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"हमसे मोहब्बत करने वाले रोते ही रह जाएंगे
हम जो किसी दिन सोए तो फिर सोते ही रह जाएंगे"
"जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जाएंगे हम
ऐ ज़मीं इक दिन तेरी ख़ूराक हो जाएंगे हम"
"मैं अपने आप को इतना समेट सकता हूं,
कहीं भी क़ब्र बना दो मैं लेट सकता हूं"
मुनव्वर राना...एक ऐसे शायर जिनको उर्दू अदब में दिलचस्पी रखने वाली दुनिया ने अपनी पलकों पर बैठाकर सुना. उनका नाम उर्दू अदब के फलक पर ध्रुव तारे की तरह हमेशा चमकेगा लेकिन उन्होंने सामईन के सामने अपने एक शेर के जरिए ये भी कहा था कि "मैं दूर तक फैले अपने दायरे को खुद समेट भी सकता हूं." और आखिर, एक बेबाक कलम के मालिक मुनव्वर राना साहब (Munawwar Rana) ने खुद को समेट लिया और ऐसा समेटा कि दुनिया उन्हें रोकने की कोशिश भी नहीं कर सकी. 14 जनवरी की देर शाम लखनऊ की एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली.
"मेरी मुट्ठी से ये बालू सरक जाने को कहती है
कि अब ये जिंदगी मुझसे भी थक जाने को कहती है
जिसे हम ओढ़कर निकले थे आग़ाज़-ए-जवानी में
वो चादर जिंदगी की अब मसक जाने को कहती है"
- मुनव्वर राना
मुनव्वर राना के निधन के बाद उर्दू शायर मारूफ रायबरेलवी, क्विंट हिंदी से बात करते हुए राना साहब को उन्हीं का एक शेर पढ़कर याद करते हैं...
बड़े बड़ों को बिगाड़ा है हमने ऐ राना!
हमारे लहजे में उस्ताद शेर कहने लगे
मुनव्वर राना को याद करते हुए शायर मारूफ रायबरेलवी कहते हैं कि
उर्दू शायर और फिल्म गीतकार शकील आज़मी, क्विंट हिंदी से बातचीत में कहते हैं कि मुनव्वर राना साहब शायर होने के अलावा एक कामयाब बिजनेसमेन थे, उनका ट्रांसपोर्ट का बिजनेस था. उन्होंने नाटक में रोल भी प्ले किया था. जब वो शायरी और मंच की दुनिया में आए, तो मुशायरे और कवि सम्मेलन में बहुत नाम पैदा किया. वो गद्य और पद्य दोनों लिखते थे.
शकील आजमी बताते हैं कि मैं मुनव्वर राना साहब के साथ में देश और विदेश का काफी सफर किया और कई बार मंच शेयर किया. राना साहब के रख-रखाव और काले लिबास (काला कुर्ता और सदरी) की वजह से करीबी लोग प्यार से उन्हें बाबा भी पुकारते थे.
कहते हैं कि एक अच्छा आर्टिस्ट वही होता है, जो सामईन यानी ऑडिएंस के दिल की बात पढ़कर उसके मौजूदा हालातों, ख्वाबों, बातों और खयालात की तर्जुमानी कर दे और ये सब मुनव्वर राना के कलाम में बखूबी झलकता था.
जब मुनव्वर राना, लोगों के दिल की गहराई तक उतरने वाले कलाम सुनाते थे, तो शायरी के साथ खुद को भी पूरी तरह से जनता के हवाले कर देते थे. शेर की लहन में कभी वो अपना सीना ठोंकते और कभी जुनूंन में आकर अपनी जांघों पर हाथ पटकने लगते. उनका ये अंदाज देखकर, ऐसा लगता था जैसे कोई बादशाह सिंहासन पर बैठकर 'वक्त' से आंख मिलाकर ललकार रहा हो और कह रहा हो- "होगी तुममें ताकत एक दौर को बदल देने की लेकिन हमारी कलम में भी ताकत है, सामने बैठी जनता को झकझोरने, उसके दर्द की तर्जुमानी करने, उसके ख्वाबों को पंख देने, उसके गम को कम करने और हक बात को बेबाकी के साथ कह देने की."
मुरादाबाद से ताल्लुक रखने वाले उर्दू शायर मंसूर उस्मानी, क्विंट हिंदी के साथ बातचीत में कहते हैं कि मुनव्वर राना का दुनिया से जाना, इस दौर के एक बड़े शायर का जाना है, यह अदब और अवाम दोनों का नुकसान है.
उन्होंने आगे कहा कि मुनव्वर भाई दुनिया से चले गए लेकिन अपनी शायरी में हमेशा जिंदा रहेंगे, मैं उन्हें अपना दिली खिराज-ए-अकीदत पेश करता हूं.
मुनव्वर राना साहब ने शायरी कहने का एक अलग रास्ता चुना. उनका कहना था कि "मां सिर्फ महसूस करने की चीज है, मां कभी कुछ कहती नहीं है, अगर आप मां को महसूस नहीं कर सकते, तो आप बेटे नहीं हुए."
