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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, “हम एक विषय पर पुराने तौर-तरीके अपनाएंगे: शून्य बजट खेती.”
अप्रैल महीने में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने Business Standard में दो भाग में जीरो बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) पर आर्टिकल लिखा था. उनके मुताबिक, ये पर्यावरण और किसानों की हालत सुधारने के लिए “अनोखा और सिद्ध समाधान” है.
ZBNF की अवधारणा पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त सुभाष पालेकर की है. हरित क्रांति विरोधी पालेकर हरित क्रांति को पश्चिमी ताकतों के हाथों किसानों की गुलामी बताते हैं.
उनका आरोप है कि हरित क्रांति ने कैंसर, एड्स, डायबिटीज और दिल का दौरा जैसी गंभीर बीमारियों को बढ़ावा दिया.”
पालेकर मिट्टी के उपयोगी जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने की विधि को जीवामृत कहते हैं. मैंने जून महीने में उनके बेटे अमित से मुलाकात की, जिसने बताया कि जीवामृत बनाने के लिए 10 किलो देसी गाय का गोबर, 5-10 लीटर गो मूत्र, 1 किलो गुड़, 1 किलो बेसन और थोड़ी सी मिट्टी की जरूरत पड़ती है. इसे करीब 200 लीटर पानी में 48 घंटे तक फर्मेंट किया जाता है, फिर उसे खेत में छिड़का जाता है.
पालेकर का दावा है कि सिर्फ देसी गाय का गोबर उपयोगी है, “जर्सी या होल्सटीन” गाय का नहीं. 30 एकड़ जमीन के लिए सिर्फ एक गाय का गोबर चाहिए. “काले रंग की कपिला गाय का गोबर और मूत्र सबसे फायदेमंद है.” गोबर ताजा होना चाहिए, और मूत्र जितना पुराना हो, उतना बेहतर.
नीलेश धनकर का दावा है कि वो 19 सालों से ZBNF का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके मुताबिक, एक ग्राम गाय के गोबर में 300 करोड़ जीवाणु होते हैं. फर्मेंटेशन के बाद उनकी संख्या में 300 गुना बढ़ोत्तरी होती है.
धनकर, अकोला में अपनी 21 एकड़ जमीन पर अनार, आंवला और सहजन की खेती करते हैं. उनका दावा है कि सिर्फ एक गाय के गोबर से उनकी बंजर जमीन की मिट्टी भुरभुरी हो गई.
अमरावती जिले के बेल्लुरा गांव में 60 साल के गजानन शमराव कलमेघ, पालेकर के खेतों के केयरटेकर हैं.
लेकिन कमलेघ को जीवामृत बनाने की विधि नहीं मालूम. जीवामृत मिश्रण बनाने की टंकी के बारे में पूछने पर उन्होंने दो टंकियां दिखाई, जो सालों पहले खोदे गए एक गड्ढों में दबी हुईं थीं. कमलेघ ने बताया कि खेतों में दो सालों से जीवामृत नहीं डाला गया है.
गांव का लगभग कोई किसान ZBNF का प्रयोग नहीं करता. 55 साल के दन्यान्देड़ कदम के पास अपनी जमीन नहीं और वो लीज पर खेती करते हैं. उन्होंने कहा कि ZBNF का असर तीन साल बाद देखने को मिलता है, जबकि हर साल लीज बदल जाती है.
पालेकर ने फोन पर बताया कि अब उन्हें अपने खेतों में जीवामृत डालने की जरूरत नहीं, क्योंकि मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या अधिकतम हो गई है.
पालेकर के हरित क्रान्ति और रासायनिक खादों का उपयोग सिखाने वाले कृषि विश्वविद्यालयों के विरोध से कृषि वैज्ञानिक निराश हैं.
लेकिन हैदराबाद स्थित अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान, ICRISAT के डायरेक्टर जनरल पीटर कारबेरी ने नई दिल्ली में 5 जून को NAAS (National Academy of Agricultural Sciences) की स्थापना दिवस पर पालेकर के सिद्धांत की जमकर आलोचना की थी.
कारबेरी ने कहा कि पालेकर प्रति एकड़ खेत में हर महीने गाय का 10 किलो गोबर डालने को कहते हैं. इससे प्रति हेक्टेयर (ढाई एकड़) जमीन पर हर पौधे को सालाना 10 किलोग्राम नाइट्रोजन मिलेगा, जो “बेहद कम” है.
