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मुसलमाँ और हिन्दू की जान,
कहाँ है मेरा हिन्दोस्तान.
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ.
एक शायर जो अपनी पूरी उम्र अपने पुराने हिंदुस्तान की याद में तड़पता रहा और अपना 'पूरा-पूरा हिंदुस्तान' ढूंढ़ता रहा. वो शायर जिसको एपीजे अब्दुल कलाम (APJ Abdul Kalam) ने राष्ट्रपति भवन में बुलाकर सुना. वो कलमकार जिसने अपने गांव के थाने में मौजूद पुलिसवालों को डाकू बताया और पीएम नेहरू (Pt Nehru) से तहकीकात करवाने की अपील की. आज हम आपको एक ऐसे अदीब से मिलवाएंगे, जिसको मारा गया, उसके होंठ काटे लेकिन फिर भी उसकी कलम खामोश नहीं हुई. हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के सुल्तानपुर से ताल्लुक रखने वाले शायर अजमल सुल्तानपुरी (Ajmal Sultanpuri) के बारे में.
अजमल सुल्तानपुरी साहब की पैदाइश साल 1926 में सुल्तानपुर (Sultanpur) के हरखपुर गांव में हुई थी. उनका पूरा नाम मिर्जा मोहम्मद अजमल बेग था. छोटी उम्र में ही वालिद का इंतकाल होने की वजह से जल्दी ही उन पर जिम्मेदारियां आ गईं, जिसका दर्द उनकी शायरी में बखूबी नजर आता है.
मैं हूं तन्हा उधर ज़माना है,
ये मेरा मुख़्तसर फ़साना है.
आसमां कब किसी पर टूट पड़े,
बेसुतूं जब से शामियाना है.
या ख़ुदा ख़ैर हो मेरे दिल की,
दुश्मन-ए-ज़ां से दोस्ताना है.
चार तिनकों का आशियां,
कब उजड़ जाए क्या ठिकाना है.
हैदराबाद यूनिवर्सिटी (Hyderabad University) में उर्दू रिसर्च स्कॉलर कफील अहमद क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि अजमल साहब घर की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए इलाहाबाद (Allahabad) के एक बीड़ी कारखाने में काम करने लगे. वहां पर रहते हुए वो बीड़ी के पत्तों और दीवारों पर शेर लिखकर रखा करते थे, वो कहते थे कि मेरी शायरी कुदरत की तरफ से अता की गई एक नेमत है.
शायर हबीब अजमली (Habeeb Ajmali) क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि अजमल साहब सुल्तानपुर के जिस इलाके से ताल्लुक रखते थे वहां आए दिन लूट-मार, कत्ल और डकैती की वारदातें होती रहती थीं. अजमल साहब हमेशा ऐसे लोगों के खिलाफ खड़े नजर आते थे. इससे नाराज होकर गांव के उन लोगों ने अजमल साहब के खिलाफ साजिश रची और गांव के कुंए पर पानी लेने की पहुंच भी बंद हो गई.
जब कोई रास्ता नहीं नजर आया तो अजमल साहब ने 'सुल्तानपुर समाचार पत्र' में फरियाद उन्वान से एक नज्म छपवाई, जिसमें उन्होंने उस वक्त के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से भ्रष्ट पुलिस की शिकायत करते हुए मदद की गुहार लगाई.
सुना होगा ज़िला सुल्तानपुर एक ऐसी बस्ती है,
जहां पर ज़िंदगी मंहगी है लेकिन मौत सस्ती है.
जहां पुलिस मज़लूमों की फ़रियादों पे हंसती है.
जहां पर आम जनता सांस लेने को तरसती है.
वो थाना जिसमें पैसे की भवानी सर हिलाती है,
वो काली जो ज़बां पे खून-ए-खंजर चाट जाती है.
वो थाना कोतवाल जिसमें थानेदार डाकू हैं,
पुलिस के भेष में चंगेज खां हैं और हलाकू हैं.
उसी बस्ती के एक मौज़े में है मज़लूम का घर भी,
अगर घर जाए तो मजरूब हो जाने का है डर भी.
यज़ीदी ज़ालिमों ने कर दिया है बंद पानी तक
मिटाना चाहते हैं इब्ने आबिद की निशानी तक
गुज़ारिश है अराकीने हुक़ूमत से गुज़ारिश है
जवाहर लाल नेहरू की वज़ारत से गुजारिश है
कि तफ़सीलाते मज़कूरह की तहक़ीकात की जाए
कि एक मज़लूम जो फरियाद करता है सुनी जाए.
