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बिहार की राजनीति में एक नया रंग देखने को मिल रहा है. लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) (LJP) के छह में से पांच सांसदों ने लोकसभा में पार्टी प्रमुख चिराग पासवान (Chirag Paswan) के खिलाफ बगावत करते हुए मोर्चा खोल दिया है. उन्होंने चिराग को संसदीय दल के प्रमुख के पद से भी बर्खास्त कर दिया है. LJP में हुए इस पूरे तख्तापलट का नेतृत्व चिराग पासवान के चाचा पशुपति कुमार पारस ने किया है. वहीं आरोप यह भी लगाए जा रहे हैं कि यह पूरा घटनाक्रम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इशारों पर किया गया है. आइए जानते हैं क्या है पूरा मामला...
एलजेपी (LJP) के संस्थापक रामविलास पासवान की मौत और चिराग पासवान द्वारा पार्टी की बागडोर संभालने के आठ महीने बाद इस घटना की वजह से पार्टी में उथल-पुथल मच गई है.
जिन पांच सांसदों ने बागी तेवर दिखाए हैं उनमें पशुपति पारस (हाजीपुर), चंदन कुमार सिंह (नवादा), महबूब अली कैसर (खगरिया), वीना देवी (वैशाली) और प्रिंस राज (समस्तीपुर) शामिल हैं.
इन सभी ने पारस को अपना नया नेता और कैसर को लोकसभा में अपना नया उप नेता घोषित कर दिया है.
इस लेख में हम तीन पहलुओं पर गौर करने का प्रयास करेंगे :
कहा जाता है कि 2020 बिहार चुनाव के पहले ही इस कलह के बीज बोए गए थे. उस समय रामविलास पासवान जीवित थे. उन्होंने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि चिराग पासवान ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे, लेकिन इसके साथ-साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों जैसे भाई पशुपति कुमार पारस और रामचंद्र पासवान के बीच प्रभाव का उचित बंटवारा कर दिया था. 2019 में रामचंद्र की मौत के बाद उनके बेटे प्रिंस राज को समस्तीपुर सीट सौंप दी गई थी.
हालांकि रामविलास की मौत के बाद चिराग के बारे में कहा जाता है कि वह अपने कामकाज में एकतरफा हो गए थे. चिराग अपने सहयोगियों के छोटे से सर्कल पर पूरी तरह से निर्भर थे. वहीं दूसरी ओर उनके ही एक विशेष सहयोगी के खिलाफ कई सारी शिकायतें को पाया गया, ये सहयोगी ही पार्टी में पावर का बड़ा केंद्र बना गया है.
चुनाव प्रचार के दौरान भी चिराग ने पारस को दरकिनार कर दिया था. जाहिर है इससे भी पारस की नाराजगी बढ़ी होगी. वहीं जब चुनाव परिणाम में लोजपा को सिर्फ एक ही सीट हासिल हुई और चिराग की किंगमेकर बनने वाली योजना विफल हो गई तब उनके विरोधियों को सत्ता के समीकरण को बदलने का मौका मिल गया.
फैमिली एंगल इतने में ही समाप्त नहीं होता, इसके इतर पासवान के चचरे भाई और जदयू नेता माहेश्वर हजारी ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई. कहा जाता है कि हजारी ने जदयू और बागियों के बीच एक प्रमुख मध्यस्थ के तौर पर काम किया था.
लोजपा में पड़ी इस फूट के बारे में जदयू की तरफ से कहा गया है कि उनकी पार्टी की इसमें कोई भूमिका नहीं है, यह LJP की आतंरिक कलह का मामला है. हालांकि सूत्रों का कहना है कि JDU के सांसद रंजन (लल्लन सिंह) ने महेश्वर हजारी के साथ मिलकर इस पूरे घटनाक्रम में अहम भूमिका निभाई है.
इसके अलावा जाहिर है कि महबूब अली कैसर जैसे अन्य बागियों के साथ पहले से ही नीतीश की भावना अच्छी रही है, ऐसे में इसका भी फायदा उठाया गया.
रिपोर्ट्स बताती है कि बिहार चुनाव के परिणाम आने के तुरंत बाद मुख्मंत्री नीतीश कुमार ने लल्लन सिंह को LJP के असंतुष्टों तक पहुंचने के लिए नियुक्त किया था.
