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किताब पढ़ने की खत्म होती संस्कृति को अब किसका सहारा?

Book Reading Vs Social Media: नई पीढ़ी के युवा अधिकतर वक्त सोशल मीडिया पर रील्स में बर्बाद कर रहे हैं.

हिमांशु जोशी
ब्लॉग
Published:
<div class="paragraphs"><p>पढ़ने की खत्म होती संस्कृति को अब किसका सहारा?</p></div>
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पढ़ने की खत्म होती संस्कृति को अब किसका सहारा?

(प्रतीकात्मक फोटो)

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नैनीताल (Nainital) में तिब्बती मार्केट के पास एक युवक बीच रास्ते में मोबाइल जमीन पर रखकर डांस करते हुए रील्स बनाने में मस्त था और उसे इस बात की बिल्कुल भी चिंता नही थी कि उसकी इस हरकत की वजह से राहगीरों को दिक्कत हो रही है. आसपास कुछ युवा सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीते हुए दिख रहे थे, तो कुछ सड़क पर कचरा फेंकते. नई पीढ़ी की इन हरकतों का कारण समझने का प्रयास किया जाए तो महसूस होता है कि देश के अधिकतर युवाओं में अब मोबाइल का भूत सवार है.

नई पीढ़ी के युवा अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया पर रील्स को देखने और बनाने में बर्बाद कर रहे हैं, जिस वजह से उनका बौद्धिक विकास रुक सा गया है.

 आज के युवाओं, बच्चों का किताब पढ़ने का पैटर्न

नैनीताल के रहने वाले बाइस वर्षीय शुभम तल्लीताल में बाइक वर्कशॉप चलाते हैं. शुभम ने दस साल पहले आठवीं कक्षा में ही स्कूल छोड़ दिया था और फिर उन्होंने बाइक मैकेनिक का काम सीखना शुरू किया. वह कहते हैं कि स्कूल छोड़ने के बाद से उन्होंने कभी किताब के पन्ने नही पलटे हैं पर अपने खाली वक्त में वह इंस्टाग्राम और फेसबुक को चार से पांच घंटे जरूर देते हैं.

उन्नीस वर्षीय देवेन सिंह बिष्ट नैनीताल डीएसबी कैम्पस में बीसीए द्वितीय वर्ष के छात्र हैं और वह भी अपने कोर्स की किताबों के सिवाय कोई अन्य किताब नही पढ़ते. देवेन इंस्टाग्राम को दिन में अपने बहुमूल्य दो घंटे देते हैं.

डीएसबी की ही छात्रा साक्षी जोशी प्रतियोगी परीक्षाओं की किताबों को दिन में सात घंटे देती हैं, लेकिन वह इन किताबों के बाद कोई और किताब नही देखतीं. साक्षी भी दिन का अपना एक घंटे इंस्टाग्राम पर बिताती हैं.

स्कूली छात्रों ने कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन से दोस्ती करी पर अब इस फोन ने उनको पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया है.

भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल के प्रियांशु दिन के दो-तीन घंटे मास्टरमाइंड से अपने कोर्स को याद करते हैं पर मोबाइल पर अपने कीमती आठ नौ घंटे बर्बाद कर देते हैं. इसी स्कूल के हर्ष हफ्ते में एक बार 'यू कैन विन' जैसी किताब पढ़ते हैं, यह किताबी शौक उन्हें अपने बड़े भाई से लगा. हर्ष अपने स्कूल की लाइब्रेरी कभी नही गए पर पांच सालों बाद हाल ही में खुली नैनीताल की ऐतिहासिक दुर्गा शाह म्युनिसिपल लाइब्रेरी में जाकर वह कभी-कभी विज्ञान से जुड़ी किताब पढ़ लेते हैं.

हर्ष दिन में एक घंटा मोबाइल को देते हैं, जिसमें वह यूट्यूब पर शिक्षा से जुड़े वीडियो देखते हैं.

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मोबाइल हर हाथ में उपलब्ध पर किताबों की पहुंच कितनी!

