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कुरान में हिजाब की स्वीकृति, पर कोर्ट डिसीजन से मुस्लिम औरतों के पास विकल्प नहीं

Karnataka hijab row: कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला ना तो नीतिगत है और ना संवैधानिक तौर पर मजबूत

तौबा तौफीक
न्यूज
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<div class="paragraphs"><p>कर्नाटक हिजाब विवाद</p></div>
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कर्नाटक हिजाब विवाद

फोटो : Altered by Quint

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एक जैसा होना (यूनिफॉर्मिटी) ना तो बराबरी है और ना ही नुमाइंदगी वाला. इसे आदर्श भी नहीं बता सकते. सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता वाले देश में कोई भी यूनिफॉर्मिटी निश्चित ही बहुंसख्यकों की मान्यताओं और प्रथाओं को जबरदस्ती थोपने जैसा है. इसलिए, कोई भी "यूनिफॉर्म " चाहे वो शाब्दिक अर्थ में हो या फिर कानूनी, मुख्य रूप से वर्चस्वता (हेजेमनी) की नुमाइंदगी करता है , खासकर कम नुमाइंदगी वाले अल्पसंख्यकों की तो बिल्कुल कद्र नहीं करता.

इस नजरिए से, शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध जारी रखने का कर्नाटक हाईकोर्ट का हालिया फैसला न तो नीतिगत तौर पर और ना ही संवैधानिक रूप से सही लगता है. इस थोपी गई यूनिफॉर्मिटी और धार्मिक स्वतंत्रता में कटौती से भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सभी उम्मीदों को धराशायी कर दिया गया है इसके अलावा महिलाओं के मसले सुलझाने में जिस माइंड और मेथड की जरूरत होती है उसको भी पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है.

हिजाब और ‘शालीन ड्रेस’ पर कुरान क्या कहता है ?

हिजाब बैन के सरकारी आदेश पर मुहर लगाते हुए हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ‘ हिजाब को इस्लाम धर्म में अनिवार्य हिस्सा नहीं बताया गया है . फैसला कहता है कि याचिकाकर्ता ये साबित करने में नाकाम रहे हैं कि हिजाब पहनना इस्लाम और धर्म के हिसाब से अनिवार्य है . तीन सदस्यीय जजों की पीठ चीफ जस्टिस रितुराज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा दीक्षित, और जे एम खाजी के बयान को देखकर लगता है कि वो कुरान के पाठ, पैगंबरी नजीर, इस्लाम के सभी चारों सुन्नी न्यायशास्त्र से बेखबर हैं जिनमें मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब पहनने का इकरारनामा है.

कोर्ट ने ये भी कहा है कि पवित्र कुरान मुस्लिम महिलाओं को हिजाब या स्कार्फ बांधने का आदेश नहीं देता है और निश्चित तौर पर इस तरह का ड्रेस पहनने का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है , भले ही इसका कुछ सांस्कृतिक संदर्भ हों. इससे पहले सुनवाई के दौरान उन्होंने पूछा था कि क्या कुरान में महिलाओं से ये अपेक्षा रखी गई है कि वो अपना सिर ढंककर रखें.

ये भी नजरअंदाजी है. कुरान बहुत स्पष्ट तौर पर मुस्लिम महिलाओं की पोषाक के लिए ‘खिमार’ शब्द का इस्तेमाल करता है. ‘खिमार ‘एक तरह से हेडकवर था जिसका इस्तेमाल पूर्व–इस्लामिक युग में होता है. इसके बाद कुरान में थोड़ा सुधार किया गया और गले तक को ढंकने के लिए कहा गया. इस्लाम में सभी कानूनी प्रावधान किए गए हैं चाहे स्वीकृति हो या सुधार या फिर विरोध, जिनमें वो संचालित होते हैं.

इस तरह से, हेडकवर की बात सांस्कृतिक संदर्भों से निकली लेकिन इसे सुधारकर इस्लामिक इकरारनामा बनाया गया. इस इस्लामी इंजेक्शन के बाद खिमार को फिर से परिभाषित किया गया और इसे सिर के साथ साथ गला ढंकने वाला बताया गया. इसके अलावा मुस्लिम महिलाओं की पोषाक को ढीला और शालीन रखने का आदेश दिया गया.
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‘पथभ्रष्ट’ (या भटकी हुई) मुस्लिम लड़कियां

फैसले की तारीफ करते हुए प्राइमरी और सेंकेडरी एजुकेशन मिनिस्टर बी सी नागेश जो बीजेपी से जुड़े हैं, ने कहा ‘ हम रास्ते से भटकी हुई मुस्लिम लड़कियों का दिल जीतने की कोशिश करेंगे जो हिजाब पर पाबंदी के खिलाफ हैं. हम उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश करेंगे”

जाहिर है, अदालत के फैसले को ध्यान में रखते हुए ये नजरिया था, " किसी भी समुदाय में पर्दा, घूंघट या टोपी पहनने पर जोर दिया जाता है, जो कि किसी भी महिला और विशेष तौर पर मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी में रोड़ा डाल सकता है.