शायर मंसूर उस्मानी क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि मुनव्वर राना एक ऐसे शायर थे, जिन्होंने मां जैसे मुकद्दस रिश्ते को बार-बार अपनी शायरी का मौजू बनाकर दुनिया को मां की अहमियत बताई.
'मां' उन्वान पर मुनव्वर राना साहब की कलम से निकले कुछ कलाम इस तरह हैं...
मुनव्वर राना के द्वारा मां पर लिखी शायरी
मुनव्वर राना के द्वारा मां पर लिखी शायरी
मुनव्वर राना के द्वारा मां पर लिखी शायरी
मुनव्वर राना के द्वारा मां पर लिखी शायरी
मुनव्वर राना ने मां पर लिखने के अलावा इश्क पर भी लिखा, जो शायरी का कभी ना अलग होने वाला मौजू है. लेकिन इसके साथ ही उन्होंने समाज के हाशिए पर खड़े लोगों और मुश्किल हालात में जिंदगी गुजारने वाले के लिए भी अपनी कलम चलाई और उनके दर्द को बयान किया. उन्होंने बड़े ही बेबाक अंजाद में गांव और शहर के ऐसे-ऐसे कड़वे सच बयान किए, जो अमूमन अदबी लोग नहीं कर पाते हैं.
मुनव्वर राना ने हर मुमकिन मौकों पर अपनी शायरी के जरिए सरकारों के सामने सवाल खड़ा किया और सत्ता की आंख में आंख मिलाकर बात की.
अना यानी स्वाभिमान हर शख्स के लिए बहुत अहमियत रखती है लेकिन जब लोगों को इसकी परवाह नहीं रहती है और इसके बदले किसी और चीज की चाहत होने लगती है, तो व्यक्तित्व के बड़े हिस्से को भारी नुकसान होता है.
इसी फैक्ट को मुनव्वर राना अपनी शायरी का हिस्सा बनाते हुए राजनीतिक दुनिया पर बड़े ही बेहतरीन ढंग से कटाक्ष करते हुए नजर आते हैं...
मुनव्वर राना की शायरी से सामाजिक बंधुत्व और हिंदू-मुस्लिम एकता की भी महक आती है, जो हिंदुस्तान की एक पहचान है. उनके द्वारा मां पर लिखी गई शायरी तो सामाजिक दायरों को तोड़ती हुई सुनी ही गई लेकिन उन्होंने कुछ ऐसे शेर भी लिखे, जो सामाजिक सौहार्द को सींचने का काम करते हैं.
मुनव्वर राना उर्दू जबान के शायर थे, लेकिन उन्हें हिंदी के मंचों पर भी देखा और सुना गया. उन्होंने अपने दौर के हिंदी कवियों के साथ ठहाके लगाए, शायरियां पढ़ीं और स्टेज शेयर किए. उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएं हैं, दोनों की अपनी अगल तहजीब है लेकिन मुनव्वर राना ने इन दोनों भाषाओं को एक-दूसरे की सगी बहन बताया और कहा कि इन दोनों बहनों का रिश्ता ऐसा है, जो दुनिया में कहीं भी दो जिंदा ज़बानों में देखने को नहीं मिलता है. उनका मानना था कि दोनों भाषाएं एक-दूसरे के बगैर अधूरी हैं. वो अपने एक शेर में कहते हैं...
"लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है"
"सगी बहनों का जो रिश्ता है उर्दू और हिन्दी में
कहीं दुनिया की दो ज़िंदा ज़बानों में नहीं मिलता"
- मुनव्वर राना
मुनव्वर राना साहब को उनकी एक उर्दू भाषा की रचना 'शाहदाबा' के लिए साल 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इससे पहले 2012 में उर्दू साहित्य में अहम योगदान के लिए उनको शहीद शोध संस्थान की तरफ से 'माटी रतन सम्मान' से नवाजा गया था.
मुनव्वर राना ने साल 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी और इस दौरान उन्होंने अपनी एक किताब भी प्रधानमंत्री को भेंट की थी.. उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद अपने सोशल मीडिया पोस्ट में कहा था कि मोदी जी आपसे मिलकर अच्छा लगा, आपने हमारी बातें सुनी.
इस दौरान उन्होंने एक शेर भी कहा था, जो इस तरह है...
"मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूं,
मैं बातें भूल भी जाऊं तो लहजे याद रखता हूं."
मुनव्व राना साहब को दुनिया अब कभी लाइव नहीं सुन पाएगी, अब वो सिर्फ यादों में ही रह गए हैं लेकिन उनकी कलम से निकली गजलें उनके होने का एहसास देती रहेंगी.
"मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूं उसी शान से जाऊं
हर शब्द महकने लगे लिक्खा हुआ मेरा
मैं लिपटा हुआ यादों के लोहबान से जाऊं"
"मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को कहीं ताज-महल में नहीं रक्खा
मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गई"
- मुनव्वर राना
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Published: 15 Jan 2024,07:35 AM IST