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"एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है. हर आदमी दूसरे के प्रति उत्तरदायी होता है. यही सबसे बड़ा प्रेम का बंधन है. मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. मेरे साहित्य का जन्म मेरे जीवन की त्रासदियों से हुआ है."
साहित्य और साहित्यकार की ये परिभाषा, हिंदी के जाने-माने गांधीवादी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar) की कलम से निकली थी, जिनको 'आचार्य विष्णु प्रभाकर' भी कहा जाता है. हिंदी साहित्यकार और पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) के मीरापुर (Mirapur) गांव में हुआ था.
विष्णु प्रभाकर की पहली कहानी ‘दिवाली की रात’ साल 1931 में लाहौर (Lahore) से निकलने वाले अखबार ‘मिलाप’ में छपी थी, उस वक्त उनकी उम्र केवल उन्नीस साल थी. इसके बाद उनके लिखने का सिलसिला 76 साल की उम्र तक चलता रहा.
आचार्य विष्णु प्रभाकर को बंगाली लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी 'आवारा मसीहा' लिखने के बाद बड़ी शोहरत मिली क्योंकि उस जमाने में न हवाई जहाज थे, न इस तरह की कोई कनेक्टिविटी, तब भी विष्णु प्रभाकर, शरत के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए म्यांमार से लेकर भागलपुर और बंगाल तक गए. इसके रिसर्च पर उन्होंने अपनी जिंदगी के पूरे 14 साल लगा दिए.
विष्णु प्रभाकर के बेटे अतुल प्रभाकर क्विंट हिंदी से बातचीत में कहते हैं कि
कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में लिखने के बावजूद ‘आवारा मसीहा’ उनकी पहचान का पर्याय बन गई. इस रचना के लिए उनको सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी नवाजा गया. विष्णु प्रभाकर की रचनाओं की खूबी ये है कि सदियों पहले लिखी गई उनकी लेखनी को पढ़कर लगता है जैसे ये आज ही के लिए लिखे गए हों.
'आवारा मसीहा' में विष्णु प्रभाकर लिखते हैं...
रिपोर्ट के मुताबिक किसी ने विष्णु प्रभाकर से जब यह पूछा कि ‘एक लेखक होकर आप अपनी स्वतंत्र कृति रचने के बजाय अपने जीवन के अनमोल 14 बरस किसी ऐसी कृति में क्यों खर्च करते रहे जो ठीक तरह से आपकी भी नहीं होने वाली थी. आपको 'आवारा मसीहा' लिखने की जरूरत क्यों जान पड़ी.’
इस पर उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया, उन्होंने कहा कि-
विष्णु प्रभाकर ने मानव जीवन के हर एहसास और समय की हर चाल को पकड़ा. विभाजन की त्रासदी पर आधारित कहानी 'मैं ज़िंदा रहूंगा' में वो लिखते हैं...
इस तरह से अपनी कलम चलाते-चलाते ही 11 अप्रैल, 2009 को राजधानी दिल्ली में विष्णु प्रभाकर ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांसें लीं.
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