हालांकि कर्नाटक का हिजाब विरोधी विवाद भारत में मुस्लिम विरोधी भावना के खास संदर्भ में है. लेकिन हिजाब को "दमनकारी" स्टीरियोटाइप बताकर बहस करना कोई नई बात नहीं है. दुनिया भर में मुस्लिम महिलाओं को अपनी पसंद से कपड़े पहनने के लिए हिंसा का सामना करना पड़ा है, जिसे बाद में पितृसत्तात्मक पोशाकों के खिलाफ एक प्रगतिशील और वाजिब गुस्सा कहकर तर्कसगंत बनाया गया.

हालांकि बदलाव लाने वाली मुस्लिम महिलाएं अपनी पसंद की पोशाक को सशक्तिकरण और वैधता का प्रतीक मानती हैं. ये अनक्रिटिकल होना या बहुत सावधानी से चुनाव का मसला नहीं है बल्कि धार्मिक आदेशों के सम्मान की बात है. ये प्राथमिक तौर पर धार्मिक अधिकार की बात है जो कि उनकी आध्यात्मिक आजादी का हिस्सा है.

हाईकोर्ट के फैसले से पहले जो अंतरिम आदेश 25 फरवरी को आया था उसके बाद मुस्लिम महिलाओं के बुर्का, स्कार्फ हटाकर शैक्षणिक संस्थानों में एंट्री पर रोक वाली महिलाओं के वीडियो बहुत वायरल हुए.

“आज की दुनिया में” जैसे कि लिबरल लोग बोलते हैं, तमाम प्रगतिशील मूल्यों का बखान करते हैं, ये बहुत हैरानी वाला है कि युवा लड़कियों को पढ़ाई से मरहूम रखा जाता है ? अब ये पितृसत्तावाद नहीं है तो क्या है ? किसी भी लिहाज से देखें यहां तक कि लिबरल मॉडर्निटी के हिसाब से भी तो हिजाब को बैन करना जबरन थोपना और पीछे धकेलने वाला कदम है.”

पढ़ाई में मुस्लिम महिलाएं पहले ही बहुत पीछे हैं

कर्नाटक में हिजाब विवाद उडुपी के सरकारी कॉलेज से शुरू हुआ जहां लड़कियों को हिजाब से चेहरा ढंकने पर एंट्री नहीं दी गई. साल 2020 से जारी National Sample Survey (NSS) के मुताबिक मुस्लिम महिलाएं दूसरे समुदाय की महिलाओं की तुलना में काफी पीछे हैं. जहां मुस्लिम महिलाएं 68.8 फीसदी शिक्षित थीं तो वहीं हिंदू महिलाएं 70 फीसदी और ईसाई 82.2 फीसदी तक शिक्षित हैं

सरकारी बैन और घर पर सख्ती: कहां जाएं मुस्लिम महिलाएं ?

भारतीय मुसलमानों को अक्सर उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार बताया जाता है, फिर भी इस तरह का कानून दिखाता है कि परेशानी सिस्टैमिटिक है. नैरेटिव को अलग रख दें तो मुस्लिम महिलाओं की तरह दूसरी महिलाएं भी भारत में पितृसत्तावाद को झेलती हैं. कई महिलाएं हिजाब पहनने के लिए घरों में मजबूर की जाती है जहां पितृसत्तावाद का बोलबाला होता है. ऐसे घरों की बहुत सारी महिलाओं को स्कूल, कॉलेज जाने की इजाजत ही इस शर्त पर मिलती है कि उन्हें हिजाब पहनना होगा. इस तरह की पाबंदियां सिर्फ मुस्लिम महिलाओं में नहीं है बल्कि भारतीय संदर्भ में तो सभी समुदायों में है.

इस तरह के हालात में हिजाब महिलाओं को ‘पब्लिक स्फेयर’ में भागीदारी दिलाता है. अब अगर ये नहीं रहेगा तो मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा तक पहुंच ही खत्म हो जाएगी. इस तरह प्रगतिशील मूल्यों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने से मुस्लिम महिलाओं ने अब तक जो कुछ भी तरक्की हासिल की, वो सब खत्म हो जाएगी. ऐसे में जिन्होंने अपनी मर्जी से हिजाब पहननना चाहा उनको भी शिक्षा नहीं मिलेगी. अब उन्हें पढ़ाई के लिए किसी एक चीज की कुर्बानी का मुश्किल चुनाव करना पड़ेगा.

ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुस्लिम महिलाओं की आजादी और सेकुलर यूनिफॉर्म की जोरशोर से तारीफ के बीच सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही हैं जिनके पास अपनी मर्जी से रहने से कोई विकल्प नहीं होगा.

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Published: 17 Mar 2022,03:43 PM IST

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