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हिंदुस्तान होली (Holi) का जश्न मना रहा है. रंगों के इस खास त्योहार में पूरा देश सराबोर है. हर तरफ गुलाल और अबीर की महक आ रही है, जो काबिल-ए-गौर है. और ऐसी चीजें जो गौर करने लायक हों और साहित्य व अदबी दुनिया की नजर ना पड़े...ये नामुमकिन सा है. साहित्य और अदबी दुनिया की कई शख्सियतों ने होली के जश्न को अपने कलाम का हिस्सा बनाया और ऐसे शानदार शेर लिखे, जो रंगों में बिल्कुल सराबोर नजर आते हैं.
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से ताल्लुक रखने वाले शायर जूलियस नहीफ देहलवी लिखते हैं.
हम से नज़र मिलाइए होली का रोज़ है,
तीर-ए-नज़र चलाइए होली का रोज़ है.
संजीदा क्यूं हुए मेरी सूरत को देख कर,
सौ बार मुस्कुराइए होली का रोज़ है.
बच्चे गली में बैठे हैं पिचकारियां लिए,
बच-बच के आप जाइए होली का रोज़ है.
उर्दू शायर फराग रोहवी ने होली के लिए एक बहोत प्यारी सी नज्म लिखी, जिसमें वो होली के दिन बने पूरे माहौल की बात करते हैं और आख़िरी हिस्से में गोकुल को याद करते हैं. फराग साहब लिखते हैं...
क्या ख़ूब आई होली
मस्तों की निकली टोली
क्या ख़ुश-गवार दिन है
इक पुर-बहार दिन है
उड़ता गुलाल देखो
चेहरे हैं लाल देखो
पिचकारियों के धारे
ख़ुश-रंग हैं नज़ारे
जज़्बों की वो ख़ुशी है
रंगों में जो छुपी है
रंगों से तर बदन है
रंगीन पैरहन है
सब नाच-गा रहे हैं
ऊधम मचा रहे हैं
गलियों में घूमते हैं
मस्ती में झूमते हैं
सब टूट कर हैं मिलते
यूं मिल के सब ही खिलते
दूरी न फ़ासला है
होली में सब रवा है
नीला हरा गुलाबी
रंग आज उड़ाती भाबी
'राहुल' 'किशोर' 'गोपी'
खेलेंगे हम से होली
घर में बनाए सब ने
पकवान मीठे मीठे
तेहवार है निराला
उल्फ़त में सब को ढाला
होली ने आ के फिर दी
ता'लीम एकता की
रुत क्या 'फ़राग़' छाई
गोकुल की याद आई
अलीगढ़ के उर्दू शायर सागर निजामी, जो देशभक्ति से प्रेरित नज्मों के लिए पहचाने जाते हैं. वो होली को हक की सवारी करार देते हुए लिखते हैं...
फ़स्ल-ए-बहार आई है होली के रूप में
सोला-सिंघार लाई है होली के रूप में
राहें पटी हुई हैं अबीर-ओ-गुलाल से
हक़ की सवारी आई है होली के रूप में
हिंदी के मशहूर लेखक और कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं...
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में,
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में.
उत्तर प्रदेश के अमरोहा से ताल्लुक रखने वाले उर्दू शायर नासिर अमरोहवी लिखते हैं...
तेरे गालों पे जब गुलाल लगा,
ये जहां मुझ को लाल लाल लगा.
मुंह पर नक़ाब-ए-ज़र्द हर इक ज़ुल्फ़ पर गुलाल,
होली की शाम ही तो सहर है बसंत की.
नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले 18वीं सदी के बड़े शायरों में शामिल मुसहफी गुलाम हमदानी होली पर लिखते हैं...
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के,
हम से तुम कुछ मांगने आओ बहाने फाग के.
उर्दू शायरी की विधा 'रेख्ती' के लिए मशहूर शायर रंगीन सआदत यार खां, जिनके नाम में ही रंगों की मिलावट नजर आती है. वो लिखते हैं...
बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल,
कुछ किसी का नहीं किसी को ख़याल.
उर्दू शायर शैख़ जहूरुद्दीन हातिम अपने एक शेर में लिखते हैं...
मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली,
उठो यारो भरो रंगों से झोली.
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