advertisement
राजपथ अब कर्तव्य पथ हो गया है. इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक महज तीन किलोमीटर की सड़क के चारों तरफ देश की सत्ता का केंद्र है. यहां से लिए गए फैसलों ने देश को सजाया, संवारा, बिगाड़ा, बढ़ाया, पीछे किया है. इस कर्तव्य पथ ने हर उस चीज का गवाह रहा है जिससे ये देश बना है या नहीं बना है
मैं कर्तव्य पथ हूं....मैंने 18 प्रधानमंत्रियों और 15 राष्ट्रपतियों के शासनकाल को देखा है...मैंने सत्ता के शीर्ष पर चढ़े सत्तासीनों के पराभव को भी देखा है...मैंने सरकारों को बनते और गिरते देखा है...मैं ही तो था, जिसने देश के लिए जान कुर्बान करने वाले सपूतों की अमर जवान ज्योति को अपने सीने पर जलाए रखा. मैं पिछले 68 साल से भारत को गौरवान्वित करने वाली गणतंत्र दिवस की परेड का साक्षी रहा हूं...मैं साक्षी रहा हूं, भारत के गुस्से और प्यार का...आंसुओं का अरमानों का.
मुझे याद है 1955 की वो पहली परेड. उस दिन मेरा सीना बहुत चौड़ा हो गया था. अपनी धरती पर, अपने गणतंत्र की परेड देखकर मैंने स्वतंत्रता को करीब से महसूस किया...1973 में मैंने जमीन से हवा में मार करने वाली भारत की पहली मिसाइल देखी और उसके बाद लगातार मजबूत होती हमारी सेना को देखा, उनके शौर्य को देखा.
1975 में जब गणतंत्र पर इमरजेंसी लादी गई तो मैं चुपचाप देखने को मजबूर हुआ. लेकिन फिर यहीं खड़े होकर मैंने कुछ दूर रामलीला मैदान में जेपी की वो हुंकार भी देखी. इस हुंकार से 'लोहे' को पिघलते भी मैंने देखा. मुझे लगा कि आगे आने वाले हुक्मरान जरूर इस क्रांति से सीख लेंगे. लेकिन आज जो मैं देख रहा हूं उससे मेरा ये यकीन टूटता जा रहा है.
1990 में मैंने मंडल और कमंडल के नाम पर देश को बंटते देखता. मैंने देखा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान का आत्मदाह. समाज को बराबरी पर लाने के लिए जो आरक्षण दिया गया उसने कैसे समाज को और बांटा. जिन्हें फायदा मिलना चाहिए था, उन्हें नहीं मिला और उनके नाम पर दिल्ली पहुंच गए लोग.
अपने सीने में मैंने 1984 का खंजर महसूस किया. इस खंजर से खून किसी का भी बहा लेकिन खून के आंसू मैं भी रोया. इन दंगों ने मुझे ऐसे घाव दिए जो कभी भरे ही नहीं, जब तब ये घाव हरे हो जाते हैं. इसी तरह एक जख्म मैंने 6 दिसंबर,1992 को पाया. अयोध्या में भारतीय संस्कृति का कत्ल होता रहा और दिल्ली की कुर्सी पर बैठे लोगों ने कुछ नहीं किया. इस एक दिन में भारत की गंगा जमुनी तहजीब पर इतने और इतने जोर से हथौड़े चले कि इसकी बुनियाद ही कमजोर हो गई.
2001 में मैंने अपने लोकतंत्र के मंदिर संसद पर दुश्मनों के हमले को देखा और अपने सपूतों की जांबाजी भी. इस घटना ने मुझे एहसास कराया कि आतंकवाद की छुरी सीधे दिल तक पहुंच गई है और अब हमारे सत्ताधीक्षों को कुछ ठोस करना होगा. अफसोस वो सबकुछ अब तक नहीं हो पाया है.
मैंने यहीं बैठे-बैठे अपने आसपास 2011 के अन्ना आंदोलन को मूर्त रूप लेते देखा और देखा कि कैसे इस आंदोलन ने देश की सियासत हिला कर रख दी. फिर निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए मेरी जमीन पर उतरे प्रदर्शनकारियों की बात भी मैंने सुनी. इन तमाम घटनाओं का असर 2014 के चुनाव पर पड़ा और देश की सत्ता बदली.
मुझे याद है 26 मई 2014 को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में वो भव्य शपथ ग्रहण समारोह जिसमें देश विदेश से हजारों अतिथि आए. 2014 के बाद से देश की राजनीति ऐसी बदली कि जिसकी किसी ने कल्पना नहीं थी. कुछ लोग तो कहने लगे कि 2014 में ही भारत आजाद हुआ. ये कैसी फूहड़ बात है.
जैसे-जैसे दिन आगे बढ़ रहे हैं, खुलकर बोलना मुश्किल होता जा रहा है. सरकार की आलोचना को राजद्रोह कहा जा रहा है. नागरिकता देने में धर्म के नाम पर भेदभाव के खिलाफ आंदोलन मैंने देखा, तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन मैंने देखा और देखा कि किस तरह अपने ही जवान और अपने ही किसान देशद्रोही बता दिए गए.
कुछ चीजें जो मैं देखना चाहता हूं वो नहीं देख पाया हूं. मैंने वो दिन देखना चाहता हूं जब कोई भूखा न सोए, कोई बेरोजगार न रहे. मेरे बच्चे धर्म और जाति के नाम पर आपस में न लड़ें. मैंने वो वादा सुना है मेरे बच्चों के पास खूब रोजगार होंगे, हर तरफ खुशहाली होगी. दुनिया में मेरा देश सिरमौर होगा. मैं उस दिन के इंतजार में हूं कि ये सब देख पाऊं. मुझे यकीन है कि एक दिन ऐसा जरूर होगा लेकिन मुझे डर है कि धर्म और जाति के नाम पर बंटे देश में ये कैसे होगा, कब होगा, कौन करेगा. मैं राजपथ था, राजधर्म बताता रहा. अब मैं कर्तव्य पथ हूं, कर्तव्यों की याद दिलाता रहूंगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined