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पिछले दिनों दो खबरें कुछ मिलती जुलती सी आईं. दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi Highcourt) ने एक नाबालिग रेप विक्टिम (Minor rape victim) को 25 हफ्ते और 6 दिन की प्रेग्नेंसी (Pregnancy) को टर्मिनेट करने, यानी अबॉर्शन (Abortion) को मंजूरी दे दी है. रेप विक्टिम (Rape Victim) 17 साल की है. अदालत ने कहा है कि “प्रेग्नेंसी उसके जीवन पर ऐसे दाग लगाएगी, जिसे मिटने में बहुत लंबा समय लगेगा.” दूसरी तरफ दिल्ली हाई कोर्ट ने ही पिछले हफ्ते 25 साल की एक गैर शादीशुदा लड़की को 23 हफ्ते की प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट करने की इजाजत नहीं दी, और यह पूछा कि वह “बच्चे की हत्या क्यों करना चाहती है?”
ये दोनों मामले अबॉर्शन के हैं लेकिन हालात अलग अलग हैं. एक में लड़की नाबालिग है. एक में बालिग और गैर शादीशुदा, और अपने पार्टनर से “धोखा खाई हुई”. दिक्कत सारी, नैतिकता की दुहाई है.
यहां मुद्दा अबॉर्शन और नैतिकता पर आकर रुक जाता है. अदालती आदेश के अलावा भी इसे आसानी से समझा जा सकता है कि गैर शादीशुदा लड़कियों के लिए अबॉर्शन कितनी बड़ी जद्दोजेहद है. नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU)) की 2021 की एक स्टडी में इस पहलू को बखूबी शामिल किया गया है. इसमें कहा गया है कि मेडिकल टेक्स्टबुक्स महिलाओं के सेक्सुअल और रीप्रोडक्टिव बिहेवियर को लेकर पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित हैं, और गर्भपात को कलंक ही समझती हैं.
इसमें 2014 की एक मेडिकल टेक्स्टबुक का हवाला भी दिया गया है जो कहती है कि गैर शादीशुदा लड़कियां अगर ‘अवैध’ इंटरकोर्स में शामिल पाई जाती हैं या जब परिवार का सम्मान दांव पर होता है तो परिवार वाले उनका गर्भपात कराना मुनासिब समझते हैं.
लेकिन फिर भी उनके लिए अबॉर्शन आसान नहीं होता. रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी वजह यह है कि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स शादी से इतर सेक्स को ‘अवैध’ मानते हैं.
क्योंकि आप एक नाजायज चीज को जायज जगह पर मैनेज नहीं कर सकते. स्टडी में मुंबई के एक अस्पताल का हवाला भी दिया गया है और बताया गया है कि वहां की इमरेंजसी पुलिस रिपोर्ट्स में गैर शादीशुदा लड़कियों के अबॉर्शन के मामलों को ‘संदिग्ध’ माना जाता है. इसी से यह भी समझा जा सकता है कि गैर शादीशुदा लड़कियों को अपने सेक्सुअल बिहेवियर के लिए कैसे शर्मसार किया जाता है.
न्याय व्यवस्था और चिकित्सा जगत ऐसे दोहरे मानदंडों से भरे हुए हैं. इसके बावजूद कि औरत के हालात से अपराध का नतीजा तय नहीं होना चाहिए, और कानून इसका समर्थक भी है लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं होता. इसे बलात्कार के मामलों के उदाहरणों से समझा जा सकता है.
दिल्ली ज्यूडीशियरी एकेडमी के पूर्व चेयरपर्सन मृणाल सतीश की किताब डिस्क्रीशन, डिस्क्रिमिनेशन एंड रूल ऑफ लॉ बताती है कि कैसे अदालतें अपराधियों को तब कम गंभीर सजा देती हैं, जब औरत गैर शादीशुदा और सेक्सुअली एक्टिव होती है. लेकिन कई मामलों में पीड़िता की ‘वर्जिनिटी’ का भी जिक्र किया जाता है.
