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हरियाणा (Haryana) के सियासी गलियारों में चर्चाओं का बाजार गर्म हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह ने 2 अक्टूबर को हरियाणा के जींद में 'मेरी आवाज सुनो' नाम से एक रैली की. खास बात रही कि इस रैली में बीजेपी का झंडे या बैनर का उपयोग नहीं किया गया. पार्टी कार्यकर्ताओं से रैली में राष्ट्रीय ध्वज लाने को कहा गया. वहीं, मंच से चौधरी बीरेंद्र सिंह ने ऐलान किया कि अगर बीजेपी और जेजेपी (Jannayak Janata Party)का गठबंधन हरियाणा में रहेगा तो वो पार्टी में नहीं रहेंगे. ऐसे में लंबे समय से जेजेपी के साथ गठबंधन का विरोध कर रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री के बीजेपी छोड़ने की चर्चा तेज हो गई है.
लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि बीजेपी और जेजेपी का समीकरण चौधरी बीरेंद्र सिंह को क्यों नहीं भा रहा है? क्या उनकी पार्टी छोड़ने की नौबत आ गई है? वे बीजेपी छोड़ते हैं तो किस खेमे में अपना भविष्य तलाश रहे हैं?
एक तरह से ये रैली बीरेंद्र सिंह को जन नेता स्थापित करने के लिए की गई. साफ शब्दों में कहा जाए तो रैली के जरिए बीरेंद्र सिंह ने शक्ति प्रदर्शन करने की कोशिश की. वहीं, मंच से बीरेंद्र सिंह ने कहा...
चौधरी बीरेंद्र सिंह ने 42 साल तक कांग्रेस में रहे. 29 अगस्त 2014, को वे कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हो गए. बीरेंद्र सिंह ही बीजेपी के पहले नेता थे, जिन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन किया था. अब, उनके और बीजेपी के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है और वजह है पार्टी के साथ जेजेपी का गठबंधन. हाल ही में, बीरेंद्र सिंह के दिए गए कुछ बयान से ये साफ पता चलता है.
रैली को लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री सिंह ने कहा...
उन्होंने आगे बताया कि ये कार्यक्रम "राजनीति से ऊपर" है और "वर्तमान में समाज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उन पर अपने विचार साझा करने के लिए बुद्धिजीवियों और सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए एक 'साझा आधार' होगा.
बीजेपी-जेजेपी का इस समय हरियाणा में गठबंधन हैं. जानकारी के अनुसार, राजनीतिक विवाद की वजह उचाना कलां विधानसभा क्षेत्र भी है. उचाना बीरेंद्र सिंह का गढ़ है. इस सीट को लेकर लंबे समय से चौटाला और बीरेंद्र सिंह के परिवारों के बीच जुबानी जंग देखने को मिली. दोनों ने इस सीट पर अपने-अपने परिवारों के जीतने का दावा किया था.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस बार बीजेपी-जेजीपी गठबंधन में विधानसभा चुनाव हुए तो उचाना कलां से उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ही चुनाव लड़ेंगे. खुद दुष्यंत चौटाला ने भी इसी सीट से चुनाव लड़ने की मंशा जाहिर की. इधर, बीरेंद्र सिंह के परिवार ने भी इस सीट पर दावा ठोका है. बीरेंद्र सिंह इस सीट पर अपनी पत्नी प्रेमलता को टिकट दिलवाना चाहते हैं.
हिसार लोकसभा क्षेत्र: 2019 के लोकसभा चुनावों में बीरेंद्र सिंह के बेटे बृजेंद्र सिंह ने दुष्यंत चौटाला के साथ-साथ कुलदीप बिश्नोई के बेटे भव्य बिश्नोई को हिसार लोकसभा सीट से हराया था. पिछले साल कुलदीप ने कांग्रेस का हाथ छोड़ बीजेपी का दामन थामा है. कुलदीप बिश्नोई और चौटाला भी हिसार सीट से चुनाव लड़ने की आकांक्षा रखते हैं. वहीं, बीजेंद्र सिंह अपने बेटे के लिए हिसार लोकसभा सीट से टिकट चाहते हैं. ऐसे में इस लोकसभा सीट पर बीजेपी की टेंशन बढ़ने वाली है.
'मेरी आवाज सुनो' रैली में बीरेंद्र सिंह ने जनता से कहा "जो तुम चाहते हो, वहीं मैं करूंगा, तुम्हारे से अलग नहीं करूंगा. 42 साल कांग्रेस में काम किया, कांग्रेस ने सम्मान दिया. राजीव गांधी और सोनिया गांधी का साथ और विश्वास हरियाणा में सबसे ज्यादा उन्हें मिला है. बीजेपी में पार्टी ने भी सम्मान दिया लेकिन बीरेंद्र सिंह मन की बात कहने से नहीं रुकता.
