका इस्तेमाल एंग्लो-अमेरिकी युद्धों में हुआ था. एरोस्पेस वैज्ञानिक नरसिम्हा के मुताबिक, रॉकेट टेक्नोलॉजी में टीपू के योगदान पर कोई सवाल नहीं है. वो भारत के वास्तविक रॉकेट मैन बने रहेंगे.
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