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आज भी इलाहाबाद का कोई छात्र अगर शपथ लेता है, तो सबसे पहले एक लाल के नाम की शपथ लेता है कौन था ये लाल, क्यों उसकी शपथ लेते हैं छात्र? आज ये भी जानेंगे कि पूरब की ऑक्सफोर्ड कही जाने वाली इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है, और जो हो रहा वो क्योंकि सिर्फ इसके स्टूडेंट के साथ गलत नहीं है, बल्कि पूरे देश के साथ है, देश की सियासत अपनी विरासत के साथ गलत कर रही है.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की लाल-पीली दीवारों पर अनगिनत उपलब्धियां अंकित हैं. विश्वविद्यालय ने भारत में अंग्रेजी हुकुमत के जुल्म को देखा और भारत को खुली हवा में सांस लेते भी देखा. उसने भारत को गिरते और संभलते भी देखा. उसने खेतों में काम कर रहे किसान के आखों में चमक देखी, जब उसका बेटा देश के सबसे सर्वोच्च पद पर आसीन हुआ. उसने देश के लिए क्या-क्या नहीं किया? उसने देश को राष्ट्रपति दिए. प्रधानमंत्री दिए, मुख्यमंत्री, नौकरशाह और बड़े-बड़े साहित्यकार दिए. लेकिन, आज वही विश्वविद्यालय कराह रहा है...कराह रहा है अपने बच्चों पर होते जुल्म को देखकर, कराह रहा है बच्चों के ऊपर बेतहाशा थोपी गई फीस वृद्धि पर लेकिन, उसके अंदर एक दिलासा भी है. वो अपने बच्चों से कह रहा है कि "दिल ना उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है.
दरअसल, यूनिवर्सिटी के छात्र आंदोलनरत हैं और आमरण अनशन पर बैठे...राजनीति की प्रयोगशाला रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव को रद्द कर दिया गया है. वहां, पिछली बार साल 2018 में चुनाव हुए थे, जिसमें समाजवादी छात्रसभा ने अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था. इसके बाद छात्रसंघ के चुनाव नहीं हुए हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन इसे रद्द कर छात्र परिषद के जरिए चुनाव कराना चाहता है, जिसका छात्र विरोध कर रहे हैं.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ को रद्द किए जाने का विरोध राजनीतिक चिंतक भी कर रहे हैं. उनका मानना है कि विद्यार्थी आंदोलन वास्तव में हमारी समकालीन राजनीति का विस्तार हैं. उसे रोका नहीं जाना चाहिए. अगर उच्च शिक्षण संस्थानों में भी लोकतंत्र सफल नहीं हो पाएगा तो भारत में लोकतंत्र कहां सफल होगा? उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी यह तय नहीं कर सकता कि उसका सही प्रतिनिधि कौन होगा तो उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह एक अच्छा नागरिक बन पाएगा और समाज में न्याय, समता और आधुनिक मूल्यों के पक्ष में खड़ा हो पाएगा, अपने विधायक और सांसद चुन लेगा. राजनीतिक चिंतकों का मानना है कि जिस समय आप एक अ-राजनीतिक समाज बना रहे होंगे, तो उस समय आप एक अ-सामाजिक और अन्यायपूर्ण समाज भी बना रहे होंगे.
जब साल 1942 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ने की बात की तो, तो इसी इलाहाबाद के एक छात्रनेता ने अपने सीने पर गोलियां खाई लेकिन, तिरंगे को झुकने नहीं दिया. आज जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र शपथ लेते हैं तो सबसे पहले वो लाल पद्मधर की शपथ लेते हैं.
दरअसल, 9 अगस्त 1942 को जब महात्मा गांधी ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से अंग्रेजों को तुरंत भारत छोड़ने के लिए ललकारा तो यहीं से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे शक्तिशाली आंदोलन की शुरूआत हुई. तब गांधी ने भारत को 'करो या मरो' का नारा दिया था. पूरा देश इस नारे में झूम उठा था. देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए थे. जिसका जवाब अंग्रेजी हुकूमत भारी दमन से दे रही थी. हर दिन हजारों आंदोलनकारी अंग्रेजों की गोलियों का निशाना बन रहे थे. जब इस क्रांति की आंच इलाहाबाद तक पहुंची तो इसका मोर्चा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता रहे लाल पद्मधर ने संभाला.
12 अगस्त को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने कलेक्ट्रेट को अग्रेजों से मुक्त कराने और तिरंगा फहराने की योजना बनाई. इस बैठक के बाद रात को 31 छात्रों ने देश के लिए मर मिटने की शपथ ली. 11 अगस्त की रात को लिए गये निर्णय के मुताबिक सुबह इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में छात्र छात्राओं का हुजूम उमड़ पड़ा था. इस बात की भनक अंग्रेजों को भी लग गई थी. कलेक्ट्रेट को छावनी में तब्दील कर दिया गया था. लेकिन इससे बेखौफ सुबह 11 बजे विश्व विद्यालय परिसर से विद्यार्थियों के दो जुलूस रवाना हुए. एक जुलूस कलेक्ट्रेट के लिए रवाना हुआ और दूसरा कर्नल गंज इंडियन प्रेस की ओर निकला. इस वक्त इलाहाबाद कलेक्टर डिक्शन ने आंदोलन को कुचलने का जिम्मा तब के एसपी एसएन आगा को दिया था. तब आगा ने लक्ष्मी टाकीज चौराहे के पास कलेक्ट्रेट की ओर बढ़ रहे जुलूस को रोक दिया था. जुलूस के सामने सैकड़ों अंग्रेज सिपाही बंदूकें तान कर खड़े थे.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से निकले जुलूस में छात्राओं की टोली का नेतृत्व नयन तारा सहगल और छात्रों की टोली का नेतृत्व लाल पद्मधर कर रहे थे. नयन तारा पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित की पुत्री थीं. यूनिवर्सिटी के सामने से इंकलाब जिंदाबाद, अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे नारों के साथ जुलूस निकल पड़ा था. देशभक्ति की हिलोर मारती युवाओं की टोली इलाहाबाद की कचहरी की ओर बढ़ चली. कचहरी की ओर जाने वाली गलियां एक साथ नारों से गूंजने लगी.