कारबेरी ने कहा कि, “किसी भी सिफारिश का आधार पुख्ता सुबूत होने चाहिए.”
पिछले साल नवंबर में कोयंबटूर स्थित तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में भारतीय कार्बनिक खेती vs वैज्ञानिक खेती विषय पर सम्मेलन में पालेकर से अपना सुभाष पालेकर की प्राकृतिक खेती (SPNF) सिद्धांत को बदलने के लिए कहा गया.
सम्मेलन में ‘शून्य बजट’ की अवधारणा पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि मजदूरी, बेसन, गुड़ और अपनी गाय न होने पर गाय के गोबर पर भी खर्च करना पड़ता है. जवाब में पालेकर ने कहा कि गेहूं की कतारों के बीच मूंग दाल जैसी कम अवधि की फसल, मुख्य फसल की लागत पूरा करती है.
एकाधिक फसलों की खेती कोई नई बात नहीं. केरल के कासारागोड में नारियल अनुसंधान संस्थान ने साबित किया है कि नारियल के साथ पान, काली मिर्च, केला, अनानास, हल्दी और कोकोआ से मुख्य फसल की तुलना में ज्यादा आमदनी होती है. मिट्टी में कार्बन की मात्रा बढ़ाने के लिए शहतूत का उपयोग भी कोई नई बात नहीं है.
मोदीपुरम स्थित Indian Institute of Farming Systems Research (IIFSR) ने भी ZBNF के दावों की तस्दीक नहीं की. जुलाई 2018 में वैज्ञानिक प्रकाश चन्द्र घासल ने कहा कि उनकी टीम ने ZBNF के मुताबिक खेती करने वाले गुरुकुल कुरुक्षेत्र के 180 एकड़ खेत से मिट्टी के नमूने इकट्ठा किए. इनमें 0.5 फीसदी से भी कम कार्बन था. इस खेत में 15 साल तक कार्बनिक खेती के बाद दो साल से ZBNF के मुताबिक खेती हो रही थी.
गुरुकुल के संरक्षक हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत हैं.
आन्ध्र प्रदेश के Rythu Sadhikara Samstha (RySS) के सह उपाध्यक्ष विजय कुमार थल्लम भी ZBNF समर्थक हैं. इस राज्य में 2015 में आधिकारिक रूप से ZBNF को अपनाया गया था. उस वक्त वो कृषि विभाग के विशेष सचिव थे. थल्लम ने कहा कि इस दिशा में पिछले तीन सालों में 334 करोड़ रुपये खर्च किये हैं. अब तक 5 लाख किसानों ने इसे अपनाया है और इस साल ये संख्या दोगुनी होने की उम्मीद है.
पानी की खपत में कमी आई, स्वास्थ्य बेहतर हुआ और जैवविविधता में बढ़ोत्तरी हुई.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) कुरुक्षेत्र के गुरुकुल, पंतनगर विश्वविद्यालय, लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और मोदीपुरम् के IIFSR का अध्ययन कर रही है. बासमती-गेहूं की फसलों पर ZBNF के असर का अध्ययन किया जा रहा है.
अप्रैल में नीति आयोग ने IIFSR के तहत SPNF (जैसा अब कहा जा रहा है) में अनुभव पर आधारित खेती के सत्यापन के लिए एक समिति का गठन किया था. देवव्रत के कहने पर मई में समिति का पुनर्गठन किया गया. छह सदस्यों की नई समिति में SPNF के चार पैरोकार हैं. पुरानी समिति में कोई पैरवीकार नहीं था.
नीति आयोग के सदस्य रमेश चन्द ने कहा, “हरित क्रांति कामयाबी रही, इसलिए हम हरित क्रांति की आलोचना करते हैं. देश की आबादी 1971 में 66 करोड़ से बढ़कर अब 130 करोड़ हो गई है, फिर भी अनाज उत्पादन एक किलो प्रति व्यक्ति से बढ़कर 1.74 किलो हुआ है. “निजी तौर पर मेरा मानना है कि रासायन-मुक्त कृषि हमारे अनुकूल नहीं है. बेशक हम खेती में कम रसायन का उपयोग कर सकते हैं.”
(विवियन फर्नांडिस एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और Smart Indian Agriculture वेबसाइट का संचालन करते हैं. उन्हें @VVNFernandes पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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