advertisement
लेखक नवीन जोशी की कहानी भी शेखर जोशी से बहुत हद तक मिलती जुलती है. दिवंगत शेखर जोशी पलायन कर सालों पहले उत्तर प्रदेश के पहाड़ों (अब उत्तराखंड के पहाड़ों) से मैदानी राज्य राजस्थान पहुंच कर लेखक बने थे तो वैसे ही नवीन जोशी भी पहाड़ों से लखनऊ पहुंचे थे. नवीन जोशी में अपने गांव छूटने का दर्द हमेशा जिंदा रहा और उसी दर्द ने उन्हें लेखक बना दिया.पढ़ने की संस्कृति खत्म हो रही है और इस दौर में एक लेखक के बनने की यात्रा के साथ वर्तमान समय में लेखकों के सामने खड़ी नई चुनौतियों के बारे में पढ़ना और भी जरूरी बन जाता है.
लेखक नवीन जोशी हिंदी साहित्य जगत का परिचित नाम हैं. अखबारों में लिखते हुए साहित्य रचना शुरू करने वाले नवीन जोशी आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान, राजेश्वर प्रसाद सिंह कथा सम्मान, गिर्दा स्मृति सम्मान समेत कुछ अन्य सम्मानों से सम्मानित हैं. उत्तराखंड में गणाई-गंगोली के रैंतोली गांव के मूल निवासी नवीन जोशी से उनके अंदर के लेखक की कहानी पूछने पर वे अपने बचपन को याद करते हैं- गांव से प्राथमिक विद्यालय दूर था जिस कारण वो विद्यालय नहीं भेजे गए. लखनऊ में काम करने वाले उनके पिताजी पढ़ाने के लिए छह-सात साल की उम्र में उन्हें अपने साथ ले गए. उनकी मां गांव में ही थी. नवीन जोशी कहते हैं कि तब ऐसा ही होता था, घर के पुरूष पढ़ाई और रोजगार के लिए घर से दूर चले जाते थे और महिलाएं गांव-घर संभालने के लिए घर पर ही रहती थीं.
नवीन जोशी ने कक्षा तीन से लखनऊ में अपनी पढ़ाई की शुरुआत की, जहां उन्हें अपने गांव की बहुत याद आती थी. पिता दिन में अपनी नौकरी पर निकल जाते थे तो वो घर में अकेले रह जाते. नवीन बताते हैं- तब मैं रोते हुए मां को और अपने गांव के बिछड़े दोस्तों को चिट्ठी लिखता था. उन्होंने एक डायरी में भी पहाड़ की यादों को लिखना शुरू कर दिया था, इसी से उनका लिखने का सिलसिला शुरू हुआ.
लखनऊ के जिस इलाके में नवीन रहते थे वहां पहाड़ी लोग बहुत थे. उत्तराखंड के गांवों से आए ये लोग अपने बेटे, भाई, भतीजों को भी शिक्षा अथवा नौकरी के लिए गांव से लाकर अपने साथ रखते थे, लखनऊ के कई लोग वहां अपने घरों के लिए पहाड़ी नौकर, ड्राइवर, वगैरह भी ढूंढने आया करते थे.
नवीन को धीरे धीरे अखबार पढ़ने का शौक लग गया था. वो कहते हैं कि मैंने आठवीं कक्षा में पहाड़ पर एक लेख लिखकर 'स्वतंत्र भारत' अखबार के लिए भेजा था. उस लेख में उन्होंने पाठकों को संबोधित करते हुए लिखा था कि, तुम गर्मियों की छुट्टी में पहाड़ जा रहे हो. तुम्हें पहाड़ बुला रहे हैं, लेकिन तुम वहां की सुंदरता के साथ वहां का दर्द भी देखना, तुम ये देखना कि कैसे वहां औरतें घर का काम करती हैं, खतरनाक पहाड़ियों से घास काटती हैं. तुम ये भी देखकर आना कि वहां के लड़के शहरों में जाकर होटलों में झाड़ू लगाते हैं और बर्तन मलते हैं. उनका ये लेख ‘स्वतन्त्र भारत’ में छप गया, जिससे उन्हें आगे लिखने का हौंसला मिला.
