हर दिन लंबे समय तक खड़े रहने की मजबूरी के कारण हजारों सेल्सवीमन (महिलाएं) शारीरिक तकलीफ झेल रही थीं और बीमार भी हो रही थीं. केरल में महिला कर्मियों ने आंदोलन किया और अब उन्हें बीच-बीच में बैठने का हक मिलेगा.
मॉल में स्टोर के बाहर कुर्सी क्यों नहीं होती?
अगर आप मेट्रो शहर या किसी बड़े शहर में रहते हैं और खुद शॉपिंग करते हैं, तो आपने भी इस बात को नोटिस किया होगा. खासकर मॉडर्न ब्रांडेड स्टोर्स या सुपर या हायपर मार्केट में जब आप शॉपिंग करने जाते हैं और देर हो जाती है, तो आपका मन होता होगा कि थोड़ा सुस्ता लें. पैरों को आराम दे लें. फिर आप अपने आस-पास चेयर या बेंच या स्टूल खोजते होंगे. इस बात की काफी आशंका है कि आपको बैठने की जगह न मिले.
अक्सर मॉडर्न दुकानों के अंदर बैठने की व्यवस्था नहीं होती. मॉल में तो अक्सर दुकान के बाहर कॉरिडोर में भी कुर्सियां या बेंच या तो नहीं होती या कम होती हैं. मॉल में सुस्ताने के लिए लोग अक्सर फूड कोर्ट जाते हैं, जहां जाहिर है कि खर्च करना पड़ता है. ऐसे ही थोड़ी न वहां बैठे रहेंगे. भीड़ रही तो खाली बैठने भी नहीं देंगे. खाएंगे-पीएंगे, तो खर्च भी करेंगे. यह तो मॉल की अर्थव्यवस्था की बात है.
सेल्सगर्ल को 10 घंटे खड़े रहने का दंड क्यों?
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिस दो-तीन घंटे की शॉपिंग में खड़े रहने से आपके पैर जवाब दे जाते हैं और आपका दिमाग कुर्सी-बेंच की तलाश करने लगता है, अगर वैसी ही स्थिति में आपको हर दिन दस घंटे रहना पड़े तो? और वो भी एक दिन नहीं, महीने में 25 दिन.
साल-दर साल हर महीने 25 दिन में से हर दिन अगर आपको अगर 10 घंटे तक खड़ा रहना पड़े, तो यह कैसी स्थिति होगी? क्या आप ऐसा करके स्वस्थ रह पाएंगे? यह कोई काल्पनिक सवाल नहीं है. जानने के लिए चलिए केरल चलते हैं. वैसे तो ये समस्या पूरे देश भर की है, लेकिन इसका समाधान ढूढने की कोशिश केरल में हुई.
केरल में साड़ी की दुकान में काम करने वाली एक महिला हर दिन 10 से 12 घंटे तक खड़ी रहती है. दुकान का मालिक उसे बैठने के लिए स्टूल नहीं देता. ये सालों साल चलता है. अगर वह पूरे दिन खड़े रहने से थक-हार जाती और थकान के कारण दीवार के साथ सटकर खड़ी हो जाती (जैसा कि हम अक्सर मेट्रो या ट्रेन का इंतजार करते समय कर लेते हैं) तो एम्प्लायर उसकी सैलरी से पैसे काट लेता है. इस तरह पैसे काटने के लिए दुकान का मालिक सीसीटीवी फुटेज का सहारा लेता है.
पीडियड में प्रताड़ना
अब उस महिला की स्थिति के बारे में सोचिए जिसको पीरियड हो रहे हैं, वो कैसे पूरे दिन खड़ी रह पाएगी? जिस समय दुनिया में पीरियड लीव की बात हो रही हो और कई देशों में इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, तब यह कितनी विचित्र स्थिति है.
