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कांग्रेस अध्यक्ष पद (Congress President Election) के लिए अशोक गहलोत पहली पसंद बताए जा रहे थे, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि नामांकन के आखिरी दिन मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) की वाइल्ड कार्ड एंट्री हुई. नाम फाइनल होने से लेकर नामांकन तक सबकुछ कुछ ही घंटों में हुआ. रेस में बताए जा रहे दिग्विजय सिंह ने भी पर्चा भरने से इनकार कर और खड़गे का समर्थन किया. अशोक गहलोत ने भी कहा कि पार्टी में सब ठीक चल रहा है. वह खड़गे के साथ खड़े हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि अचानक मल्लिकार्जन खड़गे की वाइल्ड कार्ड एंट्री कैसे हुई? वह कांग्रेस चीफ के लिए सबसे पसंदीदा उम्मीदवार क्यों बने?
इसका बहुत स्पष्ट जवाब तो नहीं मिलता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम को देखा जाए तो कह सकते हैं कि नहीं. खड़गे पहली पसंद नहीं है. पार्टी अशोक गहलोत को लेकर सक्रिय दिख रही थी. उन्हें ही उम्मीदवार बनाना चाहती थी. यही वजह है कि राहुल गांधी ने भी इशारों-इशारों में बताया था कि पार्टी वन मैन वन पोस्ट का पालन करेगी. ये बात शायद अशोक गहलोत के लिए ही कही गई थी. लेकिन जब विवाद बढ़ा तो दूसरे विकल्प पर जाना पड़ा और मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सामने आया.
मल्लिकार्जुन खड़गे उन खाटी कांग्रेसियों में से एक हैं जो गांधी परिवार के सबसे विश्वासपात्र और करीबी हैं. वो कभी आलाकमान के खिलाफ नहीं गए. पार्टी के तमाम अंदरूनी मामलों में खड़गे की छाप दिखती है. जब भी गांधी परिवार ने विपरीत परिस्थितियों का सामना किया है, खड़गे उनके साथ खड़े दिखाई दिए. उदाहरण के तौर पर खड़गे ने 21 जुलाई को अपना जन्मदिन मनाने से इनकार कर दिया था क्योंकि उस दिन सोनिया गांधी से ईडी पूछताछ कर रही थी. इस दिन खड़गे संसद से सड़क पर उतर आये थे और पुलिस ने उन्हें हिरासत में भी लिया था.
हिंदी बेल्ट में पीएम मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी के बढ़ते कद के बाद कांग्रेस ने साउथ को एक मौके के तौर पर देखा है. शशि थरूर के हारने पर कोई ये नहीं कह सकेगा कि साउथ को अनदेखा किया गया. इसके अलावा मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक की जमीन से जुड़े नेता हैं. उन्होंने सड़क से संसद तक का सफर तय किया है. गुलबर्ग के सरकारी कॉलेज में जिस वक्त मल्लिकार्जुन खड़गे कानून की पढ़ाई कर रहे थे, तब उन्हें छात्रसंघ का महासचिव चुना गया था. कॉलेज के दिनों में ही खड़गे ने मजदूरों के अधिकारों के लिए कई आंदोलन किए. यही वो वक्त था जब मजदूरों के नेता के तौर पर खड़गे ने अपनी पहचान बनाई और 1969 में कांग्रेस में शामिल हुए.
मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के खिलाफ विरोधी या विवादित बयान देने से बचते रहे हैं. इसका उदाहरण 2013 से मिलता है. उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलनी थी, लेकिन कुछ वजहों से ऐसा नहीं हो सका. लेकिन खड़गे ने बगावत नहीं किया. नतीजा ये हुआ कि उनका पहले कैबिनेट में प्रमोशन हुआ और फिर पार्टी में कद बढ़ता गया.
मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस में 5 दशक से ज्यादा हो गए हैं. वो 80 साल के हैं और 1969 से कांग्रेस के साथ हैं. महज 30 साल की उम्र में 1972 में उन्होंने पहली बार कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीता था. उन्होंने 10 चुनाव (8 विधानसभा और 2 लोकसभा) लगातार जीते हैं. 2014 की मोदी लहर में भी उन्होंने कर्नाटक के गुलबर्ग से जीत दर्ज की थी. कर्नाटक में वो विपक्ष के नेता रहने के साथ-साथ कई मंत्रालय संभाल चुके हैं. दोनों यूपीए सरकार में उनकी अहम भूमिका रही. यूपीए-2 में मई 2009 से जून 2014 तक खड़गे श्रम और रोजगार मंत्री रहे हैं. जून 2013 से मई 2014 तक उन्होंने रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली. 2014 में पार्टी के हार के बाद वो लोकसभा में कांग्रेस के नेता रहे और अभी राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं.
कांग्रेस जब भी सत्ता में रही है, दलित वोटों का उसमें अहम योगदान रहा है. एक जमाने में दलित कांग्रेस का सबसे पक्का वोट बैंक माना जाता था लेकिन पिछले कुछ वक्त में ये वोट पार्टी से छिटका है. मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक के दलित नेता हैं. बीजेपी ने दलित को राष्ट्रपति बनाकर जो पत्ता फेंका है, कांग्रेस उसकी काट निकालने की कोशिश में खड़गे को आगे कर सकती है. ऐसे में कांग्रेस के लिए 2024 चुनाव के फॉर्मूले में मल्लिकार्जुन खड़गे फिट होते दिख रहे हैं.
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