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द्रौपदी मुर्मू से आदिवासी समाज की उम्मीद और आशंका-''BJP उनका इस्तेमाल करेगी''

Dropadi Murmu पर आदिवासियों का सवाल है कि जब झारखंड में हजारों आदिवासियों पर देशद्रोह का केस हुआ तो चुप क्यों थी?

विष्णुकांत तिवारी
पॉलिटिक्स
Updated:
<div class="paragraphs"><p>President Polls 2022:द्रौपदी मुर्मू को लेकर क्या सोचते हैं आदिवासी?</p></div>
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President Polls 2022:द्रौपदी मुर्मू को लेकर क्या सोचते हैं आदिवासी?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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दौपदी मुर्मू (Dropadi Murmu) भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने ही वाली हैं. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की तरफ से उनके नामांकन को देश के जनजातीय और आदिवासी नेता कैसे देख रहे हैं?

बहुतों के लिए यह अच्छी खबर है लेकिन कई का कहना है कि “यह जनजातीय लोगों के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से ज्यादा कुछ नहीं” और इसके जरिए “केंद्र सरकार की आदिवासी विरोधी नीतियों से ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है.”

मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले की रहने वाली हैं. पहले वह टीचर थीं और फिर राजनीति में आईं. 2015 में वह झारखंड की पहली महिला राज्यपाल बनीं.

झारखंड के आदिवासी एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग ने क्विंट से अपनी आशंका जताई. डुंगडुंग आरोप लगाते हैं कि मुर्मू ने पत्थलगढ़ी के लोगों के लिए कुछ नहीं किया. मई 2016 में जमीन पर आदिवासियों के अधिकारों के लिए इस आंदोलन को फिर से शुरू किया गया था.

बीजेपी सरकार मुर्मू का इस्तेमाल वोट हासिल करने के लिए कर रही है. वह आदिवासियों के भूमि और वन अधिकारों की रक्षा करने वाले कानून में बदलाव करना चाहती है. इसीलिए उसने मुर्मू का नाम पेश किया है. लेकिन मुर्मू ने पत्थलगड़ी के लोगों के लिए कुछ नहीं किया. जब काश्तकारी कानूनों में संशोधन किया जा रहा था, तब मुर्मू ने महीनों बाद कदम उठाया. इस बात की पूरी आशंका है कि बीजेपी मुर्मू को राष्ट्रपति कार्यालय में उसी तरह इस्तेमाल करेगी और अगर कोई आदिवासी विरोधी नीतियों पर सवाल पूछेगा तो वह उनकी तरफ इशारा कर देगी. क्योंकि अंत में एक आदिवासी राष्ट्रपति ने उन नीतियों पर मुहर लगाई होगी.
ग्लैडसन डुंगडुंग, झारखंड के आदिवासी एक्टिविस्ट

''उम्मीद कम है, और चिंता ज्यादा''

छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के पूर्व अध्यक्ष, बीपीएस नेताम, जो एक रिटायर आईएएस अधिकारी भी हैं, कहते हैं कि खबर उत्साह तो जगाती है लेकिन चिंता के बादल भी हैं.

हां, हमें खुशी है कि आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति, खासकर एक महिला, देश की राष्ट्रपति होगी. लेकिन वर्तमान राष्ट्रपति (राम नाथ कोविंद) भी अनुसूचित जाति से हैं, और फिर भी उनके समुदाय का कोई उत्थान नजर नहीं आता.
बीपीएस नेताम, छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के पूर्व अध्यक्ष
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छत्तीसगढ़ के बस्तर की आदिवासी एक्टिविस्ट सोनी सोरी भी नेताम जैसी चिंता जाहिर कहती हैं. वह कहती हैं कि आदिवासियों के साथ हमेशा से छल-कपट किया जाता है.

सोरी आदिवासी मामलों पर मुर्मू की चुप्पी पर सवाल उठाती हैं, खासकर जब सुप्रीम कोर्ट ने सुकमा के गोमपाड़ा में 2009 में हुई कथित मुठभेड़ की जांच की मांग ठुकरा दी थी. गोमपाड़ा में सुरक्षा बलों ने माओवादी कहकर 16 आदिवासियों को मार डाला था.

सोनी का कहना है-जब हम एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में ऐसे कई सवाल उठते हैं.

