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बिहार विधानसभा में गुरुवार को जाति जनगणना का प्रस्ताव पारित हो गया. प्रस्ताव में केंद्र सरकार से मांग की गई है 2021 की जनगणना जाति के आधार पर हो. जनता दल (यूनाइटेड) पहले से जाति जनगणना की वकालत करती आई है. बिहार विधानसभा में एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ प्रस्ताव पारित होने के बाद जाति आधारित जनगणना कराने के प्रस्ताव की मंजूरी को एक नए राजनीतिक दांव के तौर पर देखा जा रहा है.
बिहार में 2015 के चुनाव के दौरान जेडीयू ने जाति जनगणना की मांग उठाई थी. इसके बाद नीतीश कुमार की सरकार बनने पर आरजेडी और दूसरी पार्टियों ने इसकी वकालत की थी. वैसे जेडी(यू) काफी पहले से जाति जनगणना का समर्थन करती रही है. लेकिन इस साल चुनाव से पहले जाति जनगणना का प्रस्ताव पारित करा कर उसने पिछड़ी जातियों का समर्थन जुटाने का बड़ा दांव खेला है.
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (2011) के लिए लगभग 5000 करोड़ रुपये मंजूर किए गए थे. लेकिन जाति जनगणना का काम मुकम्मल ढंग से नहीं हुआ और इसके आंकड़े भी सार्वजनिक नहीं किए गए.
देश में आखिरी जाति जनगणना 1931में हुई थी.मंडल आयोग ने आजादी के बाद पहली बार इस बात पर जोर दिया कि जाति भारतीय समाज की सच्चाई है और इसके आंकड़े जुटाए बिना सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान मुश्किल है.
मंडल आयोग ने जाति जनगणना की सिफारिश की थी. वर्ष 1997-98 में संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 2001 की जनगणना में जाति को शामिल करने का फैसला किया मंत्रिमंडल की एक बैठक में किया था. लेकिन इसके बाद आई अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पिछली सरकार के कैबिनेट नोट को रद्द कर दिया और 2001 की जनगणना बिना जाति गिने पूरी हो गई.
बहरहाल, बिहार विधानसभा में जाति जनगणना के समर्थन में प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के बाद यह कहा जा रहा है कि इसके जरिये पिछड़े वोटरों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. माना जा रहा है कि राज्य में अलग-अलग जातियों खास कर ओबीसी, एससी और एसटी जातियों को उनकी आबादी के हिसाब से रोजगार और शिक्षा के अवसर नहीं मुहैया कराए जा रहे हैं. एक बार जाति जनगणना के आंकड़े सामने आ जाने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस जाति की कितनी आबादी है और इस हिसाब से वे प्रतिनिधित्व की मांग कर सकेंगे.
जाति जनगणना के प्रस्ताव की मंजूरी को नीतीश का मास्टर स्ट्रोक कहा जा रहा है. लेकिन माना जा रहा है कि इसका फायदा आरजेडी को ज्यादा मिलेगा.
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Published: 28 Feb 2020,11:10 AM IST