धीरे-धीरे नवीन जोशी की सामाजिक समझ बढ़ी और हाईस्कूल में पहली डिवीजन आने पर मोहल्ले में उनका बड़ा नाम हुआ. इस बीच भविष्य में बड़ा नाम बनने जा रहे शेखर पाठक भी अल्मोड़ा से बीए करने के बाद नौकरी की तलाश में लखनऊ पहुंचे थे. शेखर पाठक पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने लगे और संयोग से नवीन जोशी के मुहल्ले में ही रहने के लिए आ गए.
नवीन जोशी कहते हैं कि जब मैं शेखर पाठक से मिला तो वह ‘दिनमान’ व अन्य पत्रिकाएं पढ़ते थे, कहानी लिखते थे. मैं भी उनके साथ सुबह शाम बैठने लगा, दिनमान पढ़ने लगा और कहानियां लिख कर उन्हें दिखाने लगा. शेखर पाठक की संगत से नवीन जोशी को समाज के बारे में नई समझ बनी, उनका दायरा बढ़ा. कुछ समय बाद शेखर पाठक उच्च शिक्षा के लिए वापस अल्मोड़ा चले गए. लेकिन तब तक शेखर पाठक के माध्यम से नवीन जोशी आकाशवाणी लखनऊ से जुड़ गए थे. वहां बंसीधर पाठक 'जिज्ञासु' की संगत में रहने से नवीन की कुमाऊंनी बोली की कविताएं और कहानी, आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे.
आकाशवाणी में उन्हें अपने जैसे कई जोशीले पहाड़ी युवा और वरिष्ठ रचनाकार मिले. अपनी किताब 'ये चिराग जल रहे हैं' में उन्होंने इन्हीं रचनाकारों-कलाकारों के संस्मरण लिखे हैं.
अब नवीन जोशी का अखबारों में लिखना भी बढ़ता जा रहा था. उनकी कहानियां अखबारों द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थीं. ग्रेजुएशन करते नवीन को 'स्वतन्त्र भारत' अखबार से नौकरी करने का प्रस्ताव मिला. पढ़ाई पूरी करने के बाद उनका पहाड़ वापस लौटने का इरादा था पर वो पत्रकारिता में रम गए. उन्हें लगने लगा था कि पत्रकारिता से समाज में बदलाव लाया जा सकता है. इस कारण उन्होंने पहाड़ लौटने का अपना इरादा त्याग दिया था और पूरी तरह पत्रकारिता में रम गए. अखबार में नौकरी करते हुए नवीन ने काफी यात्राएं कीं, देश-दुनिया के अखबार पढ़े. इन सब से उनका सोचने-समझने का दायरा और भी बढ़ता गया.
वो पहाड़ लौट तो नहीं पाए लेकिन पहाड़ के लोगों से उनका लगातार संपर्क बना रहा. शेखर पाठक की वजह से वह राजीव लोचन साह, शमशेर सिंह बिष्ट, गिर्दा, आदि से जुड़े. साल 1977 में 'नैनीताल समाचार' की बिल्कुल शुरुआत से ही उनका कॉलम 'एक प्रवासी पहाड़ी की डायरी' भी प्रकाशित होने लगा. साल 1984 में उन्होंने देवेन मेवाड़ी के साथ करीब पंद्रह दिन ‘अस्कोट आराकोट यात्रा’ के एक उप-मार्ग में हिस्सेदारी की, जिसमें वो गढ़वाल और कुमाऊं के कई गांवों तक पैदल गए और उन्होंने पहाड़ को करीब से देखा. उन दिनों को याद करते हुए नवीन जोशी कहते हैं कि आन्दोलनों में शामिल होने के लिए मैं लखनऊ से पहाड़ों में पहुंच जाता था. वो 'नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन में शामिल भी रहे.
