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आखिरकार ये हो ही गया. बात सिंपल सी थी. एक औरत कपड़ों की दुकान में काम करती थी. घंटों खड़ी रहती थी. थक जाने पर बैठने का मन करता था. लेकिन दुकान के मालिक ने कह रखा था कि बैठना मना है. बैठ गई तो वेतन से पैसे कट जाएंगे. यहां तक कि दीवार से टिक कर खड़े होने पर भी रोक थी. सीसीटीवी से दुकान का मालिक नजर रखता था.
उस समय तक ऐसा कोई कानून नहीं था, जिसके तहत वह सेल्स गर्ल मांग करती कि उसे बैठने की सुविधा चाहिए. यानी दुकान का मालिक उसे बैठने से रोक कर नैतिक और मानवीय नजरिए से गलत कर रहा था, लेकिन उसका ऐसा करना गैरकानूनी नहीं था.
ये समस्या केरल में सामने आई. बल्कि वास्तविकता में देखें तो ये समस्या देशभर में है. लेकिन इसके खिलाफ आवाज सबसे पहले केरल में उठी. केरल में दुकानों में काम करने वाली महिलाओं की एक संस्था असंगठित महिला कर्मचारी यूनियन ने 2010 में पहली बार इस मुद्दे को उठाया और तब से ही वे इसे लेकर आंदोलन कर रही हैं.
हालांकि यह समस्या पुरुष सेल्स पर्सन की भी है. लेकिन इसे लेकर आंदोलन महिलाओं के नेतृत्व में चला. दुकानों में काम करने वाली महिलाओं ही नहीं, पुरुषों के लिए भी अक्सर बैठने की व्यवस्था नहीं होती है. खासकर नए किस्म के आर्किटेक्चर वाली दुकानों और मॉल्स में अक्सर सेल्स पर्सन के लिए बैठने की व्यवस्था नहीं होती. जहां ऐसी व्यवस्था होती भी है, उसके पीछे किसी तरह की कानूनी बाध्यता नहीं होती.
महिलाओं ने ही ये आंदोलन क्यों किया, इसका कोई स्पष्ट जवाब तो नहीं हो सकता. लेकिन दो कारण समझ में आते हैं.
बहरहाल, महिला कर्मचारियों के आंदोलन के बाद आखिरकार सरकार झुकी. सरकार ने वादा किया कि इसके लिए कानून में प्रावधान किए जाएंगे. क्विंट हिंदी ने उस आंदोलन की जीत की खबर विस्तार से छापी थी.
अब आखिरकार सरकार ने केरल शॉप्स एंड कॉमर्शियल स्टैबलिशमेंट अमेंडमेंट अध्यादेश, 2018 लाकर दुकान में काम करने वालों के अधिकार सुनिश्चित किए हैं. यह काम आजादी के 69 साल बाद हो रहा है. फिलहाल ऐसा कानून सिर्फ केरल में है.
इसे न मानने वाले दुकान और बिजनेस स्टैबलिशमेंट के मालिकों को पहले उल्लंघन पर एक लाख और दूसरी बार नियम तोड़ने पर दो लाख रुपए का जुर्माना देना पड़ेगा. अध्यादेश के जरिए दो और बदलाव किए गए हैं. दुकानों में काम करने वाले हर कर्मचारी को हफ्ते में कम से कम एक दिन की छुट्टी जरूर दी जाएगी.
एक और बदलाव यह है कि रात की शिफ्ट में महिलाएं काम कर सकती हैं, बशर्तें वहां कम से कम पांच कर्मचारी रात की शिफ्ट में हों और उनमें से कम से कम दो महिलाएं हैं. साथ ही उनकी सुरक्षा, यौन उत्पीड़न के निषेध और उनके आने-जाने की व्यवस्था करना दुकान मालिक का जिम्मा होगा. ये सारे बदलाव सकारात्मक हैं.
इस बदलाव से केरल में लाखों सेल्समैन और सेल्स वीमन को राहत मिलेगी और उनके काम की स्थितियां बेहतर होंगी. महिला मुक्ति की दिशा में एक छोटा, लेकिन अहम कदम है. किसी भी संवैधानिक लोकतंत्र में बदलाव इसी तरह से होते हैं. सवाल उठता है कि औरतों के हक की ये लड़ाई सबसे पहले केरल में क्यों लड़ी और जीती गई.
केरल में महिलाओं ने खूब अत्याचार झेला है और खूब संघर्ष किया है. वह बहुत पुरानी बात नहीं है, जब केरल में ज्यादातर सामाजिक समूहों की औरतों को वक्ष ढकने का अधिकार नहीं था. लेकिन समाज सुधारकों के प्रयासों और महिलाओं के आंदोलन से हालात बदले हैं.
यह भी महत्वपूर्ण है कि केरल में बेटियों को गर्भ में नहीं मारा जाता. वहां प्रति 1000 पुरुषों पर 1084 महिलाएं हैं. इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि बाकी राज्यों और दिल्ली, मुंबई में भी जिस स्थिति को नॉर्मल मान लिया जाता है कि दुकान के कर्मचारी हैं, तो सामान बेचने के लिए खड़े तो रहना पड़ेगा. तब केरल में इस स्थिति को एक समस्या की तरह देखा गया.
देश के बाकी राज्यों को भी ऐसे कानून बनाने चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में महिलाओं को इसके लिए आंदोलन नहीं करना पड़ेगा. ऐसे प्रयासों से ही वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ेगी, जिसके बिना भारत के विकास की गति सुस्त बनी रहेगी.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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