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प्रोड्यूसर : बादशा रे
स्क्रिप्ट : संतोष कुमार
कैमरा :सुमित बडोला, शिव कुमार मौर्या
वीडियो एडिटर : मोहम्मद इब्राहिम, अभिषेक शर्मा, संदीप सुमन
आचार्य विष्णु प्रभाकर ने जब साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी को अपने उपन्यास आवारा मसीहा में उतारा तो ये भी शरदचंद्र की बड़ी पहचान बन गया. बनता भी क्यों नहीं. जिस जमाने में न हवाई जहाज थे, न ऐसी कनेक्टिविटी. तब भी विष्णु प्रभाकर ने शरत के बारे में जानने के लिए म्यांमार से लेकर भागलपुर और बंगाल छान डाला. रिसर्च करने में अपने जीवन के 14 साल लगा दिए.
उन्होंने कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे, नाटक लिखे. हर शैली में लिखा और हर विषय पर लिखा. इस वीडियो में हम उनके अमर साहित्य से आपका परिचय करा रहे हैं. बरसों पहले लिखी गईं उनकी कृतियों के कई हिस्से पढ़कर लगता है मानो आज ही के लिए लिखे गए हों. मसलन आवारा मसीहा में वो लिखतेहैं:
विष्णु प्रभाकर ने मानव जीवन के हर अहसास, समय की हर चाल को पकड़ा. विभाजन की त्रासदी पर लिखी उनकी कहानी मैं जिंदा रहूंगा का एक प्रसंग देखिए-
कहानी में आगे ये होता है कि जिस तरह राज से उसका बच्चा छूटता है, उसी तरह से बाद में पता चलता है कि खुद राज भी प्राण की पत्नी नहीं. बंटवारे की भागमभाग में वो अपने पति से बिछड़ गई थी और आखिर में उसका पति उसे लेना आता है और प्राण उसे सौंप देता है.
इसी मोड़ पर कहानी खत्म हो जाती है. दर्द इतना है कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. भाव इतने सारे हैं कि उन्हें समझाने की कोशिश उन्हें छोटा करने जैसा है.
विष्णु प्रभाकर 76 साल तक लिखते रहे. 19 साल के थे तो उनकी पहली कहानी छपी- दिवाली की रात. 2009 में निधन से दो साल पहले यानी 2007 तक लिखते रहे. कोई इतने लंबे समय तक, लगातार इतना अच्छा कैसे लिख सकता है? उनकी कहानी अधूरी कहानी का एक हिस्सा पढ़िए.
कहानी में आगे का संवाद सुनिए:
वाकई समय से परे है आचार्य विष्णु प्रभाकर की रचना. आज देश में जो कुछ हो रहा है, उसके बैकड्रॉप में ये कहानी कितनी अहम हो गई है. एक और कहानी है उनकी, स्यापा मुका.
इसी कहानी में आगे इन मार दिए गए भाइयों की मां कहती है:
कहने को आचार्य का लिखा कल्पना है लेकिन उनकी कहानियों से लेकर उपन्यास और नाटक तक में जीवन मंत्र भरे हैं. उनके नाटक, टूटते परिवेश में नई और पुरानी पीढ़ी में टकराव की झकझोर देने वाली तस्वीर है.
नाटक में आगे विश्वजीत की छोटी बेटी कहती है:
इस नाटक में विष्णु प्रभाकर न तो नई पीढ़ी को दोष देते हैं न पुरानी पीढ़ी को गलत ठहराते हैं. कोई रास्ता भी नहीं सुझाते. भूमिका में खुद कहते हैं ‘सारी जिम्मेदारी लिखने वाले की नहीं’.
हमने आपको कुछ बूंदें चखाई हैं. विष्णु प्रभाकर के साहित्य का सागर बड़ा है. जाइए गोते लगाइए, मोती ढूंढ लाइए. बड़े काम की हैं. पद्मभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार और न जाने कितने-कितने सम्मान उन्हें मिले, लेकिन आचार्य विष्णु प्रभाकर का असली सम्मान यही होगा कि आप उन्हें पढ़ें और अपनी जिम्मेदारी समझें, उनके लिखे पर कुछ सोचें. आज ये और भी जरूरी है.
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