Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019एक किताब से उसने ‘आवारा’ को मसीहा बना दिया

एक किताब से उसने ‘आवारा’ को मसीहा बना दिया

‘आवारा मसीहा’ हिंदी साहित्य की चुनिंदा पुस्तकों में से है

क्विंट हिंदी
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‘आवारा मसीहा’ हिंदी साहित्य की चुनिंदा पुस्तकों में से एक है
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‘आवारा मसीहा’ हिंदी साहित्य की चुनिंदा पुस्तकों में से एक है
(फोटो ग्राफिक्स: कनिष्क दांगी/क्विंट हिंदी)

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प्रोड्यूसर : बादशा रे

स्क्रिप्ट : संतोष कुमार

कैमरा :सुमित बडोला, शिव कुमार मौर्या

वीडियो एडिटर : मोहम्मद इब्राहिम, अभिषेक शर्मा, संदीप सुमन

आवारा मसीहा

आचार्य विष्णु प्रभाकर ने जब साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी को अपने उपन्यास आवारा मसीहा में उतारा तो ये भी शरदचंद्र की बड़ी पहचान बन गया. बनता भी क्यों नहीं. जिस जमाने में न हवाई जहाज थे, न ऐसी कनेक्टिविटी. तब भी विष्णु प्रभाकर ने शरत के बारे में जानने के लिए म्यांमार से लेकर भागलपुर और बंगाल छान डाला. रिसर्च करने में अपने जीवन के 14 साल लगा दिए.

विष्णु प्रभाकर ने ऐसा तब किया जब दोनों के व्यक्तिगत जीवन में अपार अंतर था. आचार्य पक्के गांधीवादी, नियमों में बंधकर रहने वाले और शरतचंद्र मनमौजी हर नियम को तोड़ने वाले. काम के प्रति ये निष्ठा हर पेशे और पीढ़ी के लिए नजीर है. उन्हीं विष्णु प्रभाकर का 21 जून को जन्मदिन है.

उन्होंने कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे, नाटक लिखे. हर शैली में लिखा और हर विषय पर लिखा. इस वीडियो में हम उनके अमर साहित्य से आपका परिचय करा रहे हैं. बरसों पहले लिखी गईं उनकी कृतियों के कई हिस्से पढ़कर लगता है मानो आज ही के लिए लिखे गए हों. मसलन आवारा मसीहा में वो लिखतेहैं:

धर्म का संबंध मन से है. गेरुआ न पहनने पर भी मुक्त हुआ जा सकता है. मनुष्य मन से ही बंधन में आता है. मन के कारण ही मुक्त होता है. इसलिए पहले मन चाहिए, बाद में बाहर की सहायता. मन यदि अच्छा है तो बाहर के गेरुआ वस्त्र तुम्हारी सहायता करेंगे. नहीं तो ढोंग की ही सृष्टि होगी.

मैं जिंदा रहूंगा

विष्णु प्रभाकर ने मानव जीवन के हर अहसास, समय की हर चाल को पकड़ा. विभाजन की त्रासदी पर लिखी उनकी कहानी मैं जिंदा रहूंगा का एक प्रसंग देखिए-

वह भारत की ओर दौड़ी. मार्ग में वे अवसर आए जब उसे अपने और उस बच्चे के बीच किसी एक को चुनना था, पर हर बार वह प्राणों पर खेलकर उसे बचा लेने में सफल हुई. मौत भी जिस बालक को उससे छीनने में असफल रही, वही अब कुछ क्षणों में उससे अलग हो जाएगा, क्योंकि वह उसका नहीं था, क्योंकि वह उसकी मां नहीं थी. नहीं-नहीं दिलीप उसका है, और वह फफकर रोने लगी. 

कहानी में आगे ये होता है कि जिस तरह राज से उसका बच्चा छूटता है, उसी तरह से बाद में पता चलता है कि खुद राज भी प्राण की पत्नी नहीं. बंटवारे की भागमभाग में वो अपने पति से बिछड़ गई थी और आखिर में उसका पति उसे लेना आता है और प्राण उसे सौंप देता है.

इसी मोड़ पर कहानी खत्म हो जाती है. दर्द इतना है कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. भाव इतने सारे हैं कि उन्हें समझाने की कोशिश उन्हें छोटा करने जैसा है.

