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संडे व्यू : यूपी बदलेगा देश, सवालों में आत्मनिर्भरता का नारा

संडे व्यू में पढ़ें आज चाणक्य, चेतन भगत, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, मणिशंकर अय्यर के विचारों का सार

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भारत
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संडे व्यू में पढ़िए देश के प्रमुख अखबारों में छपे आर्टिकल्स एक साथ 
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संडे व्यू में पढ़िए देश के प्रमुख अखबारों में छपे आर्टिकल्स एक साथ 
(फोटो: Altered by Quint Hindi)

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यूपी के नतीजे बदलेंगे राष्ट्रीय राजनीति

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य सवाल करते हैं कि उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा विधानसभा सीटों पर किसका कब्जा होगा? यह वह सवाल है जिसमें भारतीय राजनीति की दुनिया में उठ रहे उन तमाम सवालों का उत्तर है जो 20 करोड़ लोगों से जुड़ा है जो विभिन्न धर्मों और जाति-समुदायों से जुड़े हैं. यह सत्ताधारी पार्टी से लेकर 2024 की सियासत को भी तय करने वाला है. ये नतीजे भविष्य में भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व को भी तय करने वाले हैं. स्वर्गीय प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि नतीजे आने के बाद ही कोई चुनाव को समझ सकता है. लिहाजा जवाब 10 मार्च को ही मिलेगा.

चाणक्य लिखते हैं कि भारतीय राजनीतिक दलों के व्यवहार, चुनाव विशेषज्ञों का विज्ञान, भारतीय राजनीतिक विज्ञान का अनुशासन और भारतीय राजनीतिक पत्रकारिता के निष्कर्ष भी मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताओं को समझ पाने में सफल नहीं हो पाते. यही कारण है कि बहुत निश्चितता के साथ कोई भी जवाब देना मुश्किल हो जाता है. बीते चुनावों में मतदाता विधायक के बजाए पार्टी चुनते रहे हैं जिस कारण बीएसपी, एसपी और बीजेपी की सरकारें एक के बाद एक बनी हैं. अगर यह प्रवृत्ति जारी रहती है तो बीजेपी या समाजवादी पार्टी लखनऊ विधानसभा में आसान बहुमत के साथ दिखलायी देगी.

चाणक्य बताते हैं कि यह देखना भी दिलचस्प होगा कि वोटरों की प्राथमिकता में यादवों का प्रभुत्व या ठाकुरों का प्रभुत्व होता है या नहीं. बीजेपी को उम्मीद है कि ओबीसी नरेंद्र मोदी, कल्याणकारी योजनाएं और कानून व्यवस्था में सुधार की बदौलत गैर-यादव समूहों का समर्थन उसे मिल जाएगा. लोध, कुर्मी, निषाद और केशव प्रसाद मौर्य के साथ होने की वजह से स्वामी प्रसाद मौर्य के दूर होने से मौर्य और शाक्य समुदाय की कमी पूरी हो जाएगी.

वहीं, अखिलेश को कृष्णा पटेल, जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर के सहयोग की बदौलत सामाजिक विविधताओं को साध लेने की उम्मीद है. बीएसपी के साथ मूल रूप से जाटव जनाधार बना रहा है लेकिन 2022 में इसमें बिखराव की उम्मीद है. यह बीजेपी और एसपी में किस ओर रुख करेगा, इस पर बहुत कुछ निर्भर करने वाला है. अंत में हिन्दू वोटर हिन्दू बनकर वोट करते हैं या नहीं इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करने वाला है.

आत्मघाती है आत्मनिर्भरता का नारा!

हिन्दुस्तान टाइम्स में करण थापर लिखते हैं कि सरकार मानती है कि महामारी पूर्व की स्थिति में लौट रही है जीडीपी, जिससे विकास की गति तेज होगी. आईएमएफ भी इससे सहमत है और वह 8.5 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर का अनुमान 2022 में जता रहा है जो चीन से ज्यादा है.

मगर, सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार सुब्रहमण्यम स्वामी इससे सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि आत्मनिर्भर भारत के कारण लक्षित सब्सिडी बढ़ी है, संरक्षणवाद लौटा है और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों से भारत दूर हुआ है.

करण थापर सुब्रह्मण्यम के हवाले से बताते हैं कि सब्सिडी राज में लाइसेंसी राज के सारे खतरे हैं. केवल अडानी और अंबानी समूहों पर फोकस करने का असर नवाचार और विकास पर पड़ेगा. पूंजीवाद पर भारतीयों का संदेह और गहरा होगा. इस रणनीति से हर साल जुड़ रहे 70 से 80 लाख वर्कफोर्स के मुताबिक रोजगार भी पैदा नहीं होगा. सुब्रहमण्यम संरक्षणवाद का विरोध करते हैं और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में शामिल होने के पैरोकार हैं. वे बताते हैं कि 2014 के बाद से 3200 टैरिफ बढ़े हैं और यह 13 फीसदी से 18 फीसदी के स्तर पर आ चुका है जो पूर्वी एशियाई देशों के मुकाबले ज्यादा है और व्यापार में बाधक है.