पहाड़ के हालात पर उनके मन में साल 1990 में पहली बार 'दावानल' उपन्यास लिखने का विचार आया पर अभी उस विचार को कलम का साथ मिलने का वक्त नहीं आया था.
वो राजेंद्र माथुर के संपादन वाले नवभारत टाइम्स अखबार में काम करने लगे. इस दौरान नवीन जोशी का कहानियों और कविताओं को लिखने का सिलसिला बढ़ते गया.
मुझे लगता था ये खबर यहीं खत्म नहीं होनी चाहिए. अखबारों में ऐसी घटनाएं छोटी-सी खबर बनकर खत्म हो जाती थी, लेकिन वहीं से मेरी कोई कहानी या लेख शुरू होते थे. इस तरह मेरी रचनात्मकता को पत्रकारिता ने बढ़ावा ही दिया. नवीन जोशी का कहानी संग्रह 'अपने मोर्चे पर' 1992 में आ गया था. साल 2002 में वो हिन्दुतान अखबार में संपादक बनकर पटना पहुंचे. उस समय बिहार के सीएम लालू प्रसाद यादव थे. नवीन जोशी कहते हैं कि बिहार के हालात बहुत खराब थे. वहां ये पता नहीं चलता था कि सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढे में सड़क हैं. साठ किलोमीटर की दूरी चार घण्टे में पूरी होती थी. एक बार मैंने किसी से कहा था कि जहां गरीब मुसहर लोग होते हैं, जो चूहे पकड़ कर खाते हैं, मुझे उनके गांव ले चलो. मुझे जवाब मिला कि वहां पर सड़क नहीं है, जब बाढ़ आएगी तब वहां नाव चलेगी, उसके बाद ही उस गांव तक पहुंच पाएंगे. इन अनुभवों से नवीन जोशी के अंदर का लेखक पैना होने लगा.
पटना में रहते हुए ही उन्हें अपना पहला उपन्यास 'दावानल' पूरा करने का विचार आया. उन्होंने साल 2002 में दावानल लिखना शुरू किया. दिन में वो नौकरी किया करते थे और रात में उपन्यास लिखते थे. दो साल बाद उनका लखनऊ तबादला हो गया और फिर उन्होंने इस उपन्यास को सम्पादित किया. प्रकाशक को यह अच्छा लगा और छपने में कोई दिक्कत नहीं आई. ‘दावानल’ उपन्यास साल 1972-73 से साल 1984 तक चले चिपको आंदोलन के भटकाव पर है कि कैसे यह आंदोलन पर्यावरणविदों की वजह से सिर्फ पेड़ बचाने तक सिमट गया जबकि यह आंदोलन मुख्य रूप से जंगलों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों के लिए था. पहाड़ के प्रवासियों की पीड़ा भी इसका प्रमुख हिस्सा है.
इस उपन्यास का भी सहित्य जगत में स्वागत हुआ. नवीन जोशी का तीसरा उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' है, इस उपन्यास में ‘दावानल’ के आगे की कहानी है. नवीन जोशी कहते हैं कि जब चिपको आंदोलन ठंडा पड़ने लगा था, तब नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन शुरू हुआ था. इस उपन्यास में तब से आज तक के उत्तराखंड की कहानी है.
'देवभूमि डेवलपर्स' में उत्तराखंड के जन आंदोलनकारी संगठनों में टूट, राजनैतिक दलों की चालबाजियां और संसाधनों की लूट पर लिखा गया है. इसे पढ़ने से पता चलता है कि क्यों उत्तराखंड के गांवों से पलायन होता है और कैसे ठेकेदार, दलालों और नेताओं ने उत्तराखंड के जल, जंगल, जमीन पर अपना कब्जा जमा दिया है.
