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"मैं सुरक्षित हूं और लाखों पुलिसकर्मियों की तैनाती के बावजूद ऊपर वाले की कृपा से भागने में कामयाब रहा"- फरार चल रहे वारिस पंजाब दे के प्रमुख अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh) ने 29 मार्च को एक वीडियो जारी कर यह बात कही. इस वीडियो ने पिछले 12 दिनों से लग रहीं उन अटकलों पर विराम लगा दिया कि क्या अमृतपाल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया है या क्या वह अभी भी फरार है? 'वारिस पंजाब दे' (Waris Punjab De) के खिलाफ 18 मार्च को शुरू हुई कार्रवाई के बाद से पंजाब पुलिस उसे पकड़ने की कोशिश कर रही है.
लेकिन इससे इतर अमृतपाल सिंह के वीडियो संदेश का यह एक और पहलू है जो आने वाले दिनों में और अधिक महत्वपूर्ण होने जा रहा है- उसने अकाल तख्त जत्थेदार से 14 अप्रैल को बैसाखी पर सरबत खालसा बुलाने की अपील की है. बता दें कि अकाल तख्त सिखों के लिए सबसे बड़ा अस्थायी निकाय है.
इस आर्टिकल में हम इन सवालों का जवाब देने की कोशिश करेंगे
सरबत खालसा क्या है और यह अहम क्यों है?
सरबत खालसा बुलाने की अपील के पीछे अमृतपाल सिंह की रणनीति क्या है ?
आगे अकाल तख्त, पंजाब सरकार, केंद्र और अमृतपाल सिंह के पास क्या विकल्प हैं?
वीडियो में अपने बयान के दौरान अमृतपाल सिंह ने कहा, "अहमद शाह अब्दाली द्वारा सिखों का नरसंहार करने के बाद सरबत खालसा का आयोजन किया गया, जिसमें सभी शामिल हुए. एक भी सिख पीछे नहीं रहा. अगर हमें पंजाब को बचाना है, तो हमें सरबत खालसा में हिस्सा लेना होगा."
तो सरबत खालसा क्या है?
सरबत खालसा का शाब्दिक अर्थ है 'संपूर्ण सिख राष्ट्र'. 18वीं शताब्दी के दौरान कई अवसरों पर सरबत खालसा को बुलाया गया था, लेकिन 19वीं शताब्दी की शुरुआत में इसे बंद कर दिया गया.
महंत प्रथा को खत्म करने के मामले में 1920 में एक महत्वपूर्ण सरबत खालसा हुआ. महंतों ने आंशिक रूप से अंग्रेजों के समर्थन से कई गुरुद्वारों पर नियंत्रण कर लिया था. 1920 में सुधारवादियों द्वारा उन्हें हटा दिया गया और 1920 के सरबत खालसा के बाद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की स्थापना की गई.
छह दशक से अधिक के गैप के बाद, 1980 के अशांत दशक में कई सरबत खालसा सभाएं हुईं. लेकिन इन सभाओं ने दिखाया कि समुदाय के भीतर फूट है और यह सरकार समर्थक और सरकार विरोधी सिखों में बंटा हुआ है.
1986 में एक के बाद एक दो सरबत खालसा सभाएं आयोजित की गईं - एक SGPC और अकाल तख्त के समर्थन के बिना और दूसरी स्वयं दो निकायों द्वारा आयोजित की गई.
दमदमी टकसाल और ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन द्वारा 26 जनवरी 1986 को आयोजित सरबत खालसा ने SGPC और अकाल तख्त को सिख मामलों पर नियंत्रण से वंचित कर दिया. इसने अकाल तख्त के जत्थेदार किरपाल सिंह की जगह जरनैल सिंह भिंडरावाले के भतीजे के जसबीर सिंह रोडे को बैठाने की बात की.
टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार आईपी सिंह के अनुसार जनवरी 1986 के सरबत खालसा और 29 साल बाद - 2015 में आयोजित अगले महत्वपूर्ण सरबत खालसा के बीच मजबूत समानताएं हैं.
वे लिखते हैं, ''दोनों में से किसी को भी अकाल तख्त के मौजूदा जत्थेदार ने नहीं बुलाया था. दोनों ने अकाल तख्त के जत्थेदार को हटाने का प्रस्ताव पास किया था.''
2015 का सरबत खालसा बरगाड़ी में बेअदबी की घटनाओं और कोटकपूरा में पुलिस फायरिंग के बाद आयोजित किया गया था, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी. यह प्रकाश सिंह बादल और अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन पंजाब सरकार के खिलाफ नाराजगी का संकेत था. डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत रहीम को बेअदबी के एक मामले में क्षमा करने के लिए तत्कालीन जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह की आलोचना की गई थी.
आईपी सिंह बताते हैं कि 1986 और 2015 के सरबत खालसा सभाओं में वैकल्पिक सिख नेतृत्व के बारे में कोई स्पष्टता नहीं थी.
1920, 1986 और 2015 के सरबत खालसा सभाओं से पता चलता है कि इसे अकाल तख्त या एसजीपीसी द्वारा बुलाए जाने की आवश्यकता नहीं है.
हालांकि, लगता है कि अमृतपाल सिंह ने अकाल तख्त के जत्थेदार को नेतृत्व करने और सरबत खालसा बुलाने की अपील करके सुरक्षित तरीके से खेला है. अपने वीडियो सन्देश के दौरान, अमृतपाल यह दिखाने की कोशिश करता दिख रहा है कि वह अकाल तख्त के जत्थेदार के पक्ष में हैं. उसने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के साथ अपने जुबानी जंग में भी जत्थेदार के लिए समर्थन व्यक्त किया है. उसने अपने बयान के दौरान एक बार भी खालिस्तान का जिक्र नहीं किया.
