advertisement
अगर poetic injustice जैसा कुछ होता है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार जल्द ही ऐसा कुछ अनुभव कर सकती है. नरेंद्र मोदी ने खुद को राजनीतिक रूप से मजबूत रखने के लिए कुछ जोखिम भरे आर्थिक फैसले किए, लेकिन आने वाले कुछ हफ्तों में उनकी सरकार ऐसी चुनौतियों का सामना कर सकती है जिससे उनका कोई लेना देना भी नहीं है और ये है रूस—यूक्रेन युद्ध.
तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं. लेकिन तेल की कीमतों के बढ़ने का ये समय सबसे बुरा समय है ऐसा नहीं कहा जा सकता. इससे पहले आपको एक सीधे से तथ्य को समझना होगा. बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने तेल की कीमतों को लेकर एक तरह से सात सालों तक बहुत अच्छा समय बिताया है जिसने अर्थव्यवस्था के संतुलन को बनाए रखा और सरकार को मौका मिला कि वो बड़े फैसले कर सके. हालांकि इसमें कुछ फैसले नोटबंदी, विवादित कृषि कानून और जीएसटी सरकार के लिए काम नहीं कर पाए.
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मई 2014 में सत्ता में आए तो ब्रेंट क्रूड की कीमत 115 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल थी और जून से ये धीरे—धीरे नीचे गिरने लगी. साल 2019 में जब कोरोना संकट आया तब इसकी कीमत बहुत कम 22 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल हो गई थी.
इसने फिर 100 अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को छुआ जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के फैसले के बाद अमेरिका और बाकी देशों में इकोनॉमिक रिकवरी जैसी स्थिति आई और नैचुरल मार्केट फोर्स बढ़ा.
इस हफ्ते ब्रेंट क्रूड 139 अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. सरकार जो कोविड 19 संकट के बाद जीडीपी की रिकवरी की तरफ देख रही हैं, वो ब्रेंट क्रूड के इस चार्ट से निराश हो रही है. कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि तेल की कीमतें 200 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक जाएंगी. वहीं कुछ ये संभावना जताकर भी डरा रहे हैं कि ये 300 अमेरिकी डॉलर तक जा सकता है.
अर्थशास्त्रियों के अनुमान और उनके तरीकों में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है, लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि भारत को जीडीपी ग्रोथ में मुश्किल से 1 प्रतिशत का नुकसान होगा. लेकिन ये युद्ध का समय है और हम एक ऐसी स्थिति में हैं जहां अनिश्चितता, अस्पष्टता और अस्थिरता है. ऐसे में आंकड़ों का जोड़—घटाव करने वाले अर्थशास्त्री भी जोखिम वाली स्थिति में ही हैं.
पहले उन बातों पर नजर डालेंगे जिनकी वजह से ऐसा हो सकता है क्योंकि, आंकड़े हम सबके सामने हैं. अमेरिका ने रूस से तेल आयात पर प्रतिबंध लगा दिए हैं. वीजा, मास्टरकार्ड, मैकडोनाल्ड, कोका कोला और अमेरिका की दूसरी कंपनियां रूस से बाहर निकल रही हैं. SWIFT सिस्टम जिससे बैंक वैश्विक स्तर पर पैसों का ट्रांसफर करते हैं, इसे रूस के लिए प्रतिबंधित कर दिया है. करीब 2 मिलियन रिफ्यूजी युद्धग्रस्त यूक्रेन से पश्चिमी यूरोप चले गए हैं.
इसके अलावा भारत खेती की लिए जरूरी फर्टिलाइजर्स और सूरजमुखी के तेल का आयात यूक्रेन से करता है. भारत के रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों को बढ़ाने का दबाव बढ़ रहा है क्योंकि अमेरिका पहले ही ऐसा करने जा रहा है जबकि घरेलू चीजों की महंगाई 6 प्रतिशत तक बढ़ गई है और ये एक इशारा है कि लोन महंगे हो जाएंगे.
लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के आइपीओ को लाने का और इससे सरकार के लिए कैश को बढ़ाने का फैसला भी अब बहुत फायदा पहुंचाने वाला नहीं दिख रहा.
