चार जुलाई का दिन कम से कम दिल्ली के इतिहास में ऐतिहासिक कहा जायेगा. इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने ये तय कर दिया कि दिल्ली में प्रशासन चुनी हुई सरकार के हिसाब से चलेगी न कि एक नौकरशाह के इशारे पर. ये लोकतंत्र की जीत है और एक बार फिर ये साबित हुआ है कि देश में संस्थानों में अभी भी जीवन है और उन्होंने अभी भी पूरी तरह से आत्मसमर्पण नहीं किया है.
दिल्ली के लोगों को एक बात का ही अफसोस होगा कि ये फैसला इतनी देर से आया. अगर पहले आया होता तो दिल्ली में प्रशासन की हालत इतनी खराब नहीं होती. उपराज्यपाल ने पिछले तीन सालों में मोदी सरकार के इशारे पर चुनी हुई सरकार को पूरी तरह से पंगु करने का काम किया. इससे फायदा किसका हुआ ? बस हुआ तो नुकसान. दिल्ली की जनता को खामखाह परेशान होना पड़ा. विकास रुका. उम्मीद है कि अब हमेशा के लिये उहापोह की स्थिति खत्म हो गई है. अब फिर से केंद्र के इशारे पर कोई अवरोध खड़ा करने की कोशिश नहीं की जायेगी.
शीला दीक्षित और बीजेपी की सरकार के समय भी एसीबी चुनी हुई सरकार के पास ही थी.
दिल्ली सरकार की ये स्थिति तीन फैसलों की वजह से हुई. एक- आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद सरकार अपना काम कर रही थी. पर अचानक 6 जून को न जाने क्या हुआ कि केंद्र सरकार की तरफ से फैसला आया कि एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास न होकर वो केंद्र सरकार के पास होगी. जो अपने आप में अजूबा था. एसीबी आप की पहली सरकार में पूरे समय दिल्ली सरकार के पास ही थी. शीला दीक्षित और बीजेपी की सरकार के समय भी एसीबी चुनी हुई सरकार के पास ही थी.
दो, कुछ महीनों के बाद केंद्र सरकार ने फिर फैसला सुनाया कि राज्य के नौकरशाह वो दिल्ली की चुनी सरकार को रिपोर्ट न कर, उपराज्यपाल को जवाबदेह होंगे. यानी नौकरशाह काम तो दिल्ली सरकार के लिये करेंगे पर उनकी ट्रांसफर, पोस्टिंग और अनुशासित करने का अधिकार चुनी सरकार के पास नही होगा ! ये अधिकार उपराज्यपाल को सौंप दिये गये. इसका सीधा अर्थ है कि नौकरशाह पर नियंत्रण चुनी सरकार का नही होगा, बल्कि उनका होगा जो जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे.
तीन, इस मामले में सबसे ज्दाया गड़बड़ दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से हुई. अदालत ने ये कह दिया कि उप राज्यपाल कैबिनेट के फैसले को मानने के लिये बाध्य नहीं होगे. इस फैसले से दिल्ली में अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई, जनता ने चुनकर “आप” को भेजा, अरविंद केंजरीवाल को मुख्यमंत्री माना पर सरकार चलाएंगे वो जिन्हें जनता ने नहीं चुना है. ये फैसला देश की लोकतांत्रिक परंपरा और संविधान की बुनियादी आस्था के खिलाफ था.
‘अफसर बिना मंत्री के सीधे फाइलें उपराज्यपाल को भेजने लगे’
इन तीन फैसलों के बाद दिल्ली में सरकार जनता की, पर राज उपराज्यपाल का हो गया. ऐसा देश में पहले किसी भी सरकार के साथ नहीं हुआ था. इतना ही नहीं उपराज्यपाल चाहे वो नजीब जंग हो या फिर अनिल बैजल नौकरशाहों को बुलाकर हड़काते थे और उन्हे धमकी दी जाती थी कि सोच लो अपने करियर के बारें में. केजरीवाल की सरकार तो कभी भी जा सकती है पर मोदी जी पंद्रह साल दिल्ली में रहेंगे. ये नौकरशाह निजी तौर पर आकर सरकार के नुमाइंदों को बताते थे.