लेखक ने बताया है कि भारतीय आंकड़ों पर भी सुब्रह्मण्यम सवाल करते हैं. वे मानते हैं कि 2019-20 में भारत के आर्थिक विकास की दर 4 प्रतिशत से भी कम रही थी. भारत सरकार की नीति में निरंतरता की कमी को लेकर भी सवाल हैं.

बहुसंख्यकवाद का वातावरण भी सामाजिक स्थिरता और शांति के लिहाज से नुकसानदेह है. न्यायपालिका, मीडिया और नियामक एजेंसियों पर आंच आने के बुरे परिणाम भी अर्थव्यवस्था को झेलने होंगे. सरकार को आत्मनिर्भर भारत की नीति पर पुनर्विचार करना होगा.

वित्तमंत्री को 'सेंटा' ना समझें

चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारतीय आम बजट में कुछ हफ्ते रह गये हैं. 1 फरवरी को आम बजट आने वाला है. खुशी की बात है कि सेंटा क्लॉज किस्म के बजट की उम्मीद हम नहीं कर रहे हैं जहां उद्योगों और आम नागरिकों को उनकी इच्छा के हिसाब से उपहार मिलेंगे.

हम नहीं सोच रहे कि सांता की शक्ल में वित्तमंत्री 1 फरवरी को आएंगी और कम आय वालों पर कर घटाएंगी या टीवी सेट सस्ता कर देंगी. आज जीएसटी ने पहले ही इन चीजों को ध्यान में रख रहा है. ‘जाम महंगा और अचार सस्ता’ जैसी सोच पर लगाम लग चुका है.

चेतन भगत लिखते हैं कि उदार और कारोबार के हित वाली अर्थव्यवस्था वह है जिसमें बजट का दिन महत्वपूर्ण नहीं होता. साल का कोई एक दिन अर्थव्यवस्था को प्रभावित ना करे या फिर इससे एक अरब लोगों की जिन्दगियां टिकी ना रहे. करों की दर स्थिर होना चाहिए और राजस्व घाटा का अंदाजा पहले से होना चाहिए.

पूंजीगत खर्च, निजीकरण और कल्याण कार्यक्रम पहले की तरह चलते रहने चाहिए. बजट को बड़ी घोषणाओं या उपहारों से भरे सांता के बैग की तरह नहीं होना चाहिए. कोई तर्क कर सकता है कि सबसे अच्छा बजट वह है जो थोड़ा बोर करने वाला हो.

अच्छा बजट वह है जिसमें कोई ब्रेकिंग न्यूज ना हो, कोई जोरदार डिबेट ना हो, कोई विवाद ना हो. आम तौर पर हमारे टीवी चैनल ऐसा ही करते हैं.

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बांग्लादेश में भारत के लिए संदेह का अंडरकरंट

मणिशंकर अय्यर ने टेलीग्राफ में लिखा है कि बांग्लादेश की आजादी के 50 साल के उत्सव पर 7 दिन तक ढाका में रहने के बाद वे लौटे हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स के सिडनी शैनबर्ग से उनकी मुलाकात और पुराने संस्मरण की भी बात उन्होंने लिखी है. तब शरणार्थियों के लिए राहत सामग्री की आपूर्ति की जिम्मेदारी वे देख रहे थे.

तब शैनबर्ग पश्चिम के पाठकों को सच्चाई परोस रहे थे. तब सिडनी शैनबर्ग की कही गयी एक बात ने अय्यर को चौंका दिया था, “तुम लोगों ने इसे खो दिया है.“ उसने बताया था, “तुम्हारे सैनिक दावा कर रहे हैं कि युद्ध भारतीय सेना ने जीता है. मुक्ति बाहिनी के योगदान को कोई श्रेय नहीं दिया जा रहा है जिसने जीत का मार्ग प्रशस्त किया.”

शैनबर्ग की आशंका आत्मसमर्पण समारोह के वक्त भी महसूस हुई जब मुक्ति बाहिनी के प्रमुख एमएजी ओस्मानी को उस फोटोग्राफ में सबसे किनारे जगह मिली थी. 50 साल बाद भी वह असंतोष बरकरार है.

मणिशंकर अय्यर लिखते हैं कि बांग्लादेश में आज भी यह सवाल पूछे जाते हैं कि पाकिस्तान के समर्पण के बाद सारे हथियार भारत क्यों ले गया? वे पूछते हैं कि 195 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्ध अपराधी ठहराए बगैर 93 हजार युद्धबंदियों को क्यों एकतरफा सौंप दिया गया? क्यों आपने 26 मार्च 1971 को हस्तक्षेप नहीं किया और 9 महीने तक इंतजार किया जिस दौरान लाखों बांग्लावासियों की जानें गयीं?