इस किताब में मदन गोपाल कक्कड़ बनाम नवल दुबे मामले का जिक्र है जिसमें रेप सर्वाइवर के बारे में अदालत ने कहा था कि “उसकी जिंदगी में वर्षा ऋतु कभी नहीं आती.” यानी सरकारी अफसर हों या मुंसिफ, खुद को सामाजिक नैतिकता का पहरेदार मान बैठते हैं.
थ्रूमैन ने अपने लेख द सिंबल्स ऑफ गवर्नमेंट 1935 में लिखा था कि कई क्रिमिनल कानून पूरी तरह से इसलिए लागू नहीं होते क्योंकि हम अपने व्यवहार और रिवाजों को तोड़ना नहीं चाहते, अपनी तथाकथित नैतिकता को बरकरार रखना चाहते हैं. ऐसा उन्होंने मोरैलिटी लॉ के बारे में लिखा था- ऐसे कानून जो व्यक्तियों के सेक्सुअल आचरण को नियंत्रित करते हैं.
अक्सर स्कॉलर्स इसे व्यक्ति की प्राइवेसी में कानून और स्टेट की दखल मानते हैं. खासकर औरत के शरीर, उसकी प्राइवेसी, और सेक्सुअल आचरण में. लेकिन यह भी अपनी सुविधा के हिसाब से है. तभी मैरिटल रेप पर कानून और सरकारें चुप रहती हैं लेकिन गर्भपात पर मुखर हो जाती हैं.
गौतम भाटिया जैसे वकील प्राइवेसी को लेकर औरतों को सतर्क रहने की सलाह भी देते हैं. उनके हिसाब से, प्राइवेसी व्यक्तियों को मिलनी चाहिए, न कि किसी जगह को या रिश्तों को. प्राइवेसी की रेखा भी हिंसा पर जाकर खत्म हो जानी चाहिए. वरना, स्टेट बहुत ही सुविधाजनक तरीके से घर या परिवार में ताकत के असंतुलन और हिंसा को अनदेखा करने लगता है.
गौतम औरतों की अपनी देह की आजादी की वकालत करते हैं. लेकिन स्टेट रवायती तौर से यह समझता है कि औरत के विवेक पर भरोसा नहीं किया जा सकता, उसकी सोचने समझने की ताकत पर यकीन नहीं किया जा सकता. हां, केरल के अखिला (या हादिया) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह बात पुख्ता की कि न तो हादिया के मां-बाप, न उसका परिवार, न उसकी जाति-पंचायत, न उसका धर्म, उसकी तरफ से बोलने का हकदार हैं. यानी औरत इस देश की संपत्ति नहीं है. और सुप्रीम कोर्ट भी उसकी मर्जी के खिलाफ उसका अभिभावक नहीं बन सकता.
दरअसल अदालतों को ज्यादातर परवाह शादी की संस्था को संरक्षित करने में होती है जहां औरत का शरीर इज्जत का मामला बन जाता है. जिसे हम रेपोजिटरी ऑफ ऑनर भी कह सकते हैं.
तभी अदालतों के फैसलों में असंगतियां पाई जाती हैं. और अदालत अबॉर्शन की तभी इजाजत देती है जब वह औरत की नैतिकता को सुनिश्चित करेगी. क्योंकि औरत को इज्जत इसलिए नहीं दी जाती क्योंकि वह एक इनसान है. वह उसे तब तक मिलेगी जब तक वह समाज के अनुसार व्यवहार करती रहे, वह करे जो उससे सामाजिक रूप से अपेक्षित है.
इस पूरी बहस का अंत कहां होना चाहिए? इस टिप्पणी पर कि हर इनसान को कुछ मौलिक अधिकार हैं. उनका स्रोत न तो राज्य है और न ही संविधान. संविधान इनसानी हक की निशानदेही करता है और राज्य को बताता है कि वह कहां तक इनसान की जिंदगी में दखल दे सकता है. इनसानों के हक का स्रोत वह खुद ही है. उसे इसके लिए किसी वैलिडेशन की जरूरत नहीं. यहां इनसान की जगह आप “औरत” शब्द का भी इस्तेमाल कर सकते हैं क्योंकि इनसान का मतलब सिर्फ मर्द नहीं होता.
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