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एक जैसा होना (यूनिफॉर्मिटी) ना तो बराबरी है और ना ही नुमाइंदगी वाला. इसे आदर्श भी नहीं बता सकते. सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता वाले देश में कोई भी यूनिफॉर्मिटी निश्चित ही बहुंसख्यकों की मान्यताओं और प्रथाओं को जबरदस्ती थोपने जैसा है. इसलिए, कोई भी "यूनिफॉर्म " चाहे वो शाब्दिक अर्थ में हो या फिर कानूनी, मुख्य रूप से वर्चस्वता (हेजेमनी) की नुमाइंदगी करता है , खासकर कम नुमाइंदगी वाले अल्पसंख्यकों की तो बिल्कुल कद्र नहीं करता.
इस नजरिए से, शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध जारी रखने का कर्नाटक हाईकोर्ट का हालिया फैसला न तो नीतिगत तौर पर और ना ही संवैधानिक रूप से सही लगता है. इस थोपी गई यूनिफॉर्मिटी और धार्मिक स्वतंत्रता में कटौती से भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सभी उम्मीदों को धराशायी कर दिया गया है इसके अलावा महिलाओं के मसले सुलझाने में जिस माइंड और मेथड की जरूरत होती है उसको भी पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है.
कोर्ट ने ये भी कहा है कि पवित्र कुरान मुस्लिम महिलाओं को हिजाब या स्कार्फ बांधने का आदेश नहीं देता है और निश्चित तौर पर इस तरह का ड्रेस पहनने का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है , भले ही इसका कुछ सांस्कृतिक संदर्भ हों. इससे पहले सुनवाई के दौरान उन्होंने पूछा था कि क्या कुरान में महिलाओं से ये अपेक्षा रखी गई है कि वो अपना सिर ढंककर रखें.
ये भी नजरअंदाजी है. कुरान बहुत स्पष्ट तौर पर मुस्लिम महिलाओं की पोषाक के लिए ‘खिमार’ शब्द का इस्तेमाल करता है. ‘खिमार ‘एक तरह से हेडकवर था जिसका इस्तेमाल पूर्व–इस्लामिक युग में होता है. इसके बाद कुरान में थोड़ा सुधार किया गया और गले तक को ढंकने के लिए कहा गया. इस्लाम में सभी कानूनी प्रावधान किए गए हैं चाहे स्वीकृति हो या सुधार या फिर विरोध, जिनमें वो संचालित होते हैं.
फैसले की तारीफ करते हुए प्राइमरी और सेंकेडरी एजुकेशन मिनिस्टर बी सी नागेश जो बीजेपी से जुड़े हैं, ने कहा ‘ हम रास्ते से भटकी हुई मुस्लिम लड़कियों का दिल जीतने की कोशिश करेंगे जो हिजाब पर पाबंदी के खिलाफ हैं. हम उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश करेंगे”
जाहिर है, अदालत के फैसले को ध्यान में रखते हुए ये नजरिया था, " किसी भी समुदाय में पर्दा, घूंघट या टोपी पहनने पर जोर दिया जाता है, जो कि किसी भी महिला और विशेष तौर पर मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी में रोड़ा डाल सकता है.
हालांकि कर्नाटक का हिजाब विरोधी विवाद भारत में मुस्लिम विरोधी भावना के खास संदर्भ में है. लेकिन हिजाब को "दमनकारी" स्टीरियोटाइप बताकर बहस करना कोई नई बात नहीं है. दुनिया भर में मुस्लिम महिलाओं को अपनी पसंद से कपड़े पहनने के लिए हिंसा का सामना करना पड़ा है, जिसे बाद में पितृसत्तात्मक पोशाकों के खिलाफ एक प्रगतिशील और वाजिब गुस्सा कहकर तर्कसगंत बनाया गया.
हाईकोर्ट के फैसले से पहले जो अंतरिम आदेश 25 फरवरी को आया था उसके बाद मुस्लिम महिलाओं के बुर्का, स्कार्फ हटाकर शैक्षणिक संस्थानों में एंट्री पर रोक वाली महिलाओं के वीडियो बहुत वायरल हुए.
कर्नाटक में हिजाब विवाद उडुपी के सरकारी कॉलेज से शुरू हुआ जहां लड़कियों को हिजाब से चेहरा ढंकने पर एंट्री नहीं दी गई. साल 2020 से जारी National Sample Survey (NSS) के मुताबिक मुस्लिम महिलाएं दूसरे समुदाय की महिलाओं की तुलना में काफी पीछे हैं. जहां मुस्लिम महिलाएं 68.8 फीसदी शिक्षित थीं तो वहीं हिंदू महिलाएं 70 फीसदी और ईसाई 82.2 फीसदी तक शिक्षित हैं
भारतीय मुसलमानों को अक्सर उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार बताया जाता है, फिर भी इस तरह का कानून दिखाता है कि परेशानी सिस्टैमिटिक है. नैरेटिव को अलग रख दें तो मुस्लिम महिलाओं की तरह दूसरी महिलाएं भी भारत में पितृसत्तावाद को झेलती हैं. कई महिलाएं हिजाब पहनने के लिए घरों में मजबूर की जाती है जहां पितृसत्तावाद का बोलबाला होता है. ऐसे घरों की बहुत सारी महिलाओं को स्कूल, कॉलेज जाने की इजाजत ही इस शर्त पर मिलती है कि उन्हें हिजाब पहनना होगा. इस तरह की पाबंदियां सिर्फ मुस्लिम महिलाओं में नहीं है बल्कि भारतीय संदर्भ में तो सभी समुदायों में है.
ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुस्लिम महिलाओं की आजादी और सेकुलर यूनिफॉर्म की जोरशोर से तारीफ के बीच सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही हैं जिनके पास अपनी मर्जी से रहने से कोई विकल्प नहीं होगा.
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