नवीन जोशी कहते हैं कि, पहाड़ मेरे लेखन के केंद्र में है, तीनों उपन्यासों का विषय उत्तराखंड पर केंद्रित है. मेरी कई कहानियां भी पहाड़ पर केंद्रित रहती हैं. मैं सामाजिक स्थितियों के बारे में लिखता हूं. जैसे मैंने एक कहानी में लिखा है कि कैसे समाज में साम्प्रदायिकता बढ़ रही है. कुछ कहानियों का विषय पर्यावरण भी है, उनमें लिखा है कि कैसे शहर से गौरैया गायब हो रहीं हैं या आकाश से तारे खो गए. एक कहानी का मुख्य पात्र तारे देखने के लिए पहाड़ की याद करता है. हाल ही में सम्भावना प्रकाशन से उनकी नई किताब 'बाघैन' आई है. यह कहानियों का संग्रह है. इसकी मुख्य कहानी पलायन के कारण भुतहा होते गांवों की मार्मिक दास्तान है. बाघ यहां खूंखार जंगली जानवर से अधिक मानव विरोधी विकास का सर्वभक्षी प्रतीक है, ये किताब आज बुरे दौर से गुजर रहे उत्तराखंड की तस्वीर-तकदीर दिखाती है.
‘अपने मोर्चे पर’, ‘राजधानी की शिकार कथा’, ‘मीडिया और मुद्दे’, ‘लखनऊ का उत्तराखंड’ नवीन जोशी की अन्य रचनाएं हैं.
हिंदी में लेखन से आजीविका पर नवीन जोशी कहते हैं कि हिंदी में स्वतन्त्र लेखक अपनी आजीविका नहीं चला सकते. पारिश्रमिक की स्थितियां बेहद खराब हैं, मैं भी अगर पत्रकारिता नहीं करता तो परिवार नहीं पाल सकता था. मेरी पत्नी भी नौकरी करती थी इसलिए कभी घर चलाने में कोई दिक्कत नहीं आई. इसका कारण पूछने पर वो कहते हैं कि हिंदी किताबें अधिक नहीं बिकती. पांच सौ से एक हजार प्रतियों के संस्करण बिकने पर हिंदी लेखक खुश हो जाते हैं. प्रकाशक लेखकों से सच छुपाते, उन्हें किताबों की बिक्री और आवृत्तियों के बारे में सही विवरण नहीं देते. लेखक को समय से रॉयल्टी भी नहीं मिलती. इसके लिए लेखकों को प्रकाशक के लिए बार-बार चिट्ठी लिखनी पड़ती है.
पिछले दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल जैसे वरिष्ठ लेखक ने इस बारे में अपनी दुखद कथा बताई तो कुछ चर्चा हुई थी. नवीन जोशी इस विषय पर आगे कहते हैं कि कुछ नए प्रकाशक पारदर्शिता बरत रहे हैं. अंग्रेजी किताबों में ऐसी स्थिति नहीं है. वहां लेखक को प्रकाशन से अनुबन्ध के भी पैसे मिलते हैं, रॉयल्टी के अलग.
लेखन में पैसा न होने पर भी लिखते रहना चाहिए या नहीं इस विषय पर नवीन जोशी ने कहा कि लिखना जरूरी है. यदि हम सामाजिक और राजनीतिक रूप से सचेत हैं तो हमें लिखना चाहिए.
पत्रकारिता की प्रतिक्रिया तत्काल होती है लेकिन साहित्य का दीर्घकालीन असर होता है. सहित्य समाज का आईना होता है और धैर्य मांगता है. कहानी लिखकर समाज रातों रात नहीं बदलता लेकिन छपे हुए का असर आने वाले दशकों, शताब्दियों तक रहता है. जैसे भारतेंदु को पढ़कर हम तब के भारतीय समाज को समझ सकते हैं, ठीक वैसे ही ओ हेनरी को पढ़कर हम अमरीकी समाज को समझ सकते हैं.
ई बुक के बढ़ते चलन पर नवीन जोशी कहते हैं कि पहले टेलीफोन डायरी होती थी अब उसे कोई नहीं रखता, फोन में ही सबके नंबर मिल जाते हैं. वैसे ही माध्यम बदलते रहेंगे पर शब्द वैसे ही रहेंगे. शब्द रहेंगे तो सहित्य रहेगा और साहित्य रहेगा तो समाज सचेत रहेगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)