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BJP गठबंधन के साथियों से क्यों पल्ला झाड़ रही है, अब किसकी बारी? 

हिंदुत्ववादी पहचान की वजह से मुसलमान, सिख और ईसाईयों के बीच बीजेपी को जगह मिलने की संभावना बहुत कम रह गई है.

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Published:
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने पार्टी के तौर पर असाधारण बढ़त हासिल की. अब पार्टी अपनी सहयोगी दलों को छोड़कर आगे बढ़ने की ओर है.
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नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने पार्टी के तौर पर असाधारण बढ़त हासिल की. अब पार्टी अपनी सहयोगी दलों को छोड़कर आगे बढ़ने की ओर है.
(फोटो: अरूप मिश्रा/द क्विंट)

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2019 में मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ने वाली तीन पार्टियां आज बीजेपी के गठबंधन से बाहर है.

  • सबसे पुरानी सहयोगी और घटक दलों में सबसे बड़ी पार्टी शिवसेना ने इस हफ्ते बीजेपी का दामन छोड़ दिया. बीजेपी ने शिवसेना को मनाने की कोशिश भी नहीं की, भले ही पार्टी ने भारत के सबसे अमीर राज्य महाराष्ट्र में सरकार बनाने का मौका गंवा दिया.
  • झारखंड में बीजेपी ने सीटों के बंटवारे की मांग खारिज कर दी, तो ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन ने अपने दम पर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है.
  • इस साल जुलाई में कांग्रेस के विधायकों के बीजेपी में शामिल होने के बाद गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने गोवा फॉरवर्ड पार्टी के मंत्रियों को अपने कैबिनेट से बाहर कर दिया. देखा जाए तो दरअसल गोवा फॉरवर्ड को एनडीए से बाहर खदेड़ दिया गया.

इतना ही नहीं, बीजेपी एनडीए के कई और घटक दलों से किनारा कर रही है. पार्टी ने न तो झारखंड में जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी के लिए कोई जगह छोड़ी और न ही पिछले महीने हुए हरियाणा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के साथ कोई साझेदारी की.

यहां दो सवाल खड़े होते हैं:

  1. एक-एक कर बीजेपी अपने घटक दलों को किनारे क्यों कर रही है?
  2. बीजेपी अब किस साथी दल से पीछा छुड़ाने जा रही है?

इसे समझने के लिए बीजेपी के अपने गुणा-भाग पर ध्यान देना जरूरी होगा.

2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 37.8 फीसदी वोट हासिल किए. पार्टी 436 सीटों पर चुनाव लड़ी और इन सीटों पर इसका वोट शेयर करीब 47 फीसदी रहा.

बीजेपी के लिए इसी रफ्तार से पार्टी का विस्तार करना मुश्किल होगा. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में बीजेपी को उम्मीद से ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

हिंदुत्ववादी पहचान की वजह से मुसलमान, सिख और ईसाईयों के बीच बीजेपी को जगह मिलने की संभावना बहुत कम रह गई है.

इन ढांचागत कमजोरियों को समझना जरूरी है, क्योंकि किसी भी गठबंधन के टिकने और टूटने की वजह इसी से तय होती है.

इसलिए बीजेपी के पास अब एक ही विकल्प बचा है, वो है हिंदू वोटबैंक को और मजबूत करना और ऐसा तभी मुमकिन है, जब बीजेपी अपने ही घटक दलों के जनाधार में सेंध लगाती है.

हिंदू वोटरों में बीजेपी सेचुरेशन प्वाइंट तक पहुंच चुकी है

चुनाव के बाद किए गए लोकनीति-CSDS के सर्वे के मुताबिक, 2014 में 36 फीसदी हिंदुओं ने बीजेपी को वोट दिए. 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 44 फीसदी हो गया. बीजेपी के घटक दलों में यह इजाफा कम रहा – क्रमश: 7 फीसदी से बढ़कर 8 फीसदी.

जाति/समुदाय के आधार पर बीजेपी को समर्थन

हिंदू समुदाय के सभी जातियों में बीजेपी का समर्थन बढ़ा, लेकिन सिख और ईसाईयों में यह तादाद घटी और मुसलमानों में पहले जैसी ही रही.

यह बढ़ोतरी कमोबेश सभी जातियों में देखी गई.

उच्च हिंदू जातियों में बीजेपी का वोट शेयर जहां 2014 में 47 फीसदी था, 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 52 फीसदी हो गया. वहीं गठबंधन के दूसरे दलों का प्रदर्शन इस दौरान 9 फीसदी से गिरकर 7 फीसदी तक पहुंच गया. इससे पता चलता है कि ऊंची जातियों में बीजेपी के मुकाबले उसके घटक दलों का दबदबा बेहद कम है.