जाहिर है कि मुख्मंत्री नीतीश कुमार चुनाव के दौरान उनके खिलाफ अभियान चलाने और जदयू के कई उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाने के लिए चिराग को सबक सिखाना चाहते थे. इसके गठन के बाद पहली बार सीटों की संख्या के मामले में जदयू बिहार में तीसरे स्थान पर रहा, इस परिणाम को बिगाड़ने के पीछे सबसे बड़ा दोष चिराग पासवान की पार्टी LJP पर लगा.
इस साल अप्रैल 2021 में लोजपा के एकलौते विधायक राजकुमार सिंह जदयू में शामिल हो गए थे. वहीं नीतीश ने बसपा विधायक के दलबदल के साथ-साथ उपेन्द्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के विलय के जरिए अपनी स्थिति को और ज्यादा मजबूत करना शुरु कर दिया था.
LJP में हुई इस फूट के जरिए नीतीश ने न केवल चिराग से चुनाव में हुए नुकसान का बदला लिया है. बल्कि BJP बीजेपी को भी यह संकेत दे दिया है कि पार्टी उन्हें हल्के बिल्कुल भी न ले. यहां पर हम आपको यह याद दिला दें कि चुनाव के दौरान चिराग पासवान को नीतीश के खिलाफ चलाए गए अभियान में BJP और RSS आरएसएस के वर्ग का मौन समर्थन मिला था.
लोजपा में तख्तापलट ऐसे समय में हुआ है जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल की अटकलें लगाई जा रही हैं और JDU की ओर से केंद्र सरकार में प्रतिनिधित्व बढ़ाने की मांग की जा रही है.
अभी तक केंद्र की मोदी सरकार में जदयू का एक भी मंत्री नहीं है, हालांकि राज्यसभा में जरूर इनके सांसद हरिवंश उप-सभापति हैं.
निश्चित तौर पर यह चिराग पासवान के लिए किसी झटके से कम नहीं है. तख्तापलट के बाद उन्होंने अपने चाचा पारस को मनाने का प्रयास भी किया, लेकिन यहां भी वे विफल हो गए. क्योंकि उनके चाचा ने उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया.
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे अहम परिणाम यह होगा कि NDA यानी नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस में चिराग की बार्गेनिंग पावर यानी सौदेबाजी की ताकत को काफी नुकसान पहुंचने की संभावना है.
कहा जाता है कि बीजेपी ने चिराग पासवान का इस्तेमाल न केवल नीतीश कुमार का कद घटाने के लिए किया बल्कि बिहार में सामाजिक न्याय के प्रति केंद्रित पार्टियों के बीच भ्रम की स्थिति बनाने के लिए भी किया था. बिहार में सोशल जस्टिस ही प्रमुख फैक्टर रहा है जिसने बीजेपी को राज्य की सत्ता हथियाने से रोक रखा है.
अब भाजपा चिराग से दूरी बनाने की कोशिश कर रही है. इससे स्पष्ट है कि चिराग ने अपनी उपयोगिता अब खत्म कर ली है.
लेकिन इन सबका मलतब यह नहीं है कि चिराग अंतिम छोर पर पहुंच गए हैं. उन्हें अभी भी रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता रहेगा. इसके साथ ही पासी-दुसाध समुदाय के समर्थन के लिए भी उनको तवज्जो मिल सकती है जो बिहार राज्य का सबसे बड़ा और प्रभावशाली दलित उप-समूह है.
बिहार चुनाव में लोजपा को हासिल हुए 5.7 फीसदी वोट चिराग के प्रयासों से ही मिले थे. इसमें कुछ बीजेपी और आरएसएस की मदद से भी मिले थे.
अब एक बात स्पष्ट हो गई है कि बिहार में भाजपा की एकमात्र सहयोगी पार्टी बनने और वैकल्पिक तौर पर तीसरी ताकत के रूप में उभरने की दिशा में चिराग के प्रयासों की संभावना समाप्त हो गई है.
अब चिराग के पास दो बड़े विकल्प हैं. पहला यह कि वे आरजेडी (RJD) यानी राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो जाएं और तेजस्वी के साथ मिलकर ताकत बढ़ाएं. इससे वे बीजेपी के सामने युवाओं की एक चुनौती बना सकते हैं.
दूसरा यह कि चिराग को भाजपा और नीतीश के अलग होने का इंतजार करना होगा, क्योंकि NDA में चिराग के लिए तब तक जगह नहीं है जब तक नीतीश कुमार उसका हिस्सा हैं.
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