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19 नवंबर की सुबह, पंजाब के मनसा जिले के खीवा डायलू गांव में स्थानीय गुरुद्वारे से की गई एक घोषणा ने हरदेव सिंह को अंदर से हिलाकर रख दिया. उन्होंने कहा कि प्रधानंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की कृषि कानूनों (Farmer Laws) को वापस लेने वाली मिनटों लंबी घोषणा अगर जल्दी हुई होती, तो मेरी मां अभी जिंदा होती.
संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) के मुताबिक नवंबर 2020 में कृषि विरोधी कानून आंदोलन शुरू होने के बाद से अब तक 675 से अधिक प्रदर्शनकारियों की मौत हो चुकी है.
पीड़ितों के परिवारों के लिए 19 नवंबर की सुबह काफी मुश्किलों वाली थी. इस फैसले से जहां विरोध स्थलों पर खुशी की लहर दौड़ गई, वहीं इसने पीड़ितों के परिवारों को उनके द्वारा किए गए भारी खर्च की याद भी दिला दी.
अगर दलजीत सिंह जीवित होते, तो उत्तर प्रदेश (UP) के बहराइच जिले के नानपारा गांव में उनके घर में कृषि कानून वापस लेने के दौरान पीएम का भाषण एक बड़े उत्सव की वजह होता. लेकिन यह दिन शोक में डूबा हुआ था.
उस दौरान केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के काफिले के द्वारा विरोध कर रहे किसानों पर हमला किया गया था.
कानून वापसी से असंतुष्ट उनकी पत्नी परमजीत कौर ने द क्विंट को बताया कि जब हमने यह खबर सुनी, तो मैं और मेरे बच्चे रो पड़े. अगर सरकार ने ऐसा जल्दी किया होता, तो मेरे पति यहां होते और हम और सभी परिवारों की तरह एक साथ जश्न मना रहे होते.
परमजीत कौर ने कहा कि केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा को बर्खास्त किया जाना चाहिए और उनके बेटा जो कार में था, उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. एक साल से गर्मी और ठंडी में विरोध कर रहे किसान जश्न के पात्र हैं, लेकिन मैं कैसे जश्न मनाऊं, मुझे न्याय चाहिए.
परिवार के पास केवल दो एकड़ जमीन है और वे हर साल 10 एकड़ पट्टे पर लेते हैं. परमजीत ने दावा किया कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर फसल बेचने के लिए टोकन नहीं मिलने से 250 क्विंटल धान खेतों में पड़ा है.
उन्होंने कहा कि मुझे केवल 1,200 रुपये प्रति क्विंटल की पेशकश की जा रही है, और यह पर्याप्त नहीं है. अकेले सब कुछ मैनेज करना बहुत कठिन है.
28 साल के जगजीत सिंह ने कहा कि एक अट्टे एक, ग्याराह होंदे आ...(एक जमा एक ग्यारह होता है). अब, मैं सब कुछ अकेला कर रहा हूं. अकेले गेहूं की बुवाई कर रहा हूं, अकेले परिवार की देखभाल कर रहा हूं और अपने खर्च का प्रबंध भी अकेले ही कर रहा हूं.
9 दिसंबर 2020 को, उनके छोटे भाई जुगराज की सिंघू बॉर्डर से घर वापस जाते समय एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई.
जुगराज की मां अपने 22 साल के बेटे की तस्वीर अपने दामन में लेकर रोती हैं.
जगजीत ने फोन पर कहा कि हमारे पिता ज्यादातर बीमार थे, यही वजह है कि हमने कम उम्र में ही खेतों में काम करना शुरू कर दिया था. वह मेहनती और युवा थे, हम जल्द ही उसकी शादी करना चाहते थे.
इस साल पहली बार जगजीत को गेहूं की बुआई में देरी हुई है, क्योंकि उसे काम कराने के लिए मदद लेनी पड़ी है. उन्होंने कहा कि मैं सरकार के इस फैसले के बारे में क्या कहूं? वह अभी जिंदा होता अगर सरकार ने ऐसा नहीं किया होता. अब हमारे सपने चकनाचूर हो गए हैं.
पीएम नरेन्द्र मोदी द्वारा कानून वापस लेने की घोषणा के कुछ घंटों बाद, संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बयान जारी किया कि इस आंदोलन में 675 से अधिक किसानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा.
यूपी के डिब्डीबा गांव के हरदीप सिंह के लिए यही सोच उन्हें सुकून देती है. उनके 25 वर्षीय पोते नवरीत सिंह की गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के आईटीओ में ट्रैक्टर चलाने के दौरान मृत्यु हो गई.
हरदीप ने कहा वह कभी वापस नहीं आएगा. उसके जीवन के नुकसान की भरपाई कोई नहीं कर सकता, लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि हमने जीत हासिल की है और इसमें नवरीत का योगदान है.
अगर कोरोना महामारी नहीं आई होती, तो नवरीत अपनी पत्नी के साथ ऑस्ट्रेलिया में होते.
हरदेव ने तीन हफ्ते पहले टिकरी सीमा के पास अपनी मां गुरमेल की मौत के बारे में भी ऐसा ही कहा था. उन्होंने कहा कि इस घोषणा से मुझे एहसास हुआ कि मेरी मां का बलिदान बेकार नहीं गया. कम से कम अब किसी को चोट तो नही पहुंचेगी.
हरियाणा के करनाल में सरकारी कर्मचारी साहिल काजल की अगस्त के महीने ने जिंदगी बदल दी. उनके पिता सुशील एक किसान थे, जिनकी तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के दौरान मृत्यु हो गई.
हरियाणा पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किए जाने के एक दिन बाद 46 साल के सुशील को दिल का दौरा पड़ा थी. 28 अगस्त को पुलिस के साथ हुई झड़प में कई प्रदर्शनकारी किसान घायल हो गए थे. उस समय करनाल के एसपी गंगा राम पुनिया ने दावा किया था कि मौत की वजह पुलिस और किसानों की झड़प के दौरान लगी चोट नहीं थी.
अपने पिता की मृत्यु के बाद, साहिल एक सरकारी कार्यालय में काम करने लगे, जो कि कृषि संघों और सरकार के बीच किए गए सौदे का एक हिस्सा है. जहाँ वह प्रति माह 17 हजार रुपये कमाते हैं.
उन्होंने बताया कि
पिछले एक साल जिन किसानों की मौत हुई है, उनके परिवार बहुत दुःखी हैं. कड़कड़ाती ठंड या भीषण गर्मी में 85 साल के किसानों को सड़कों पर सोते हुए देखना वैसे भी कठिन था, और तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के फैसले के मुकाबले मौतें बड़ी हैं.
पिछले एक साल में मरने वाले किसानों के कई अन्य बच्चों की तरह रंजोध सिंह की आवाज में साफ दर्द झलक रहा है. अमृतसर के मोड गांव के निवासी रंजोध ने 1 अक्टूबर को अपने 65 वर्षीय पिता बलकार सिंह को खो दिया. उन्होंने कहा कि सिंघू बॉर्डर से वापस जाते समय बीमार पड़ने के बाद अमृतसर के एक अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई.
रंजोध ने कहा कि मोदी सरकार को किसानों को इतनी परेशानी में नहीं डालना चाहिए था.
उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि क्या कानून रद्द करने की फैसला अब हमारे मृतकों को वापस ला सकता है?
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