ठीक ऐसा ही रुझान हिंदू अनुसूचित जनजातियों में देखा गया. जहां बीजेपी का वोट शेयर 37 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया, इसके साथी दलों का वोट शेयर 3 फीसदी से घटकर 2 फीसदी हो गया.

हिंदू ओबीसी के वोटरों मेंबीजेपी का शेयर 10 फीसदी उछला, 2014 में 34 फीसदी के मुकाबले यह आंकड़ा 2019 में 44 फीसदी तक पहुंच गया, जबकि बीजेपी के घटक दलों के वोट शेयर में सिर्फ 2 फीसदी का इजाफा हुआ.

बीजेपी को मिलने वाले दलित वोट में भी बढ़ोतरी हुई, हालांकि ऊंची जाति और ओबीसी में पार्टी की पहुंच के मुकाबले यह समर्थन कुछ खास नहीं रहा.

कुल मिलाकर बीजेपी को गैर-दलित हिंदुओं का करीब 50 फीसदी वोट हासिल हुआ. हिंदुओं में बीजेपी के बढ़ते दबदबे के विपरीत जहां सिखों में पार्टी का वोट शेयर काफी गिरा, मुसलमानों में पहले जैसी स्थिति बनी रही और ईसाईयों के वोट में मामूली इजाफा हुआ.

हिंदू वोट के एकजुट होने की यह तस्वीर राज्यों का आंकड़ा देखने पर साफ हो जाती है.

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2019 के CSDS सर्वे के मुताबिक, एनडीए को कई राज्यों में बंपर हिंदू वोट मिले. जैसे कि असम में 70 फीसदी, गुजरात में 67 फीसदी, कर्नाटक में 58 फीसदी, मध्य प्रदेश में 60 फीसदी, राजस्थान में 63 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 59 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 57 फीसदी, दिल्ली में 66 फीसदी और झारखंड में 64 फीसदी हिंदू वोट हासिल हुए.

इन सभी राज्यों में जीत का पूरा श्रेय बीजेपी को मिला, जबकि एनडीए के घटक दल अल्पमत में रहे, 1-2 सीट जीतने वाली इन पार्टियों में झारखंड की AJSU, राजस्थान की RLP, यूपी का अपना दल और असम की AGP शामिल थी.

सिर्फ बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बीजेपी को अपने सहयोगी दलों पर निर्भर होना पड़ा. तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के साथी दलों का प्रदर्शन खराब रहा.

बीजेपी चाहती है कि हर हिंदू वोटर सिर्फ बीजेपी को वोट दे और इस लक्ष्य को हासिल करने में सहयोगी दल ही उसकी सबसे बड़ी मुश्किल बन चुके हैं.

महाराष्ट्र में शिवसेना को गठबंधन से जाने देने का फैसला भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. बीजेपी और शिवसेना दोनों के हिंदुत्ववादी पार्टी होने की वजह से महाराष्ट्र में इनके जनाधार में कोई खास अंतर नहीं रहा है.

बीजेपी को उम्मीद है कि अगर शिवसेना अपने सिद्धांतों से समझौता कर कांग्रेस और एनसीपी जैसी ‘सेक्युलर’ पार्टियों के साथ सरकार बनाती है, तो उसके लिए शिवसेना के वोटबैंक के बड़े हिस्से पर कब्जा करना आसान हो जाएगा.

इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने गोवा में गोवा फॉरवर्ड पार्टी से हाथ धो लिया और झारखंड में AJSU की मांगों को मानने से इनकार कर दिया.

गोवा फॉरवर्ड पूर्व बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं की पार्टी है जिनका जनाधार बीजेपी से ज्यादा अलग नहीं है. ठीक वैसे ही AJSU के समर्थकों में ज्यादातर OBC और आदिवासी हैं, जिनमें बीजेपी की पैठ बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है.

अब गठबंधन के किस दल की बारी है?

बीजेपी अब अपने घटक दलों में से किसे दरकिनार करेगी यह बहुत अधिक तक उस पार्टी के जनाधार के खिसकने की संभावना पर निर्भर करता है.

पार्टियों के सामाजिक ढांचे के मुताबिक, बीजेपी के इन सहयोगी दलों को मुख्य तौर पर चार भागों में बांटा जा सकता है.

1. गैर-हिंदू समुदायों में पैठ वाले दल

इनमें पंजाब का शिरोमणि अकाली दल, नागालैंड की NDPP और मेघालय की NPP शामिल है. गैर-हिंदू समुदायों में इन पार्टियों की अच्छी पैठ होने की वजह से बीजेपी के लिए यहां ज्यादा कुछ हासिल होने की संभावना नहीं है. इसलिए बीजेपी के विस्तारवादी कोशिशों से इन दलों को कोई खतरा नहीं है.

सच्चाई तो यह है कि नागरिकता संशोधन बिल जैसी बीजेपी की हिंदु्त्ववादी नीतियों की वजह से NDPP और NPP जैसी पार्टियों को अपना वोट बैंक खिसकने काडर बना रहता है.

