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लोकसभा में सरकार ने एक नया बिल पेश किया है, नाम है UAPA संशोधन बिल 2019. इस बिल के पास होते ही सिर्फ शक होने पर ही किसी आम व्यक्ति को आतंकी घोषित किया जा सकता है. इसके लिए उस व्यक्ति का किसी आतंकी संगठन से संबंध दिखाना भी जरूरी नहीं होगा. सरकार की आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति पर ये बिल एकदम फिट बैठता है. लेकिन परंपरा रही है- '100 गुनहगार भले छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए.'
पहले भी कई मामले सामने आए हैं, जब किसी धमाके के आरोप में संदिग्धों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. जबकि कोर्ट में उसे दोषी साबित करने का पुलिस के पास कोई ठोस सबूत नहीं था. बाद में उसे कोर्ट की ओर से रिहा कर दिया गया. कुछ ऐसे मामले भी देखने को मिले हैं, जब किसी बेकसूर ने महीनों या सालों जेल काटी, बाद में कुछ साबित नहीं होने पर उसे छोड़ दिया गया. यहां हम ऐसे कुछ मामलों के बारे में आपको याद दिला रहे हैं....
2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले के एक बेगुनाह अब्दुल वाहिद शेख ने 10 सालों तक जेल की सजा काटी. इस केस में पुलिस की ओर से उनके खिलाफ सबूत न पेश करने पर 2015 में मकोका कोर्ट ने उन्हें क्लीन चिट दी. गिरफ्तारी के समय वो खरोली मुंबई के एक सरकारी स्कूल में टीचर थे और उर्दू में पीएचडी कर रहे थे. 10 साल की कैद और पीड़ा के बाद उन्हें रिहाई तो मिल गई लेकिन शायद वो उससे कभी उबर नहीं पाएंगे. मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले में सिर्फ अब्दुल ही नहीं, बल्कि 13 बेगुनाह लोगों को गिरफ्तार किया गया.
अब्दुल शेख ने अपने बयान में कहा था, "2006 में जब मुंबई एटीएस ने हमें गिरफ्तार किया तो हमें सदमा लगा था कि इतने बड़े आतंकी हमले में 13 मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार कर लिया, जो बेगुनाह हैं. पुलिस पूरी तरह से हमें आरोपी साबित करने में लग गई थी."
इसके बाद अब्दुल ने एक किताब लिखी. इसमें उन्होंने अपने साथ बीती सारी बातें लिखी. ये युवाओं के लिए एक तरह की गाइडबुक की तरह है जो पुलिस के चंगुल में आ जाते हैं. इस पूरे केस का वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें.
ऐसे ही मालेगांव मस्जिद धमाके में साल 2006 में एटीएस ने पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र के रईस अहमद (35) को गिरफ्तार कर लिया था. इनके साथ ही शहर में अन्य आठ लोगों को साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. फिर पांच साल बाद 2011 में मकोका अदालत ने उन्हें रिहा करने का आदेश दे दिया. लेकिन जब वो रिहा हुए तो उन्होंने अपना काफी कुछ खो दिया था. वोटिंग लिस्ट से नाम कट गया था, परिवार में किसी के पास कोई रोजगार नहीं था और सभी लोग कई मानसिक यातनाओं से गुजर रहे थे.
अब्दुल मजीद भट, जो पहले श्रीनगर में आतंकियों के आत्मसमर्पण कराने में भारतीय सेना की मदद करते थे. एक बार उनकी आर्मी इंटेलिजेंस में तैनात मेजर से कुछ बहस हो गई. उसके बाद उनकी जिंदगी ही बदल गई. दिल्ली पुलिस की टीम ने मजीद को श्रीनगर से गिरफ्तार कर लिया और कागजों में ये गिरफ्तारी दिल्ली से दिखाई. मजीद ने जब आरटीआइ के जरिए आर्मी की गाडियों की लॉग बुक समेत कुछ जानकारी मंगाई, तो सच्चाई सबके सामने आ गई. इस आधार पर कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया.
यूपी में रामपुर के रहने वाले जावेद अहमद ने 11 साल जेल में बिताए. उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने एक पाकिस्तान लड़की से प्यार किया था. दोनों एक दूसरे को लव लेटर लिखते थे. दोनों ने कुछ बातों के लिए खास कोड बना रखा था. इन्हीं कोड का यूपी एसटीएफ ने कुछ और मतलब निकालकर आतंकी घोषित कर दिया. 11 साल तक जावेद जेल में रहे. इसके बाद कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया गया.
यही नहीं, ऐसे सैकड़ों मामले हैं जब बेगुनाहों को सिर्फ शक या निजी दुश्मनी के चलते गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन उन बेगुनाहों की जेल की सलाखों के पीछे गुजरी जिंदगी को कोई लौटा सकता है क्या?
बेगुनाह युवक महीनों/सालों तक जेल में रहने के बाद जब घर लौटते हैं तब तक उनकी दुनिया उजड़ चुकी होती है. समाज में उन्हें इज्जत नहीं मिलती. हर कोई उन्हें शक की निगाह से देखता है. परिवार के सदस्यों को बदनामी की वजह से कहीं कोई काम नहीं मिलता. मानसिक बीमारियों का अलग सामना करना पड़ता है.
UAPA संशोधन बिल लोकसभा से पास तो हो जाएगा लेकिन इसका दुरुपयोग नहीं होगा इसकी क्या गारंटी है. UAPA के मामलों में अग्रिम जमानत नहीं मिलती है. पहली नजर में आरोप सही लगने पर जमानत भी नहीं मिलती. बिना चार्जशीट के आरोपी को लंबे समय तक कस्टडी में रखा जा सकता है.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, UAPA के 67% मामलों में आरोप सिद्ध नहीं हो पाया और आरोपी को रिहा कर दिया गया. इस एक्ट के तहत नक्सली संगठनों के सदस्य होने के आरोप में लोगों की गिरफ्तारी की काफी आलोचना हो चुकी है.
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