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मुंडका अग्निकांड: जाम में फंसी थी दमकल की गाड़ियां, वीडियो बनाते लोग भी बने बाधा

Mundka Fire: (नाकाम) बचाव अभियान से दिल्ली को चार सबक सीखना जरूरी है

सौम्या लखानी
न्यूज
Published:
<div class="paragraphs"><p>Mundka Fire</p></div>
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Mundka Fire

Quint Hindi

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ट्रैफिक मिसमैनेजमेंट, देरी से की गई फायर कॉल और बिल्डिंग में एकमात्र एग्जिट, ये कुछ बड़ी चुनौतियां थीं जिनका सामना फायर फाइटर्स ने बाहरी दिल्ली (Delhi) के मुंडका (Mundka) में पिछले दिनों भीषण आग से घिर चुकी इमारत से लपटों को बुझाने के लिए किया. 13 मई को इस इमारत में लगी भीषण आग में कम से कम 27 लोगों की जान गई है और जिन लोगों के शव मिले हैं, वो इतने झुलस चुके हैं कि उनकी पहचान कर पाना मुश्किल है.

दिल्ली पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया है, जिसमें इस चार मंजिला ऑफिस कॉम्प्लेक्स का मालिक भी शामिल है.

आग की इस घटना के चार दिन बाद द क्विंट ने दिल्ली फायर चीफ अतुल गर्ग और दो अन्य डिविजनल ऑफिसर्स से बात की जो फायर फाइटिंग ऑपरेशन का हिस्सा थे. हमने उनसे 13 मई की दोपहर बाद हुए अग्निकांड और आग बुझाने के दौरान उन्हें किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा, इस पर विस्तार से बात की.

1. बिल्डिंग में आग लगने के 70 मिनट बाद मिली कॉल

चश्मदीदों के अनुसार, चार मंजिला इमारत दोपहर 3.30 बजे आग की चपेट में आ गई थी. हालांकि दिल्ली फायर सर्विस (DFS) चीफ का कहना है कि उन्हें फायर कॉल शाम 4.40 बजे मिली. आग की पहली लपटें दिखने के 70 मिनट बाद.

56 वर्षीय एमके चट्टोपाध्याय डीएफएस में फायर डिविजनल ऑफिसर हैं. उन्होंने क्विंट से कहा, मैं घटनास्थल पर 6 से 7 फायर टेंडर्स के साथ मिनटों में पहुंच गया था. जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने देखा कि पूरी बिल्डिंग आग की चपेट में थी. ग्राउंड, फर्स्ट, सेकंड और थर्ड फ्लोर पर भीषण आग लगी थी. ये संकेत था कि आग कुछ देर पहले लगी थी और ये तेजी से बढ़ रही थी.

70 मिनट के गैप में कई लोगों को स्थानीय लोगों ने रेस्क्यू किया, जिसमें एक क्रेन ऑपरेटर भी शामिल था. लेकिन इतनी देर में आग और तीव्र हो गई थी जिससे फायर फाइटर्स के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू करना मुश्किल होता जा रहा था.

डीएफएस के एक अन्य फायर डिविजनल ऑफिसर 50 साल के संदीप दुग्गल ने कहा कि आमतौर पर जब ऐसी भीषण आग की घटना होती है तो डीएफएस के पास ढेरों कॉल आते हैं जिनमें से ज्यादातर आसपास से गुजरने वाले लोगों के होते हैं. लेकिन इस बार ऐसा नहीं था.