अधूरी कहानी

विष्णु प्रभाकर 76 साल तक लिखते रहे. 19 साल के थे तो उनकी पहली कहानी छपी- दिवाली की रात. 2009 में निधन से दो साल पहले यानी 2007 तक लिखते रहे. कोई इतने लंबे समय तक, लगातार इतना अच्छा कैसे लिख सकता है? उनकी कहानी अधूरी कहानी का एक हिस्सा पढ़िए.

मेरा नाम अहमद है. मैं दिलीप के साथ पढ़ता हूं. सवेरे उसने मुझे अपने हिस्से का दूध दिया था. दिलीप का भाई मुस्कराया. तब तक दिलीप की मां और चाची भी वहां आ गई थीं. भाई ने कहा- तो फिर? जी सेवैयां लाया हूं, इन्होंने कहा था कि.... अहमद अपना कहना पूरा करे कि दिलीप के भाई बड़ी जोर से हंस पड़े, कहां- भोले बच्चे, जाओ अपने घर लौट जाओ. चाची बोली- हम क्या तुम्हारी सेवैयां खा सकते हैं? हमें क्या अपना ईमान बिगाड़ना है.

कहानी में आगे का संवाद सुनिए:

लेकिन सच कहना, मुहब्बत की वह लकीर क्या आज बिल्कुल ही मिट गई है. मेरे दोस्त इस दुनिया में मिटने वाला कुछ भी नहीं है. मुहब्बत तो हरगिज नहीं. सिर्फ हमारी गफलत से  कभी-कभी उस पर परदा पड़ जाता है.
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स्यापा मुका

वाकई समय से परे है आचार्य विष्णु प्रभाकर की रचना. आज देश में जो कुछ हो  रहा है, उसके बैकड्रॉप में ये कहानी कितनी अहम हो गई है. एक और कहानी है उनकी, स्यापा मुका.

मुख पृष्ठ पर वही पंजाब के आतंकवादियों के बारे में रिपोर्ट है. बॉक्स में भी एक समाचार है - धार्मिक उन्माद और पागलपन की भी एक सीमा होती है. अभी चार दिन पहले अमृतसर में बेगुनाह जॉ. सर्वजीत सिंह की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि वे केशधारी नहीं थे. कल उनके छोटे भाई मनजीत सिंह की हत्या हरियाणा में करनाल के पास इसलिए कर दी गई क्योंकि वो केशधारी थे.

इसी कहानी में आगे इन मार दिए गए भाइयों की मां कहती है:

आ गया तु भइये, देख लित्ता. वाहे गुरू ने राम नूं कतल कर दित्ता. राम ने वाहे गुरू नूं. दोनों नस गए. स्यापा मुका.

टूटते परिवेश

कहने को आचार्य का लिखा कल्पना है लेकिन उनकी कहानियों से लेकर उपन्यास और नाटक तक में जीवन मंत्र भरे हैं. उनके नाटक, टूटते परिवेश में नई और पुरानी पीढ़ी में टकराव की झकझोर देने वाली तस्वीर है.

एक वह हमारा जमाना था, कितना प्यारा, कितना मेल. एक कमाता, दस खाते. हरेक दूसरे से जुड़े रहने की कोशिश करता था. और अब सब कुछ फट रहा है. सब एक दूसरे से भागते हैं.

नाटक में आगे विश्वजीत की छोटी बेटी कहती है:

मैं जा रही हूं, वहीं, जहां मैं चाहती हूं, आप चाहे तो उसे पाप कह सकते हैं, विद्रोह भी कह सकते हैं. लेकिन मैं तो इसे अधिकार कहती हूं. अपने भाग्य का अपने आप निर्णय लेने का अधिकार. मैं इस अधिकार के लिए घर छोड़ कर जा रही हूं

इस नाटक में विष्णु प्रभाकर न तो नई पीढ़ी को दोष देते हैं न पुरानी पीढ़ी को गलत ठहराते हैं. कोई रास्ता भी नहीं सुझाते. भूमिका में खुद कहते हैं ‘सारी जिम्मेदारी लिखने वाले की नहीं’.

हमने आपको कुछ बूंदें चखाई हैं. विष्णु प्रभाकर के साहित्य का सागर बड़ा है. जाइए गोते लगाइए, मोती ढूंढ लाइए. बड़े काम की हैं. पद्मभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार और न जाने कितने-कितने सम्मान उन्हें मिले, लेकिन आचार्य विष्णु प्रभाकर का असली सम्मान यही होगा कि आप उन्हें पढ़ें और अपनी जिम्मेदारी समझें, उनके लिखे पर कुछ सोचें. आज ये और भी जरूरी है.

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