उन्होंने आगे कहा कि मैं बीजेपी का अकेला आदमी था, जिसने किसानों का समर्थन किया था. महिला पहलवानों के साथ भी खड़ा हुआ. ये भी सच है कि बीजेपी ने ये कभी नहीं कहा कि आप ये उलटे काम क्यों कर रहे हो? कांग्रेस की तारीफ और बीजेपी का भी खुलकर विरोध न करना, इस रैली के मायने क्या है?
इसपर वरिष्ठ पत्रकार धर्मपाल धनखड़ कहते हैं...
सीनियर जर्नलिस्ट बलवंत तक्षक भी धर्मपाल धनखड़ की बात से सहमत नजर आते हैं. वे कहते हैं कि वे बीजेपी और जेजेपी के गठबंधन के समर्थन में नहीं है. वे उचाना कलां से पत्नी को चुनाव लड़ाना चाहते हैं. यहां से दुष्यंत चौटाला के चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. ऐसे में वे टिकट के लिए जेजीपी का विरोध कर रहे हैं.
इससे इतर वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक कहते हैं...
धर्मपाल धनखड़ कहते हैं....
चौधरी बीरेंद्र सिंह हरियाणा के एक प्रमुख जाट नेता हैं. उनके पिता नेकी राम भी हरियाणा की राजनीति में लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं. 5 दशक से राजनीति में सक्रिय चौधरी ने पहली बार 1972 में चुनाव में कदम रखा, जिसके बाद वह उचाना ब्लॉक समिति के अध्यक्ष बने, और फिर पांच बार उचाना से विधानसभा का चुनाव भी जीता. वे हरियाणा के प्रख्यात किसान नेता सर छोटू राम के पोते हैं.
सिंह तीन बार हरियाणा सरकार में मंत्री रहे और 1984 में हिसार में ओमप्रकाश चौटाला को हराकर पहली बार सांसद बने. वो 2010 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य के रूप में भी मनोनीत हुए.
कांग्रेस से 42 साल तक जुड़े रहने के बाद बीरेंद्र सिंह 16 अगस्त 2014 में जींद की एक रैली में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में पार्टी शामिल हो गए थे.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सिंह UPA-2 कैबिनेट का हिस्सा बनना चाहते थे लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा संग मतभेद के चलते ऐसा नहीं हो पाया, जिसके बाद दोनों का विवाद सार्वजनिक रूप से सबके सामने आ गया.
बीजेपी में शामिल होने के बाद पीएम मोदी ने उन्हें ग्रामीण विकास, पंचायती राज, स्वच्छता और पेयजल विभाग का मंत्री बनाया. इसके बाद वो इस्पात मंत्री भी बने. 2019 में चौधरी के बेटे बृजेंद्र सिंह ने हिसार से जीत हासिल की. इसके बाद बीरेंद्र सिंह ने राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया.
बीजेंद्र सिंह को राजनीतिक अवसरों के साथ पाला बदलने में माहिर माना जाता है. इसलिए, उन्हें हरियाणा की राजनीति का 'ट्रेजडी किंग' भी कहा जाता है. कहा जाता है कि साल 1991 में राजीव गांधी ने कथित तौर पर हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में उनके नाम पर सहमति जता दी थी. लेकिन, उसी वक्त राजीव गांधी की हत्या से पूरा प्रदृश्य ही बदल गया और मुख्यमंत्री बनने का मौका उनके हाथ से निकल गया. इसके बाद कांग्रेस आलाकमान ने भजनलाल को मुख्यमंत्री बना दिया.
और दूसरा मौका साल 2013 में हाथ से निकल गया, जिसका ऊपर जिक्र है, जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा के विरोध के बाद उन्हें मनमोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया.
हरियाणा में चौधरी बीरेंद्र सिंह की राजनीतिक पैठ हुआ करती थी. लेकिन सियासी जानकारों के अनुसार, अब उनकी वैसी सियासी धमक नहीं रही है. उनकी रैली करने का फैसला, या अगर वो अलग पार्टी बनाने का फैसला लेते हैं तो भी उनकी सारी रणनीति यही है कि उनके बेटे और पत्नी का भविष्य सुरक्षित रहे. इसलिए वो बीजेपी पर प्रेशर बना रहे हैं. वहीं, बीजेपी चुप्पी साधे हुई है. ऐसे में बीरेंद्र सिंह आगे क्या फैसला लेते हैं, ये देखने वाली बात होगी लेकिन राजनीतिक जानकारों का मानना है कि उनके अलग होने से बीजेपी को कोई नुकसान नहीं होने वाला है.
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