अकाली दल का मामला थोड़ा जटिल है. बीजेपी पंजाब में अपना जनाधार बनाने की कोशिश में लगी है, लेकिन सिख वोटरों में पार्टी के लिए कोई खास उत्साह नहीं दिखता. हालांकि बीजेपी ने यह साफ कर दिया है कि 2022 के पंजाब चुनाव में वह पिछले सालों के मुकाबले ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. अब देखना यह है कि अकाली दल बीजेपी की इस मांग पर क्या रुख अख्तियार करता है.

2. क्षेत्रवादी पार्टियों वाले राज्य जहां बीजेपी कमजोर है

इनमें तमिलनाडु की AIADMK और PMK जैसी पार्टियां शामिल हैं, जहां बीजेपी पारंपरिक तौर पर कमजोर रही है और हालात अब भी ऐसे ही बने हैं. इन पार्टियों को बीजेपी के प्रसारवादी अभियान से कोई खतरा नहीं है. इन पार्टियों को सिर्फ इस बात का खतरा होता है कि उनसे अलग होकर बीजेपी राज्य में उनके विरोधियों से ही ना हाथ मिला ले.

3. जाति-जनजाति पर आधारित पार्टियां

बीजेपी के कई घटक दल ऐसे हैं जिनका प्रभाव पूरे राज्य में ना होकर सिर्फ एक जाति विशेष तक सीमित है. इनमें राम विलास पासवान की LJP शामिल है जिसका बिहार के पासवान वोटरों पर दबदबा कायम है, पूर्वी उत्तर प्रदेश का अपना दल (सोनेलाल) कुर्मियों की पार्टी है, राजस्थान में हनुमान बेनिवाल की RLP जाट वोटरों में काफी मशहूर है, हरियाणा के जाटों में JJP की पैठ है, BPF बोडो की पार्टी है और आरपीआई(अठावले) का महाराष्ट्र में महारों में अच्छा प्रभाव है.

परंपरागत तौर पर इन समुदायों में बीजेपी की पकड़ काफी कमजोर है, जिसकी भरपाई के लिए पार्टी ने इन दलों के साथ सांठगांठ की.

हालांकि गठबंधन बनने के बाद इन समुदायों में बीजेपी की पहुंच पहले से बेहतर हुई है. और जिस तरह से बीजेपी ने ओबीसी, दलित और आदिवासियों में अपनी पैठ बढ़ाई है, भविष्य में पार्टी के विस्तारवादी प्लान से इन छोटे-छोटे दलों पर खतरा बढ़ सकता है. फिलहाल यह पार्टियां महफूज दिख रहीं हैं.

4. क्षेत्रवादी पार्टियों वाले राज्य जहां बीजेपी मजबूत है

जहां अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बीजेपी के मुकाबले ऐसी क्षेत्रवादी पार्टियों को ही वोट देना बेहतर समझते हैं, यह पार्टियां खुद अलग-अलग जाति के हिंदू वोटरों पर ही आधारित हैं. इन पार्टियों को बीजेपी से सबसे ज्यादा खतरा है. शिवसेना, AJSU और गोवा फॉरवर्ड जैसी पार्टियां इसी श्रेणी में आती हैं, जिससे बीजेपी के साथ इनके गठबंधन के टूटने की वजह साफ हो जाती है.

मौजूदा एनडीए गठबंधन में असम की असम गण परिषद और बिहार की जनता दल (यूनाइटेड) भी इसी श्रेणी में शामिल है. अमित शाह के तमाम आश्वासनों के बावजूद कि एनडीए 2020 का बिहार चुनाव नीतीश कुमार की अगुवाई में ही लड़ेगी, बिहार के मुख्यमंत्री की किस्मत अच्छी होगी अगर बीजेपी अपने वादे पर खरा उतरती है.

ऐसे ही अगर बीजेपी नागरिकता संशोधन बिल लाती है, तो एक बार फिर असम में AGP से उसका गठबंधन टूट सकता है.

बतौर सहयोगी दल चुनाव लड़ने के बाद महाराष्ट्र में गठबंधन तोड़कर शिवसेना ने बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है. अब, बीजेपी को आशंका है कि इसी तरह दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां भी विधानसभा चुनावों के बाद अपना रास्ता अलग कर सकती है. जिससे अब पार्टी इन क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करने से कतरा सकती है.

बड़ी बात यह है कि आने वाले समय में बीजेपी चुनाव से पहले गठबंधन बनाने से बचने की कोशिश करेगी. इसके बजाय पार्टी की पूरी कोशिश यह होगी कि अपना वोट शेयर और जनाधार बढ़ाया जाए और जरूरत पड़ने पर चुनाव के बाद ही गठबंधन बनाया जाए.

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