मणिशंकर अय्यर लिखते हैं कि बांग्लादेशी कर्नल सज्जाद अली जहीर का रुख थोड़ा अलग दिखा. उन्होंने बताया, “हम भारतीय जवानों को कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने हमारी आजादी के लिए अपनी जानें दीं? उनके खून पद्मा, तीस्ता, यमुना और मेघना में घुले हैं.”

भारत के लिए अनुदार सोच कहती है कि आप पाकिस्तान को बांटना चाहते थे, हम आजादी चाहते थे. दोनों के मकसद मिल गये. बस यही संयोग था. आधिकारिक रूप से बांग्लादेश की हसीना सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि जब करोड़ों लोगों को राहत और पुनर्वास की जरूरत थी, भारत ने इसे सुनिश्चित किया. वे अटल बिहारी वाजपेयी की भी सराहना करते हैं जिन्होंने इंदिरा गांधी को ‘मां दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था.

महामारी से ज्यादा आर्थिक नुकसान का डर

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दो साल बाद एक बार फिर वह उसी गांव में हैं जहां पहली बार लॉकडाउन के वक्त थीं. एक बार फिर ओमिक्रॉन कहर बनकर फैलने लगा है. लोग डरे हुए हैं और परेशान भी हैं. लॉकडाउन के बाद पर्यटन बढ़ा, लोगों ने अपने-अपने घरों के साथ रेस्टोरेंट खोल लिए.

अब डर सता रहा है कि कहीं यह निवेश व्यर्थ न चला जाए. अब लोग कोविड की महामारी से कम, कारोबार पर असर से ज्यादा डरे हुए हैं. लोगों ने यह मान लिया है कि महामारी के साथ ही जीना होगा.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि बीते दो वर्षों में शासकों ने भी बहुत कुछ सीखा है. वैश्विक समस्या के वक्त विभिन्न देशों को मिलकर काम करना होता है. आत्मनिर्भरता का नारा काम नहीं आता. देश के 90 फीसदी लोगों को कोविशील्ड का टीका लगा है जिसे ऑक्सफोर्ड के वैज्ञानिकों ने एस्ट्राजेनेका नाम से तैयार किया था जिन टीकों को भारतीय कहा गया उनका समय पर व्यापक स्तर पर निर्माण नहीं हो पाया.

तवलीन सिंह ने यह भी लिखा है कि बीमारी से लड़ने के वक्त नीम हकीम बाबाओं पर विश्वास करना बेवकूफी है. थालियां बजाने, दीये जलाने जैसी चीजों से अर्धशिक्षित लोगों में संदेश गया कि ऐसी चीजों से कोविड भाग जाएगा. तभी गोबर से नहाए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बड़े-बड़े मंत्री ऐसे बाबाओँ के साथ फोटो खिंचवा रहे थे जो वैज्ञानिक नहीं, ढोंगी थे. विज्ञान तथा वैज्ञानिकों पर पूरा विश्वास रखते हुए ही महामारी से लड़ा जा सकता है.

सबसे तेज अर्थव्यवस्था की शेखी

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ ने 2021-22 के लिए राष्ट्रीय आय का पहला अग्रिम अनुमान जारी किया था.

एनएसओ ने रेखांकित किया था कि 2020-21 के स्थिर मूल्यो पर जीडीपी में आए संकुचन -7.3 फीसदी के मुकाबले 2021-2022 में जीडीपी में वृद्धि दर स्थिर मूल्यों पर 9.2 फीसदी रही. हालांकि कोविड नये सिरे से फैल जाने के बाद इस पर संदेह है.

चिदंबरम लिखते हैं कि दो सालो में भारतीय अर्थव्यवस्था (-) 7.3 और (+)9.2 फीसदी का रिकार्ड दर्ज करते हुए भी भारत की जीडीपी सपाट हो गयी है. वहीं चीन ने इस दौरान 2.3 और 8.5 फीसदी की दर हासिल कर रिकॉर्ड बनाया है. एनएसओ का आंकड़ा कहता है कि 2019 के मुकाबले 2020-21 में औसत भारतीय गरीब था और 2021-22 में भी रहेगा. 2019-20 में आम भारतीय जितना खर्च करता था उसके मुकाबले वह अब कम खर्च करता है और करेगा.

चिदंबरम लिखते हैं कि आम लोगों में जीडीपी से ज्यादा गैस, डीजल और पेट्रोल के दामों की चर्चा हो रही है. बेरोजगारी को लेकर भी चिंता है. सीएमआईई के मुताबिक शहरी बेरोजगारी की दर 8.51 फीसदी है और ग्रामीण बेरोजगारी की दर 6.74 फीसदी है.

असल हालात और बुरे हैं. जिनके पास काम है वह केवल दिखावा ही है. दाल, दूध और खाद्य तेल जैसी जरूरी चीजों के दाम चिंता बढ़ा रहे हैं. नफरती माहौल खास तौर पर चिंता का विषय है. शासक इससे बेपरवाह हैं और वे चुनावी लड़ाइयो के रास्ते पर निकल पड़े हैं. 80-20 फीसदी जैसे नारों में लगे हैं. यह शेखी बघारी जा रही है कि भारत सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था है.

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