ऐसे वक्त में भारत का वित्त मंत्री होना कोई आसान बात नहीं है. निर्मला सीतारमण जिन्होंने फरवरी की शुरुआत में इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाने और ग्रोथ रिवाइविंग डिमांड को फिर से रिवाइव करने के लिए बड़े ही साहसी तरीके से spend-and-grow बजट की घोषणा की, उन्हें महीने के अंत तक पता चल गया कि उनकी बनाई सबसे अच्छी योजनाओं को मॉस्को के सुखोई जेट्स ने धक्का दे दिया है.
अब वो शायद ये समझ गई हैं कि उनके प्रयास फेल हो गए हैं और उन्हें सबकुछ फिर से शुरू करना होगा. जाहिर है कि आप उनकी जगह पर नहीं रहना चाहेंगे. वह खुद इस बात को स्वीकार करती हैं कि तेल एक निगेटिव सरप्राइज था और बजट कैलकुलेशन तब किया गया था, जब तेल की कीमतें 85 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल थीं.
यहां अब हमें कुछ सकारात्मकता देखने की कोशिश करनी चाहिए. अगर अमेरिका के रिकवरी स्टॉल्स, अमेरिकी कंपनियां, भारतीय आईटी कंपनियों से और ज्यादा आउटसोर्स के विकल्प को चुनती हैं, तो इसका फायदा होगा. वहीं संभवत: ये भी हो सकता है कि ये कंपनियां रूस से वापस लिए फंड का निवेश यहां करें.
भारत के पास 630 बिलियन अमेरिकी डॉलर का फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व भी है. ये उस देश के लिए बुरा नहीं है, जिसने साल 1991 में पेमेंट संकट के दौरान संतुलन बनाकर रखा और इसके सात साल बाद अमेरिकी प्रतिबंधों के समय भी खुद को बचाए रखा, जब पोखरण 2 न्यूक्लियर टेस्ट हुए थे.
आप कह सकते हैं कि ये इकोनॉमिक ग्रोथ को लेकर एक झटका है, लेकिन ऐसा नहीं है कि हम किसी बहुत जोखिम भरी स्थिति में हों. हालांकि ये उससे अलग है, जिसमें भारत को साल 2024—2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात कही गई है, जबकि अभी ये 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है.
भारत अपनी जरूरत का 85 प्रतिशत तेल आयात करता है. तेल की कीमतें ग्राहकों तक सरकार की मंशा के हिसाब से पहुंचती हैं. हालांकि इसमें देरी हो सकती है, ये क्रमबद्ध तरीके से बढ़ सकता है और काफी हद तक ये इस पर निर्भर करता है कि ये रूस—यूक्रेन की लड़ाई कितनी लंबी चलेगी.
इसका खराब पहलू ये है कि तेल की कीमतों का असर ऑटोमोबाइल की सेल्स से लेकर प्याज की कीमतों तक सभी पर पड़ा है. वहीं इलेक्ट्रिक स्कूटर मेकर्स हो सकता है कि इस बात की योजना बना रहे हों कि अगर इन सबमें उन्हें कोई उम्मीद की किरण दिखे तो इसमें उनका फायदा होगा.
पारंपरिक तौर पर बीजेपी का मजबूत राजनीतिक चुनाव क्षेत्र निम्न मध्यम वर्गीय और गरीब वोटरों का है, इन्हें बेरोजगारी से ज्यादा कीमतों का बढ़ना असुरक्षित करेगा.
इसका मतलब है कि अगर बीजेपी ने इस हफ्ते विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राहत की सांस ली है तो उसे इसके साथ ही उसे इस दोमुंही समस्या का निदान भी ढूंढना होगा, जिसमें पहला है— रुका हुआ आर्थिक विकास और दूसरी समस्या है बढ़ती महंगाई. इसके लिए योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी की डबल इंजन पॉलिटिकल टीम को अब आर्थिक पक्ष की दोहरी बाधाओं की तरफ नजर डालनी होगी और समाधान ढूंढना होगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 13 Mar 2022,03:56 PM IST