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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना उपचुनाव के लिए विपक्ष की खेमेबंदी पूरी हो गई है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी की बैठक के बाद तबस्सुम हसन की उम्मीदवारी का एलान हुआ है. गोरखपुर और फूलपुर में उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस ने भी तबस्सुम को समर्थन देने की घोषणा कर दी है. इससे ये भी साफ हो गया है कि इस चुनाव में विपक्ष सांकेतिक तौर पर भी अलग- अलग नहीं लड़ेगा. जाहिर है कैराना में मुस्लिम, जाट और दलित समीकरण बनाने की कोशिश तेज हो रही हैं.
कैराना का ये समीकरण कामयाब रहा तो इसमें इतनी ताकत है कि 2019 में नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने से रोक सकता है. ऐसे में कैराना उपचुनाव का महत्व कर्नाटक विधानसभा चुनाव से कम नहीं दिख रहा. बीजेपी को भी इसका पूरा अहसास है. इसलिए बीजेपी ने इस समीकरण को तोड़ने के लिए सारी ताकत झोंक दी है. सूबे के एक दर्जन मंत्री इस उपचुनाव के लिए डेरा डाल चुके हैं.
राष्ट्रीय लोक दल (RLD) जाट नेता अजित सिंह की पार्टी है. तबस्सुम हसन खुद 2009 में इसी सीट से समाजवादी पार्टी की सांसद थीं. उनके पति मुनव्वर हसन 1996 में यहां से सांसद थे और बाद में 2004 में वो बहुजन समाज पार्टी से मुजफ्फरनगर के सांसद बने. तबस्सुम के ससुर अख्तर हसन 1984 में कैराना से कांग्रेस के सांसद थे. तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन कैराना विधानसभा से समाजवादी पार्टी के विधायक हैं. यानी तबस्सुम के परिवार का कैराना लोकसभा ही नहीं बल्कि मुजफ्फरनगर लोकसभा में भी काफी दखल है. इस क्षेत्र की तीन बड़ी पार्टियों कांग्रेस, बीएसपी और एसपी से इस परिवार के रिश्ते तीन पीढ़ी पुराने हैं. अब आरएलडी से भी रिश्ता जुड़ गया है और इस रिश्ते को बाकी तीन पार्टियों का समर्थन हैं.
मुकाबला बेहद कड़ा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां जबरदस्त ध्रुवीकरण और मोदी लहर में समूचा विपक्ष तिनके की तरह उड़ गया था. यहां 73% मतदान हुआ था.
ये सीट हुकुम सिंह की असमय निधन से खाली हुई है. हुकुम सिंह यहां काफी दखल रखते थे. वो पहली बार कांग्रेस के टिकट पर 1974 में कैराना के विधायक बने थे. उसके बाद 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर) और फिर 1985 में कांग्रेस से विधानसभा पहुंचे. 1996 से 2014 तक लगातार बीजेपी से विधायक रहे और फिर संसद पहुंचे. साफ है कि यहां उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है.
खबरों को सच माने तो इस बार बीजेपी हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतार रही है. वोटों का बिखराव न हो इसके लिए बीजेपी पूरे परिवार को पहले ही एकजुट कर चुकी है. ऐसे में मृगांका पास भी कई दशकों की सियासी विरासत होगी, मजबूत संगठन होगा और पिता के निधन से पैदा हुई जनता की सहानुभूति भी.
इस उपचुनाव में मिली जीत और हार का असर 2019 लोकसभा चुनाव पर भी दिखेगा. गोरखपुर और फूलपुर में मिली हार के बाद बीजेपी जख्मी शेर की तरह मैदान में उतरेगी. पीएम मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ की यही कोशिश होगी कि कैराना की जमीन पर विपक्ष को हर हाल में शिकस्त दी जाए. उधर विपक्ष को भी इस चुनाव का महत्व पता है. इसके नतीजों का असर पूरे राज्य और देश पर पड़ने वाला है. इसलिए वो पहले से कहीं अधिक सतर्क और संगठित नजर आ रहा है. कैराना उपचुनाव में जीत-हार के क्या मायने हैं उन पर एक नजर:
कैराना लोकसभा सीट 1962 में अस्तित्व में आई थी. यहां कुल 17 लाख मतदाता हैं जिनमें से 5 लाख मुसलमान हैं. यहां अब तक 14 बार चुनाव हुए हैं और उनमें से 6 बार मुसलमान जीते हैं. उनके अलावा यहां पर 4 लाख पिछड़े (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य) और 2.5 लाख दलित मतदाता हैं.
2014 का चुनाव दो वजहों से अलग था. एक तो मोदी लहर थी और दूसरे मुजफ्फरनगर दंगों के चलते यहां जोरदार धार्मिक ध्रुवीकरण था. इसका फायदा हुकुम सिंह को मिला. इस बार चुनाव थोड़ा अलग है. मोदी लहर कमजोर पड़ चुकी है. दंगों को लंबा वक्त बीत गया है. विपक्ष एकजुट है. जाहिर है मुकाबला दिलचस्प होगा. सूबे और देश की राजनीति पर इसके नतीजों के दूरगामी परिणाम पड़ेंगे.
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Published: 07 May 2018,09:43 PM IST