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आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की पहल मोदी सरकार ने कर दी है. अब ये सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का कदम है या चुनावी स्टंट, इस पर बहस जारी है. लेकिन इस बीच आपसे मेरे कुछ सवाल हैं:
आपका जवाब होगा 'नहीं', क्योंकि मोदी सरकार 5 साल में ऐसी कोई ठीक-ठाक व्यवस्था ही नहीं बना सकी है कि सही-सही संख्या आपको पता चल सके. लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण का 'लॉलीपॉप' थमा दिया गया. तो चलिए जरा नौकरियों की गिनती कर ली जाए.
इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) के सरकारी आंकड़ों पर बेस्ड एक रिपोर्ट बताती है देशभर में जितनी नौकरियां हैं, उनमें से सिर्फ 18 फीसदी पर ही कोटा अप्लाई होता है. मतलब करीब 1 करोड़ 54 लाख नौकरियां. इसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकार की हर लेवल की नौकरियां शामिल हैं.
इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 में कुल 856 लाख सैलरी पाने वाले कर्मचारी थे. इनमें खेती-किसानी से जुड़े लोगों को शामिल नहीं किया गया था. इस 856 लाख का 70 फीसदी यानी 600 लाख प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां कर रहे हैं.
मतलब समझ रहे हैं आप? 'मेरे सवा सौ करोड़ देशवासी' जो हैं, उनमें से सिर्फ 1 करोड़ 54 लाख नौकरियों पर ही आरक्षण लागू होता है.
अब ये सरकारी नौकरियां कैसे मिल रही हैं, आपने ये सुना ही होगा- ये इश्क नहीं आसां, आग का दरिया है डूब कर जाना है. इसमें इश्क की जगह सरकारी नौकरी पढ़िए. मतलब कि ये नौकरी नहीं आसां, आग का दरिया है डूबकर जाना है.
इसका उदाहरण आप कुछ साल में हुई SSC परीक्षाओं, यूपी में शिक्षक भर्ती और रेलवे भर्ती की परीक्षाओं में देख सकते हैं. अगर आप मेधावी छात्र हैं, तो आपको कुछ दरियाओं (स्तर) से होकर गुजरना पड़ता है
10 फीसदी आरक्षण पर ये भी कहा जा रहा है कि सरकारी कॉलेजों में 10 लाख सीटें भी बढ़ाई जाएंगी, ऐसा ही उस वक्त हुआ था, जब साल 2007 में यूपीए सरकार ने शैक्षिक संस्थानों में OBC के लिए आरक्षण की शुरुआत की थी. लेकिन क्या इसी तर्ज पर नौकरियों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी?
आंकड़े तो कुछ और ही गवाही दे रहे हैं. नौकरियां बढ़ नहीं रहीं, घटती जा रही हैं. EPW की रिपोर्ट में बताया गया है कि कुल नौकरियों में से सरकारी नौकरियों का 23.2 फीसदी शेयर जो 2004-05 में था, वो 2011-12 में घटकर 18.5% फीसदी पर आ गया.
अब आप बताइए कि इन चुटकीभर नौकरियों के लिए, जो लगातार घट भी रही हैं, उनके लिए आरक्षण देना 'लॉलीपॉप' से कम है क्या?
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