संदीप दुग्गल ने आगे कहा, ये उलझाने वाला है. क्या वहां से गुजरने वाले लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया? अगर किसी ने भी पुलिस या एंबुलेंस सर्विस को कॉल किया होता तो पुलिस या एंबुलेंस सर्विस के जरिए हमारे पास कॉल आती. उस दिन ऐसा भी कुछ नहीं हुआ. चट्टोपाध्याय और दुग्गल दोनों ने कहा कि इतने बड़े स्तर का हादसा टल सकता था, अगर कॉल थोड़ी जल्दी की जाती. चट्टोपाध्याय ने कहा,

आग बुझाने में हर सेकंड मूल्यवान होता है. मैंने अपने बेस्ट मेन को अंदर जाने के लिए तैयार रखा था, लेकिन आग इतनी ज्यादा थी कि हम स्पॉट पर पहुंचने के बाद भी कम से कम 90 मिनट तक अंदर नहीं जा सके

2. ट्रैफिक में फंस गए फायर टेंडर्स, ट्रैफिक पुलिस का पूरी तरह से मिस मैनेजमेंट

जब पहली फायर कॉल के बाद चट्टोपाध्याय स्पॉट पर पहुंचे तो उनके साथ 6 से 7 फायर टेंडर्स थे. उन्होंने कहा, दूसरे फायर टेंडर्स रास्ते में थे. वो जो समय पर पहुंच गए, उनमें से हर एक के पास 2,500 लीटर पानी की क्षमता थी. सबसे बड़े फायर टेंडर्स जिनमें हर एक के पास 16,000 लीटर क्षमता के साथ पानी था, वो घटनास्थल के पास ट्रैफिक जाम में फंस गए.

ये बिल्डिंग मुंडका में मेन रोड पर स्थित थी. इस रोड पर भारी ट्रैफिक होता है. चट्टोपाध्याय के अनुसार, ट्रैफिक पुलिस को एक रिक्वेस्ट भेजी गई कि एक लेन को बस फायर टेंडर्स के लिए खाली कराएं जिससे वो जल्दी आ जा सकें.

उन्होंने बताया कि मैंने 112 नंबर डायल कर रिक्वेस्ट की, लेकिन ये नहीं किया गया. पहले हमने बस उन फायर टेंडर्स के साथ मैनेज किया जो हमारे पास थे. फिर पास के मेट्रो स्टेशन के पास अंडर ग्राउंड वॉटर स्टोरेज तक पहुंच बनाई.

उन्होंने कहा कि वहां बिल्डिंग के पास इकट्ठा भीड़ ने भी रोड को जाम कर दिया था, वो आग की फोटो और वीडियो ले रहे थे. दुग्गल ने कहा कि शाम तक और ज्यादा फायर टेंडर्स के आने में देरी का मतलब था कि हमारे पास जितने संसाधन थे, उनका सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना. देरी की वजह से गंभीर नुकसान हुआ.

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डीएफएस चीफ गर्ग ने कहा कि कम से कम 30 फायर टेंडर्स और 150 से ज्यादा फायर फाइटर्स ने 10 घंटे लपटों को बुझाने, रेस्क्यू के प्रयास करने और फिर बिल्डिंग को ठंडा करने में बिताए.

3. बिल्डिंग में एक एग्जिट, कोई फायर एनओसी, कोई फायर सेफ्टी इक्विपमेंट नहीं

चट्टोपाध्याय का दावा है कि डीएफएस के पास बिल्डिंग का कोई रिकॉर्ड नहीं है. उन्होंने कहा जब कोई बिल्डिंग बनाई जाती है तो एक प्लान एमसीडी को भेजा जाता है. इसके बाद एमसीडी इसे हमें फॉरवर्ड करती है. इस मामले में ऐसा कोई प्लान हमें नहीं भेजा गया था. उन्होंने कहा, दिल्ली में ऐसी हजारों बिल्डिंग्स हैं जिन्हें फायर सहमति नहीं मिली हुई है. वो सवाल करते हैं कि दिल्ली में चीजें कैसे बेहतर होंगी, अगर ये सबकुछ ऐसे ही चलता रहा?

चट्टोपाध्याय जो उस बिल्डिंग में अपनी टीम के साथ थे, उन्होंने कहा कि किसी भी तरह की एनओसी न होने के अलावा बिल्डिंग में उन्हें hose reel, वाटर टैंक या फायर डिटेक्टर जैसा कोई फायर सेफ्टी इक्विपमेंट भी नहीं दिखा.