एक बार अजमल साहब कहीं जा रहे थे. रास्ते में कुछ लोगों ने मिलकर उन पर हमला कर दिया और उन्हें मरा समझ छोड़कर चले गए. इसके बाद उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया और उनका इलाज हुआ. इस हादसे के बाद उन्होंने वो इलाका छोड़ दिया और अपने परिवार के साथ थोड़ी दूर पर स्थित खैराबाद में रहने लगे.
उर्दू रिसर्च स्कॉलर कफील अहमद बताते हैं कि इस वारदात को अंजाम देने वालों ने अजमल साहब के नाक और होंठ काट दिए थे.
अजमल साहब को पुराना हिंदुस्तान बहुत याद आता था. वो हिंदुस्तान जब ना तो पाकिस्तान था और ना ही बंगलादेश. वो जिदगी भर अपने उस हिंदुस्तान को ढूंढ़ते रहे, जो उन्हें कभी मिल नहीं सका और मिलता भी कैसे, आज भी लोग उस हिंदुस्तान को ढूढ़ते फिरते हैं लेकिन अफसोस अब वो नहीं मिल सकता. अजमल साहब अपनी नज्म में लिखते हैं.......
मुसलमाँ और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मिरे बचपन का हिन्दोस्तान
न बंगलादेश न पाकिस्तान
मेरी आशा मिरा अरमान
वो पूरा-पूरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ.
जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम
जहाँ की शाम सलोनी शाम
जहाँ की सुब्ह बनारस धाम
जहाँ भगवान करें अश्नान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो मेरे पुरखों की जागीर
कराची लाहौर ओ कश्मीर
वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर
वो पूरा पूरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
ये पागलपन ये मजहबी जुनून,
आग ही आग, ख़ून ही ख़ून
कहां इंसाफ़ कहां क़ानून
कहां है पत्थर का भगवान
मैं उसको ढूंढ रहा हूं.
रिसर्च स्कॉलर कफील अहमद कहते हैं कि अजमल साहब की इस गजल से राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम साहब बेहद प्रभावित हुए. इसके बाद उन्होंने अजमल साहब को राष्ट्रपति भवन में बुलाया और उनकी ज़ुबान में सामने से ये ग़ज़ल सुनी.
अजमल साहब अपनी गजलों और नज्मों को महबूब मानते थे. उन्होंने इस हवाले से एक नज्म भी लिखी जो इस तरह है.
मैं तेरा शाहजहाँ तू मेरी मुमताज महल
आ तुझे प्यार की अनमोल निशानी दे दूँ
हाय ये नाज़ ये अंदाज़ ये ग़मजां ये गुरूर
इसने पामाल किए कितने शहंशाहों के ताज
नीमबाज़ आँखों में ये कैफ़ ये मस्ती ये शूरुर
पेश करते हैं जिसे अहले नज़र दिल का खिराज
ये तबस्सुम ये तकल्लुम ये सलीका ये शऊर
शोख़ संजीदा है या दार हँसी सादामिजाज़
आ तेरे वास्ते तामील करूँ ताजमहल
आ तुझे प्यार की अनमोल निशानी दे दूँ
मैं तेरा शाहजहाँ तू मेरी मुमताज महल
मै तेरा क़ैस, तू लैला-ए-शबिस्तान-ए-जमाल
मै तेरा वामिक़-ए-जाँसोज़, तू अज़रा-ए-ज़मां- (मोहब्बत में तपिश- जाँसोज़)
तू मेरी शीरी सुख़नी (मीठा बोलने वाली), मैं तेरा फ़रहाद-ए-ख़याल
ख़द-ओ-ख़ालो, रूख़ो-गेसू की नहीं कोई मिसाल
मैं शहंशाह-ए-जहांगीर हूं, तू नूर जहां
ऐ मेरे गीत की जां, ऐ मेरी महबूब ग़ज़ल
आ तुझे प्यार की अनमोल निशानी दे दूं.
एक दूसरी नज्म में वो लिखते हैं...
ग़ज़ल मेरी महबूब गीत से प्यार मुझे है
क़लमकार हूं मज़मूं पर अधिकार मुझे है
इक़लाब
मैं गीतकार हूं.