आदिवासियों को रिझाने की कोशिश में बीजेपी

बीजेपी आदिवासियों से संपर्क कर रही और अपना आधार मजबूत करने की फिराक में है. हालांकि बीजेपी पिछले कुछ सालों से हाशिए पर धकेले गए समुदायों के लिए जगह बना रही है. मुर्मू का नामांकन अपने सामाजिक आधार को मजबूत करने की राह पर एक कदम और है.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अक्टूबर 2021 और अप्रैल 2022 के बीच सात महीनों के भीतर मध्य प्रदेश का दौरा दो बार कर चुके हैं और वहां बीजेपी आदिवासी समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है.

2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 में से सिर्फ 16 सीट जीती थीं, जबकि 2013 में उसके खाते में 31 सीटें गई थीं.

छत्तीसगढ़ और झारखंड में, बीजेपी आदिवासियों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है, हालांकि दोनों राज्यों में क्रमशः 2018 और 2019 में सत्ता परिवर्तन के बाद से बहुत कुछ बदलाव नहीं हुआ है.

ओडिशा के सुंदरगढ़ में खनन प्रभावित परिवार से आने वाले लिटू मिंज फिलहाल सीमेंट प्लांट के खिलाफ संघर्षरत हैं. इस प्लांट को बड़ा किया जा रहा है और स्थानीय लोगों का दावा है कि यह आदिवासियों की जिंदगी और बस्तियों के लिए नुकसानदेह होगा. मिंज ने क्विंट से कहा-''जिन लोगों को बेहतर जिंदगी और सत्ता मिलती है, यह जरूरी नहीं कि वे लोग अपने परिवार, समुदाय और देश की बेहतरी के लिए काम करें.''

पड़ोसी राज्य झारखंड में सरना जनजाति (जो सरना धर्म परंपरा के मानने वाले हैं और प्रकृति की पूजा करते हैं) के धर्मगुरु बंधन टिग्गा मिंज की बात का समर्थन करते हैं.

भारत में हर जगह आदिवासियों को उनके घरों से खदेड़ा जा रहा है. कोशिश की जा रही है कि आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने वाले संस्थानों को कमजोर किया जाए और कानूनों में संशोधन किए जाएं.
लिटु मिंज, ओडिशा के सुंदरगढ़ में खनन प्रभावित परिवार से आने वाले

टिग्गा कहते हैं कि हम उम्मीद करते हैं, कि वह सिर्फ उन लोगों का ख्याल नहीं रखेंगी जिन्हें बीजेपी भारतीय मानती है. वह हर भारतीय नागरिक का ध्यान रखेंगी.

तब बहुत मुश्किल हो जाएगा, जब मेरे अपने समुदाय के लोग उन लोगों की तरफदारी करने लगें, जो आदिवासियों को उनके घरों से बाहर निकाल रहे हैं. अगर कल कोई आदिवासी विरोधी कानून पास हो जाता है, या अनुसूची V और VI के तहत संरक्षित हमारे अधिकारों का हनन होता है तो हम कहां जाएंगे? अगर मुर्मू इस आदिवासी विरोधी अभियान का एक हिस्सा होंगी तो हम किसकी तरफ मुड़ेंगे?

''हजारों आदिवासियों पर देशद्रोह का केस और चुप रहीं मुर्मू''

झारखंड में रघुबर दास के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने छोटा नागपुर काश्तकारी (1908) और संथाल परगना काश्तकारी (1949) कानूनों, जिन्हें दोहरे काश्तकारी कानून कहा जाता था, को नवंबर 2016 में संशोधित किया था. यह संशोधन राज्य सरकार को इस बात की इजाजत देते थे कि वह कृषि भूमि को गैर कृषि उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर सकती है.

आदिवासी प्रदर्शनकारियों के भारी दबाव में झारखंड की तत्कालीन राज्यपाल मुर्मू ने बाद में संशोधन बिल को ठुकरा दिया था. लेकिन इससे पहले संशोधनों के विरोध में हजारों आदिवासियों को गिरफ्तार करके सलाखों के पीछे डाल दिया गया था.

झारखंड के एक पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा.-"हालांकि इन संशोधनों को मंजूरी नहीं दी गई थी, लेकिन ऐसा महीनों तक चलता रहा, और तब तक हजारों गिरफ्तार किए गए, देशद्रोह कानून की कड़ी धाराओं के तहत आरोप लगाए गए, और इस दौरान मुर्मू चुपचाप रहीं. इससे यह याद आता है कि कैसे राजनीतिक दबाव एक राज्यपाल को भी चुप करा देता है.”

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Published: 18 Jul 2022,02:53 PM IST

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