यह दिलचस्प इसलिए भी है क्योंकि अमृतपाल सिंह के गुरु पापलप्रीत सिंह, जिन्होंने शायद अमृतपाल को सरबत खालसा बुलाने की मांग करने की सलाह दी है, 2015 के सरबत खालसा के आयोजकों में से एक थे. पापलप्रीत भी अमृतपाल के साथ फरार बताया जा रहे हैं.
अमृतपाल सिंह निस्संदेह मुख्यधारा के सिख नेतृत्व के लिए खतरा है. लेकिन सीधे उनसे मुकाबला करने के बजाय, अकाल तख्त जत्थेदार ने अमृतपाल सिंह के कुछ काम को मुख्यधारा के सिख निकायों के दायरे में लाने की कोशिश की है.
27 मार्च को अकाल तख्त जत्थेदार द्वारा बुलाई गई उच्च स्तरीय बैठक में यह स्पष्ट हुआ था. बैठक के बाद, जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने घोषणा की कि अकाल तख्त सिख मूल्यों को बढ़ावा देने और नशीली दवाओं और सिख विरोधी प्रथाओं के खिलाफ एक खालसा वाहीर की शुरुआत करेगा.
सरबत खालसा के लिए अपनी अपील के जरिए अमृतपाल सिंह ने जो किया है, वह ठीक इसके उलट है. उसने अकाल तख्त के जत्थेदार को राज्य और केंद्र सरकारों के साथ अधिक टकराव वाले दृष्टिकोण की ओर धकेलने और उसे अपनी राजनीति के करीब लाने की कोशिश की है.
सरबत खालसा के रूप में एक बड़ी सभा को बुलाना भी अमृतपाल सिंह का नैरेटिव सेट करने का तरीका है. जत्थेदार ने 27 मार्च को एक उच्च स्तरीय बैठक करके नैरेटिव को नियंत्रित करने का प्रयास किया. बैठक के बाद की गई मांगें सरकार की आलोचनात्मक हैं और बड़े परिवर्तन से जुडीं हैं,
लेकिन, सरबत खालसा जैसा एक बड़ा जमावड़ा और अधिक कठोर स्टैंड के लिए मंच प्रदान कर सकता है.
अकाल तख्त निश्चित रूप से इस दुविधा में होगा कि अमृतपाल सिंह के सरबत खालसा बुलाने के अनुरोध को माने या नहीं.
अगर वह सहमत होता है, तो यह अमृतपाल सिंह के कद को काफी बढ़ा देगा. इससे केंद्र और राज्य सरकारों के साथ टकराव बढ़ने का जोखिम भी होगा, जो संभावित रूप से 18 मार्च के बाद की तुलना में उससे भी बड़ी कार्रवाई का कारण बन सकता है.
अभी तक जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह 2015 के नेतृत्व की तुलना में ऐसी चुनौतियों से निपटने में कहीं अधिक डिप्लोमेटिक रहे हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि वह इस मौजूदा स्थिति से कैसे निपटते हैं और अगले कदम पर आम सहमति पर पहुंचते हैं.
पंजाब सरकार और केंद्र के लिए मुख्य चुनौती यह होगी कि सरबत खालसा को होने से कैसे रोका जाए या कम से कम इसके प्रभाव को कैसे रोका जाए. यह तब कि जब दोनों सरकारें इस मुद्दे पर एक साथ हों.
2015 के सरबत खालसा ने सिख समुदाय के भीतर मंथन तेज कर दिया और तत्कालीन राज्य सरकार को कमजोर कर दिया. अगर फिर से सरबत खालसा होता है और बड़ी सभा होती है, तो उसका वैसा ही असर हो सकता है.
अमृतपाल सिंह के लिए यह कदम एक बड़ा दांव है. वारिस पंजाब डी प्रमुख के पास अभी एक बहुत बड़ी सभा को संगठित करने के लिए संगठनात्मक ताकत नहीं है. संगठन के कई मोबिलाइजर्स को गिरफ्तार किया गया है.
यदि अकाल तख्त सरबत खालसा बुलाने की मांग को नहीं मानता है, तो यह सभा काफी हद तक एसएडी-अमृतसर और दल खालसा जैसे संगठनों पर निर्भर होगी. अब देखना यह होगा कि इस तरह के कितने वैकल्पिक पंथिक संगठन इस कदम का समर्थन करते हैं. उनमें से कई सरकारी जांच के विभिन्न स्तरों का सामना कर रहे हैं, इसलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि वे इसमें शामिल होंगे ही.
एक बड़ी लामबंदी के लिए एक और बाधा वह डर है जो वर्तमान में कई सिख संगठनों के साथ-साथ आम नागरिकों में भी मौजूद है. सभी ऐसा कदम उठाने के लिए उत्सुक नहीं होंगे जिससे तनाव बढ़ने की संभावना हो या जिससे उनपर कोई सरकारी एक्शन हो.
अगर अमृतपाल के इस बुलावे के बावजूद कोई महत्वपूर्ण लामबन्दी नहीं होती है, तो जेल से बाहर रहने पर भी यह शायद उनकी राजनीतिक का अंत होगा. दूसरी तरफ अगर सरबत खालसा बुलाने का यह दांव सफल होता है, तो यह अमृतपाल सिंह और पापलप्रीत सिंह की रणनीति के लिए एक बड़ी जीत होगी.
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