भारत में पीरियड के दौरान छुट्टी नहीं मिलती. इतना ही नहीं, उस महिला को 5 मिनट का टॉयलेट ब्रेक मिलता है और टॉयलेट दुकान में न होकर दूर होता है. इतने कम समय में टॉयलेट तक जाना आना और पीरियड के दिनों में नेपकिन चेंज करना हो, तो कोई कैसे करे?
इतना ही नहीं, पूरे दिन खड़े रहने से पैरों में सूजन आ जाती थी. टॉयलेट का कम इस्तेमाल करना पड़े, इसके लिए वह कम पानी पीती है, जिससे किडनी से लेकर यूरिन इन्फेक्शन तक पचासों तरह की बीमारियों का शिकार वो बन सकती है. हड्डियों की तमाम तरह की समस्याएं उसे हो सकती हैं.
ये एक महिला नहीं, हजारों-लाखों महिलाओं की कहानी है. ऐसी तकलीफ तो सेल्स का काम करने वाले पुरुषों की भी है, लेकिन अपनी शारीरिक स्थितियों के कारण महिलाओं के लिए यह ज्यादा कठिन परिस्थिति है.
बैठने का अधिकार जरूरी
बहरहाल केरल में साड़ी स्टोर और ऐसी ही तमाम दुकानों में काम करने वाली महिलाओं के एक संगठन ने इस स्थिति को मानने से इनकार कर दिया. उनकी जिद और पहल के कारण अब स्थिति बदलेगी. केरल में दुकानों में काम करने वाली महिलाओं को काम के दौरान बैठने का अधिकार मिलेगा. इस संघर्ष में आठ साल लग गए.
2010 में केरल की कुछ महिला वर्कर्स ने असंगठित महिला कर्मचारी यूनियन का गठन किया और इस मुद्दे पर बार-बार विरोध प्रदर्शन किया. केरल सरकार ने कहा है की वो लेबर लॉ में अमेंडमेंट करके काम करने के घंटे तय करेगी और बैठने की सुविधा सुनिश्चित करेगी. इस संगठन ने कुछ साल पहले महिलाओं के काम की जगहों पर टॉयलेट की मांग को लेकर भी मुहिम चलाई थी और आज हालात पहले से बेहतर हैं.
केरल महिलाओं के मामले में एक अच्छा राज्य माना जाता है और यह सही भी है. केरल का लिट्रेसी रेट और महिला लिट्रेसी रेट देश के दूसरे राज्यों में सबसे ज्यादा है. 2011 की जनगणना में केरल का महिला लिट्रेसी रेट 92 फीसदी से भी ज्यादा था. निश्चित रूप से यह राज्य 100 फीसदी महिला लिट्रेसी की तरफ बढ़ रहा है.
इतना ही नहीं, केरल का सेक्स रेश्यो बताता है कि वहां बेटियों को गर्भ में नहीं मारा जाता. वहां प्रति 1000 पुरुषों पर 1084 महिलाएं हैं. उत्तर भारतीय राज्यों के लोगों को यह समझ में भी नहीं आएगा कि ऐसा कैसे हो सकता है. लेकिन केरल से इसे हासिल किया है.
इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि बाकी राज्यों और दिल्ली में भी जिस स्थिति को नॉर्मल मान लिया जाता है कि दुकान के कर्मचारी हैं, तो सामान बेचने के लिए खड़े तो रहना पड़ेगा. तब केरल में इस स्थिति को एक समस्या की तरह देखा गया. समस्या के खिलाफ महिलाएं संगठित होकर आंदोलन करती हैं और आखिरकार सरकार सहमत हो जाती है कि उनकी मांग सही है. यह जीत होने को तो किसी भी राज्य में हो सकती थी, लेकिन यह पहल केरल में ही हुई.
बैठने का अधिकार सुनने में कितनी मामूली बात लगती है. लेकिन महिलाओं का आंदोलन दुनिया में इसी तरह कदम दर कदम आगे बढ़ा है. बैठने का हक कितना महत्वपूर्ण यह उन महिलाओं से पूछिए, जिन्हें यह हक हासिल होने जा रहा है.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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