मेरी हक़गोई, सूली पर चढ़कर देखो
खुली हुई पुस्तक हूं मुझको पढ़कर देखो
मैं एक तारीख़ी किताब, तफ़्सीलवार हूं
मैं गीतकार हूं.
का ख़ालिक़ हूं परवरदिगार हूं
शायर साहिर लुधियानवी ने ताजमहल पर एक गजल लिखी, जिसमें वो लिखते हैं...
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
अजमल साहब लिखते हैं...
मेरे महबूब यहीं रोज़ मिला कर मुझसे
ताज में सैकड़ों मजदूरों ने मेहनत की थी
कौन कहता है वो मज़दूरी नहीं पाते थे
लेकिन उनमें कोई बाग़ी-सिफ़त इंसान नहीं
जो किसी शाह का क्या ज़िक्र, ख़ुदा से भी लड़े
हम ग़रीबों के मक़ाबिर हैं अभी तक महफ़ूज
जिसमें जलती है सदा शम्स-ओ-क़मर की तंदील (दीप)
ये इमारत, ये अजूबा क्या ये महल
इससे इस मुल्क के मेयार का ऊंचा है मज़ाक (चाहत)
एक क़लमकार ने शोहरत का सहारा लेकर
एक शहंशाह की उल्फ़त का उड़ाया है मज़ाक
बह के मोती जो न जमुना के किनारे लगता,
जाने किस बहर में सैलाब बहा ले जाते.
यही दौलत जो तिजोरी में मुक़फ्फ़िल होती,
'अजमल' इस मुल्क से अंग्रेज़ उठा ले जाते.
अजमल साहब ने उर्दू में शायरी करने के अलावा अवधी में नज्में और हिंदी में दोहा भी लिखा. वो अपने एक दोहे में लिखते हैं...
ना सुख पाए गाइ के, ना सुख पाए रोय,
जो सुख बचपन में मिला, लोय लगनिया लोय.
इसके अलावा उनके अवधी कलाम इस तरह हैं...
चिघिर पड़ी मोरी जोन्हरी की बाली
तीत करइला फुलान
महर-महर महकै बंदेला
घर में मचा अरघान (गूंज)
सखी सावन बीत न जाए
सजन घर आए नहीं
कुछ भाए नहीं.
पानी की मशक, सूंड़ मा बांधे
हाथी चलै हवा के कांधे
- बादल
पियर पिलोरी, उज्जर मुर्गा
जब गहना पहिरै, तब उर गा
- चंद्र ग्रहण
काजी का बिटिया का बिट्टन नाम,
छेद छेदाए भईं बदनाम.
- काज, बटन
अजमल सुल्तानपुरी साहब उर्दू ज़ुबान से बहुत मोहब्बत करते थे और इस मुल्क उर्दू को लेकर उन्होंने बहुत उम्मीदें भी बांध रखी थीं. अजमल साहब ने कहा था कि मै जाती तौर पर इस मुल्क में उर्दू के मुस्तकबिल से कतई मायूस नहीं, मेरा यकीन है कि ये जुबान यहां फलती-फूलती रहेगी और साथ ही इसके अदब को भी मजीद फरोग हासिल होगा. उर्दू इतनी आसानी से खत्म हो जाने वाली जुबान नहीं, उसकी परवरिश में हमारे बुज़ुर्गों का एजाज और शहीदों का लहू शामिल है.
कोई ताक़त इसे पामाल नहीं कर सकती,
ये शहीदों की ज़ुबां है, ये नहीं मर सकती.
अजमल सुल्तानपुरी साहब के शानदार काम को देखते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी की ओर से लाइफ टाइम अचीवमेंट एवार्ड से नवाजा गया. वो दुबई, सऊदी जैसे दुनिया के कई मुल्कों के मुशायरों में शिरकत करने गए लेकिन उन्होंने पाकिस्तान का ऑफर ठुकरा दिया. उनके पास जब पाकिस्तान से मुशायरे में शिरकत करने के लिए बुलावा आया तो उन्होंने कहा कि जब पाकिस्तान हमसे अलग हो गया, तो मैं वहां कैसे जा सकता हूं.
किससे करूं इज़हार गीत मेरा कौन सुने,
हर इंसां है अपने दिल में अपना दर्द छुपाए.
कौन किसे हमदर्द समझकर अपना ज़ख़्म दिखाए,
चुभते हैं हालात के ख़ंजर ज़ख़्मी है संसार.
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