वो कहते थे कि उनके हाथ बांध दिये गये हैं. वो ये भी कहते थे कि अगर हम आपके ज्यादा करीब आएंगे तो वो हमारा करियर चौपट कर देंगे. खौफ का माहौल भर दिया गया था. मंत्रियों को पूरी तरह से पैदल कर दिया गया था. अफसर बिना मंत्री के सीधे फाइलें उपराज्यपाल को भेजने लगे. फैसले हो जाते थे और मंत्रियों को जानकारी तक नहीं होती थी. जरूरी फाइलें महीनों लटकी रहती थीं. ये लड़ाई थी, जो अंदर चल रही थी. हर वो काम जिससे सरकार की छवि बेहतर होती उसे रोकने का काम किया गया. सबसे बड़ा उदाहरण मोहल्ला क्लीनिक है, जिसकी तारीफ पूरी दुनिया में हुई. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने चिठ्ठी लिखकर तारीफ की थी. पर उसके निर्माण का सारा काम ठप कर दिया गया.
जबकि संविधान के मुताबिक उपराज्यपाल सिर्फ तीन मामलों - पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर में ही कैबिनेट की बात मानने के लिये बाध्य नहीं है. स्वतंत्र फैसले कर सकते थे. पर वो सारे मामले में बादशाह बन गये. सुप्रीम कोर्ट की बेंच का बहुमत का फैसला साफ कहता है कि पहले वाली स्थिति बहाल होगी. उपराज्यपाल सिर्फ ऊपर के तीन मामलों में अपने विवेक से फैसले कर सकते हैं. बाकी के विषय में उन्हे कैबिनेट की बात माननी होगी. वो बाध्य होंगे. वे अब मनमानी नही कर पायेंगे. जैसा वो अब करते आये थे. यानी बादशाह नहीं होंगे.
इस फैसले से ये भी साफ हो गया है कि दिल्ली के अफसर भले ही केंद्र द्वारा नियुक्त आईएएस हो या दूसरे काडर के, एक बार उनकी नियुक्ति दिल्ली में हो गई तो फिर उनको चुनी हुयी सरकार के मुताबिक ही काम करना होगा. वो मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के प्रति जवाबदेह होंगे. वो मनमाना नही कर पायेंगे. उपराज्यपाल उनसे मनमाना नहीं करवा पायेंगे.
इसके दो फायदे होगे . एक, चुनी हुयी सरकार को अपने हिसाब से काम करने में आसानी होगी. वो नौकरशाहों की जवाबदेही तय कर पायेंगे. नौकरशाहों से पूछा जा सकेगा कि फला काम क्यों नहीं हुआ और और अगर देरी हो रही है तो फिर क्यों और उसके कारण क्या हैं. नौकरशाह बहानेबाजी नहीं कर सकते. इसके साथ ही अब आप सरकार की भी जवाबदेही तय होगी. वो ये नहीं कह पायेगी कि उसके हाथ बधे हैं. वो चपरासी भी नहीं नियुक्त कर सकते. काम में गति आई तो भला दिल्ली की जनता का होगा और अगर काम नही हुआ तो जनता तय करेगी “आप” सरकार का भविष्य.
‘बादशाह तो सिर्फ जनता होती है’
दो, उपराज्यपाल को भी संदेश साफ है कि लोकतंत्र में कोई बादशाह नही होता. बादशाह तो सिर्फ जनता होती है. चुने हुये लोग ही अहम होते है. गैर चुने हुये लोगों को ये भी समझना होगा कि वो भले ही चुने हुये लोगों से नफरत करें, पर उनका सम्मान उन्हे करना होगा. दिल्ली की पुलिस को भी संदेश जायेगा कि मनमाने तरीके से “आप” के विधायकों को गिरफ्तार वो नहीं कर सकते. उनको भी जनता के नुमाइंदों का सम्मान करना सीखना होगा.
और सबसे बड़ी बात . केंद्र की सरकार और बीजेपी को संदेश साफ है कि लोकतंत्र में जीत और हार लगी रहती है. हार का अर्थ ये कतई नहीं है कि केंद्र में बैठी पार्टी बदला लेने पर उतर जाये. अगर ऐसा हुआ तो केंद्र सरकार के जो मंत्रालय दिल्ली सरकार के साथ असहयोग कर रहे थे अब वो अपना रवैया बदलेंगे. और आगे से दिल्ली की सरकार के साथ सहकार की भावना से दिल्ली के विकास में मददगार साबित होंगे.
अंत में आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता के नाते मैं यहीं कह सकता हूं कि अब शायद मोदी जी दिल्ली में अगर किसी नई मेट्रो लाइन का उद्घाटन करें तो कम से कम अरविंद केजरीवाल को जरूर उसमें निमंत्रण देंगे. “आप और आप नेताओं” से नफरत अपनी जगह, पर लोकतंत्र में चुने हुये मुख्यमंत्री का सम्मान तो होना ही चाहिये. जनता ने चुना है. मुख्यमंत्री का अपमान जनता का अपमान होता है. पद की गरिमा का ख्याल तो रखना ही चाहिये.
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(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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