इलाहाबाद के तत्कालीन कलेक्टर डिक्सन और पुलिस अधीक्षक आगा ने जुलूस को बल प्रयोग करके तितर-बितर करने का प्लान बनाया और कचहरी से पहले ही छात्रों के जुलूस को अंग्रेजी पुलिस टुकड़ी ने रोक दिया. सभी को वापस लौट जाने की चेतावनी दी गई. चेतावनियों के बाद जब जुलूस नहीं रुका तो डिक्सन ने लाठी चार्ज का आदेश दे दिया.
छात्रों के जुलूस पर लाठियां बरसाई जाने लगीं, बावजूद देश प्रेम में मतवाले युवाओं पर लाठी चार्ज बेअसर रहा. लेकिन, इसी वक्त अंग्रेजों ने छात्रों के जुलूस के बीच कुछ असामाजिक तत्वों को घुसा दिया. इनमें से कुछ ने पुलिस पर पथराव कर दिया. अंग्रेज अपनी चाल में कामयाब रहे और उन्होंने बिना किसी वॉर्निंग के फायरिंग शुरू कर दी. हालात बिगड़ते देख ज्यादातर छात्र जमीन पर लेट गए. नयनतारा सहगल भी गोलियों से बचने के लिए तिरंगे समेत जमीन पर लेटने लगीं. सुरक्षा देने के लिए लाल पद्मधर सिंह साए की तरह नयनतारा के पीछे ही चल रहे थे. जैसे ही लाल पद्मधर सिंह ने देखा कि तिरंगा नीचे गिर रहा है तो बरसती गोलियों के बीच लाल पद्मधर ने दौड़ कर नयनतारा से तिरंगा अपने हाथ में ले लिया.
गोलियां चलना बंद हुईं, तो जुलूस बढ़ने लगा और अब नेतृत्व लाल पद्मधर सिंह के हाथ में आ गया. जब जुलूस मनमोहन पार्क के पास पहुंचा तो फिर सख्त चेतावनी दी गई कि अगर आगे बढ़ोगे तो गोलियों से भून दिए जाओगे. तब लाल पद्मधर ने कहा ‘मारो देखते हैं कि कितनी गोलियां फिरंगियों की बंदूकों में हैं. उसी समय एक गोली लाल पद्मधर के सीने का चीरते हुए निकल गई. घायल पद्मधर को साथी मनमोहन पार्क के पास स्थित पीपल के पेड़ के नीचे ले गए, जहां पर उन्होंने अंतिम सांस ली.
इसके बाद अंग्रेजों ने छात्रसंघ चुनाव को रद्द कर दिया. हालांकि, दोबारा साल 1945 में छात्रसंघ को बहाल कर दिया गया. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के 135 साल के इतिहास में छात्रसंघ को कई बार रद्द किया गया, लेकिन छात्रों के आंदोलन के आगे हर बर हुकुमत को झुकना पड़ा. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने दुनिया को कई नामचीन हस्तियां दीं, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री सूर्य बहादुर थापा, मदनमोहन मालवीय, गुलजारी लाल नंदा, महादेवी वर्मा, फिरोज गांधी और फिराक गोरखपुरी. इसकी लिस्ट बहुत लंबी है.
आज इलाहाबाद प्रशासन ने छात्रसंघ चुनाव रद्द कर दिया है. इसके पीछे वो पढ़ाई नहीं हो पाना और कैंपस में अराजकतत्वों का जमावड़ा बता रहा है. फीस वृद्धि पर प्रशासन का कहना है कि फीस वृद्धि समय की मांग है. सरकार ने साफ कर दिया है कि अपना खर्चा खुद ही उठाना पड़ेगा थोड़ा बहुत हम मदद कर देंगे. लेकिन, दूसरा पहलू ये है कि इस विश्वविद्यालय में पूर्वांचल समेत देशभर से करीब 70 से 80 फीसदी गरीब, मजदूर, किसान के बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं, ताकि वो फीस वहन कर सकें और शिक्षा की गुणवत्ता भी अच्छी मिल सके.
सरकार इस नजरिये से भी सोचे के विश्वगुरु का सपना देख रहा राष्ट्र क्या अपने बच्चों को शिक्षा दिए बगैर हासिल कर सकता है? छात्रों पर तोहमत लगाने वाली सरकारें देखे कि देशभर की यूनिवर्सिटियों में 11 हजार से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं, इसका जिम्मेदार कौन है? कौन छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है? 100 साल से अधिक सीना तानकर खड़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय शर्मिंदा है कि जिस कैंपस में पढ़ने-पढ़ाने वालों की चहल-पहल होनी चाहिए थी, उस कैंपस में पुलिस की बूटों की धमक सुनाई दे रही हैं.
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