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जयपुर से उदयपुर, कांग्रेस चिंतन शिविर में राहुल गांधी के लिए क्या बदला?

जयपुर (2013) और उदयपुर (2022) के चिंतन शिविर के बीच दिल्ली कांग्रेस के लिए सचमुच राजनीतिक रूप से बहुत दूर हो गई है.

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Updated:
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जयपुर से उदयपुर, कांग्रेस चिंतन शिविर में राहुल गांधी के लिए क्या बदला?

(फोटोः Altered By Quint)

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उदयपुर और जयपुर एक दूसरे से लगभग 400 किलोमीटर दूर हैं. लेकिन कांग्रेस के लिए दोनों शहरों में नौ साल का अंतर है. क्योंकि, दोनों वर्तमान और पिछले चिंतन शिविर (Chintan Shivir) के स्थल हैं. इससे पहले कांग्रेस का चिंतन शिविर साल 2013 में जयपुर में हुआ था.

जयपुर और उदयपुर चिंतन शिविरों के बीच, दिल्ली सचमुच राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस के लिए बहुत दूर हो गई है.

कांग्रेस में राहुल गांधी के प्रभाव के सवाल पर एक और अहम बदलाव आया है.

जहां राहुल गांधी का पार्टी में उदय जयपुर चिंतन शिविर के केंद्र में था वहीं उदयपुर में यह मुद्दा प्रमुख नहीं है.

दो आयोजनों की एक कहानी

जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया था.

वह उस समय कांग्रेस के कई महासचिवों में से एक थे और एकमात्र उपाध्यक्ष बने. एक ऐसा पद जो संक्षिप्त अंतराल को छोड़कर ज्यादातर खाली रहा था. इसने उन्हें पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के बाद स्पष्ट रूप से सेकेंड-इन-कमांड बना दिया.

राहुल गांधी का भाषण पूरे जयपुर चिंतन शिविर का मुख्य आकर्षण था.

इसके विपरीत, 9 साल बाद उदयपुर में नेतृत्व का सवाल या विशेष रूप से राहुल गांधी का सवाल एजेंडा का हिस्सा नहीं है.

चाहें राहुल गांधी अपने कई वफादारों को आमंत्रितों में शामिल करने में कामयाब रहे हैं लेकिन उदयपुर चिंतन शिविर अनिवार्य रूप से सोनिया गांधी का शो है और यह बात राहुल गांधी के वफादार भी मानते हैं.

बैठक के लिए उदयपुर आए पार्टी के एक युवा नेता ने कहा कि यह सोनिया गांधी का शो है. इसमें कोई संदेह नहीं है. अगर यह राहुल जी का शो होता, तो कार्यक्रम की संरचना बहुत अलग होती.

यह पूछे जाने पर कि यह कैसे अलग होता, तो राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले नेता ने कहा कि यह ज्यादा लक्षित/कुछ खास मुद्दों पर केंद्रित होता और शायद कम ही लोग इसमें शामिल होते.

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राहुल गांधी की नियुक्ति का पेचीदा सवाल

भले ही कांग्रेस नेतृत्व के लिए राहुल गांधी के नाम को आगे बढ़ाना चिंतन शिविर के एजेंडे का हिस्सा नहीं हो सकता है, यह निश्चित रूप से पृष्ठभूमि में है.

यह इस बात से स्पष्ट है कि जिस तरह राहुल गांधी ने दिल्ली से उदयपुर तक 12 घंटे की ट्रेन यात्रा की और पार्टी समर्थकों से मिलने के लिए कई स्टेशनों पर उतरे, जो उनका स्वागत करने के लिए वहां जमा हुए थे.

भले ही नेतृत्व का सवाल इस साल के अंत में होने जा रहे पार्टी चुनावों के लिए छोड़ दिया गया हो, लेकिन इस लामबंदी के पीछे का दृष्टिकोण स्पष्ट है. राहुल गांधी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच नंबर एक पसंद बने हुए हैं.

यह काफी संभावना है कि चिंतन शिविर के भीतर बंद दरवाजे के सत्रों में, गांधी के कुछ समर्थक पार्टी अध्यक्ष के रूप में पदभार ग्रहण करने के लिए अपना समर्थन व्यक्त कर सकते हैं. इस वर्ग का उदय अपने आप में पार्टी में जयपुर के बाद के घटनाक्रम की विरासत है.

2004 में राजनीति में शामिल होने के बाद से राहुल गांधी का उठान एक मुश्किल मुद्दा रहा है. उनके लिए पार्टी में या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में कार्यभार संभालने की मांग ने 2009 के बाद गति पकड़ी.

उनके तत्कालीन सलाहकारों का मानना ​​था कि गांधी को जीत के शिखर पर सवार होकर यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए.

कई लोगों का मानना ​​है कि यह 2009 के बाद ही किया जा सकता था, क्योंकि उत्तर प्रदेश में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन के लिए गांधी को आंशिक रूप से श्रेय दिया जा सकता है. हालांकि, 2009 के राष्ट्रीय फैसले को अनिवार्य रूप से डॉ. मनमोहन सिंह की जीत के रूप में देखा गया था.

अगला मील का पत्थर 2012 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव था. अगर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती, 80 या इससे अधिक सीटें जीतती, तो इसे राहुल की जीत माना जा सकता था. लेकिन, पार्टी 30 से नीचे गिर गई और उनका समय कभी नहीं आया.

राहुल का उदय, निश्चित रूप से अपरिहार्य था. वे 2013 में उपाध्यक्ष और 2017 में अध्यक्ष बने. लेकिन जीत के शिखर पर सवार का महत्वपूर्ण हिस्सा, जो उन्हें पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह निर्विवाद वैधता दे सकता था, कभी भी पूरी तरह से अमल में नहीं आया. 2017-18 के बीच की एक संक्षिप्त अवधि को छोड़कर.

यह चुनावी सफलता की इस कमी के कारण है कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में गांधी की फिर से नियुक्ति इसकी जटिलताओं के बिना नहीं होगी.

जटिलता चिंतन शिविर से निकलने वाले मिश्रित संदेश में भी परिलक्षित होती है. गांधी के साथ स्टेशन दर स्टेशन गर्मजोशी से स्वागत हो रहा है, यहां तक ​​​​कि बैठक का असली ध्यान पार्टी के एजेंडे पर है न कि नेतृत्व पर.

जयपुर और उदयपुर के बीच का अंतर

अगर एक पल के लिए कांग्रेस को किनारे कर दिया जाए तो जयपुर और उदयपुर के बीच एक और महत्वपूर्ण अंतर है.

राजपुताना इतिहास की एक बहुत ही महत्वपूर्ण अवधि के दौरान दोनों राज्य विरोधी पक्ष में थे. एक मुगलों की ओर था जबकि दूसरा महाराणा प्रताप के नेतृत्व में दिल्ली के खिलाफ विद्रोह कर रहा था.

यह संयोग हो सकता है, लेकिन इसमें एक मजेदार प्रतिक भी है- जयपुर (2013) में, कांग्रेस दिल्ली में मजबूती से सत्ता में थी लेकिन अगर 2022 के उदयपुर में उसे अपनी पहचान बरकरार रखनी है, तो उसे दिल्ली के खिलाफ एक आक्रामक अभियान शुरू करने की जरूरत है.

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Published: 13 May 2022,10:22 PM IST

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