उन्होंने कहा, ये सभी चीजें अनिवार्य थीं और हमने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं देखी. अगर वहां डिटेक्टर होता, तो ये लोगों को समय पर अलर्ट कर देता और कई जिंदगियां बच जातीं. दुग्गल और चट्टोपाध्याय दोनों ने कहा कि बिल्डिंग में अनिवार्य रूप से एक एक दूसरा एग्जिट होना चाहिए था.

उन्होंने बताया कि जब सभी फ्लोर आग की चपेट में थे तब किसी भी तरह से वहां तक पहुंचना असंभव था और इसलिए 40 मीटर की ऊंचाई तक जा सकने वाले एक एरियल हाइड्रॉलिक प्लेटफॉर्म (Bronto sky-lift) का इस्तेमाल किया गया. चट्टोपाध्याय ने कहा, हमने तुरंत इसका इस्तेमाल किया जिससे बाहर से आग की लपटों को बुझा सकें. इस मशीन का इस्तेमाल ज्यादातर ऊंची इमारतों में आग की घटनाओं से निपटने के लिए किया जाता है.

फायर फाइटर्स तीन लेयर वाले सूट, गम बूट्स, लॉक कटिंग इक्विपमेंट, ब्रीदिंग एपरेटस, फायरमेन एक्स और सीलिंग हुक्स से लैस थे. चूंकि वहां कोई दूसरा एग्जिट नहीं था, फायर फाइटर्स ने वहां तक पहुंचने के लिए इस इमारत की बगल वाली बिल्डिंग से दीवार को तोड़ दिया. दुग्गल ने कहा कि कोई दूसरा एग्जिट नहीं होने का मतलब है कि जो अंदर फंसे थे, उनके पास बाहर आने का कोई विकल्प नहीं था. इसका मतलब ये भी था कि हम फायर फाइटर्स के पास भी अंदर जाने का कोई रास्ता नहीं था. ये एक बड़ा खतरा है.

दुग्गल ने ये भी बताया कि काला धुआं सीढ़ियों में जमा हो गया था जिससे लोगों के लिए बाहर निकलना असंभव हो गया. बिल्डिंग की दूसरी तरफ ऐसी लपटें उठ रही थी जिस पर नियंत्रण पाना मुश्किल था. चट्टोपाध्याय ने कहा, जब हम बिल्डिंग के अंदर घुसे तो हमने देखा कि सारी चीजें जलकर खाक हो चुकी थीं, कुर्सियां खोखली हो चुकी थीं और दूसरी मंजिल के गेट के पास लाशों का ढेर था. उनके पास बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं था. अगर दूसरा एग्जिट होता तो शायद वो निकल पाते.

4. इमारत के अगले हिस्से में लगे शीशे ने बिल्डिंग को तंदूर बना दिया था

बिल्डिंग के लिए ऐसा कोई प्लान डीएफएस को नहीं भेजा गया था, इसका मतलब ये भी है कि इसके मालिकों ने बिना इजाजत आगे के हिस्से में सजावटी शीशा लगवाया और इसके इंस्टालेशन के लिए जो नियम बनाए गए हैं, उनमें से किसी का पालन नहीं किया गया.


दुग्गल ने कहा, ये एक मजबूत शीशा था जो पूरी तरह से डेकोरेटिव नेचर का था. ये पूरे एक पीस में इंस्टॉल किया गया था और बीच में कोई खिड़की नहीं थी. इसका इंस्टालेशन बिल्डिंग के जो उप नियम हैं, उसके अनुरूप नहीं था. लोगों के लिए मुश्किल था कि वो इस शीशे को खुद से तोड़ पाएं और चूंकि इसमें कोई खिड़की नहीं थी, धुआं भी मुश्किल से ही इसके बाहर निकल सकता था. इसने बिल्डिंग के भीतर बिल्कुल एक ओवन जैसी स्थिति पैदा कर दी.

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