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दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. क्या ये पुरानी कहावत हमेशा सही साबित होती है? हमें ये सवाल कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी (आप) की वजह से पूछना पड़ रहा है, जिन दोनों का एक ही सियासी दुश्मन है- बीजेपी.
संसद के मॉनसून सत्र से पहले विपक्षी पार्टियों की अहम बैठक ने एक बार फिर इशारा दिया कि बहुत कठिन है डगर ‘गठबंधन’ की. सरकार के घेरने की रणनीति बनाने के लिए कांग्रेस की अगुवाई में हुई बैठक में 14 पार्टियों को बुलाया गया था लेकिन पहुंची 13.
जो नहीं पहुंची वो थी आम आदमी पार्टी. सत्ता के गलियारों में चर्चा है कि अगर कांग्रेस ने दरियादिली दिखाते हुए ‘आप’ को बुलाया था तो वो औपचारिकता के लिए ही सही गई क्यों नहीं.
इसकी दो वजहें हो सकती हैं:
‘आप’ के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने क्विंट से बात करते हुए इस बात की तस्दीक की कि उन्हें बुलावा आया था. उन्होंने कहा:
लेकिन 17 जुलाई को ऑल पार्टी मीटिंग में कांग्रेस को लेकर आप के तीखे तेवर साफ दिखे. उन्होंने राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद को कहा कि छोटे मन से बड़ी राजनीति नहीं होती.
वैसे ये भी दिलचस्प है कि अब तक कांग्रेस ने ‘आप’ को विपक्ष की किसी मीटिंग का न्यौता नहीं दिया.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 1 जून को लोकसभा चुनावों के लिए पदाधिकारियों की घोषणा की जिनमें दिल्ली की सात में से पांच सीटों को शामिल किया गया. बस फिर क्या था? खबर उड़ गई कि ‘आप’ कांग्रेस में 5-2 के सीट बंटवारे पर बात बन रही है जो बात बढ़ने पर 4-3 भी हो सकता है. इस पर अजय माकन की तीखी प्रतिक्रिया आई.
माकन ने लिखा कि ‘ जब दिल्ली के लोग लगातार केजरीवाल सरकार को खारिज कर रहे हैं तो हम उन्हें बचाने क्यों आएं? आखिरकार आरएसएस समर्थिक टीम अन्ना के साथ केजरीवाल ने ही मोदी के दैत्य को बनने में मदद की.’
लेकिन खास बात ये कि कांग्रेस आलाकमान ने खुद को उस तू तू- मैं मैं से दूर रखा.
क्विंट से बात करते हुए ‘आप’ नेता संजय सिंह ने साफ कहा:
तो क्या 2019 में दिल्ली में ‘आप’, कांग्रेस और बीजेपी का तिकोना मुकाबला होगा?
राजनीति संभावनाओं का खेल है इसलिए इस सवाल का सीधा जवाब फिलहाल नहीं दिया जा सकता लेकिन अस्तित्व का संकट हो तो बड़े दुश्मन से निपटने के लिए छोटे से हाथ मिलाया भी जा सकता है. और ये कहने की जरूरत नहीं कि बीजेपी ‘आप’ के लिए कांग्रेस से बड़ा दुश्मन है.
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