उत्तराखंड लोक पुस्तकालय अधिनियम 2005 में लिखा है कि लोक पुस्तकालयों के गठन एवं प्रशासन हेतु राज्य के प्रत्येक जनपद में संबंधित जनपद के नाम से एक जिला पुस्तकालय प्राधिकरण गठित किया जाएगा. इस जिला पुस्तकालय प्राधिकरण को यह कर्तव्य दिया गया कि अधिनियम की अधिनियमिति के पश्चात यथाशीघ्र प्रत्येक विकास खंड में एक विकास खंड पुस्तकालय, प्रत्येक नगरपालिका/कस्बे में एक नगर पुस्तकालय और प्रत्येक ग्राम पंचायत क्षेत्र में एक ग्राम पुस्तकालय चरणबद्ध योजना बनाकर स्थापित किया जाए.

अधिनियम बनने के सालों बाद भी ग्राम स्तर तक पुस्तकालय की बात सिर्फ किताबी ही लगती है. नई पीढ़ी को मोबाइल की लत से दूर करने के लिए ग्राम स्तर पर पुस्तकालय बनाना और उस पुस्तकालय के प्रति उनमें रुचि जगाना सबसे बड़ी चुनौती है.

इस चुनौती को पूरा करने के लिए भारत में अब फिर से पुस्तकालय आंदोलन की आवश्यकता महसूस होने लगी है.

एक और पुस्तकालय आंदोलन शुरू हो गया है

उत्तराखंड में टनकपुर के एसडीएम हिमांशु कफल्टिया ने साल 2020 से अपने तहसील क्षेत्र में नागरिक पुस्तकालय खोलने की मुहिम छेड़ रखी है. इन पुस्तकालयों में प्रतियोगी परीक्षाओं की किताबों के साथ साहित्यिक किताबें भी हैं. क्षेत्र में अब तक लगभग एक दर्जन नागरिक पुस्तकालय खोले जा चुके हैं, जिनसे कई क्षेत्रीय युवा प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण भी हुए.

एसडीएम हिमांशु कफल्टिया इन नागरिक पुस्तकालयों पर कहते हैं कि उन्हें पुस्तकालय खोलने का यह विचार सिविल सर्विसेस की तैयारी के दौरान आया. वह सोचते थे कि जिन किताबों को पढ़ने के लिए क्षेत्र के छात्र दिल्ली, इलाहाबाद जैसे शहरों की तरफ दौड़ते हैं, क्यों न वह उन किताबों को छोटे शहरों और गांवों में उपलब्ध करा सकें. उन्होंने आगे बताया कि मैं मानता हूं किताबें लाइफ चेंजिंग होती हैं, उनसे दोस्ती हो जाए तो इंसान बदल जाता है. मेरे साथ भी यही हुआ, यदि समाज में सकरात्मक परिवर्तन लाने हैं तो यह पुस्तकों से ही संभव है.

हिमांशु अभी टनकपुर में पहली बार क्षेत्रीय लोगों के सहयोग से 24-25 दिसंबर में पुस्तक मेले को आयोजित करवाने जा रहे हैं, जिसमें करीब पचास प्रकाशकों की किताबें उपलब्ध रहेंगी. पुस्तक मेले के लाभ पर वह कहते हैं कि इस मेले को आयोजित करवाने का उद्देश्य युवाओं में पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना है.

पुस्तक मेले से लोगों को बहुत सी नई किताबों के बारे में पता चलेगा और स्थानीय लोगों को पुस्तक मेले में आने वाले अच्छे लोगों से मिलकर बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा.

'आरम्भ' का कमाल

आरम्भ स्टडी सर्कल पिथौरागढ़ भी पिथौरागढ़ में कॉलेज के कुछ छात्रों का एक ऐसा समूह है, जो क्षेत्र में पढ़ने लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने के प्रयासों में जुटा है. आरम्भ से जुड़े महेंद्र रावत बताते हैं कि हम चाहते हैं कि क्षेत्र के बच्चों और युवाओं में पढ़ने लिखने की संस्कृति बढ़े, इसके लिए हम जगह-जगह पुस्तक मेलों का आयोजन करवाते हैं.

इनमें धारचूला, डीडीहाट जैसे दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र भी शामिल हैं. मेलों में स्कूली बच्चों की भागीदारी उत्साहवर्द्धक रहती है. वह पुस्तक परिचर्चा भी आयोजित करते हैं, जिसमें लोग अपनी पढ़ी किताबों पर प्रतिक्रिया देते हैं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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