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यूपी उपचुनाव: BJP के लिए कर्नाटक से कम अहम नहीं है कैराना

इस उपचुनाव में मिली जीत और हार का असर 2019 लोकसभा चुनाव पर भी दिखेगा.

विक्रांत दुबे
पॉलिटिक्स
Updated:
बीजेपी के लिए ‘कर्नाटक’ से कम अहम नहीं है ‘कैराना’
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बीजेपी के लिए ‘कर्नाटक’ से कम अहम नहीं है ‘कैराना’
(फोटोः The Quint)

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना उपचुनाव के लिए विपक्ष की खेमेबंदी पूरी हो गई है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी की बैठक के बाद तबस्सुम हसन की उम्मीदवारी का एलान हुआ है. गोरखपुर और फूलपुर में उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस ने भी तबस्सुम को समर्थन देने की घोषणा कर दी है. इससे ये भी साफ हो गया है कि इस चुनाव में विपक्ष सांकेतिक तौर पर भी अलग- अलग नहीं लड़ेगा. जाहिर है कैराना में मुस्लिम, जाट और दलित समीकरण बनाने की कोशिश तेज हो रही हैं.

कैराना का ये समीकरण कामयाब रहा तो इसमें इतनी ताकत है कि 2019 में नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने से रोक सकता है. ऐसे में कैराना उपचुनाव का महत्व कर्नाटक विधानसभा चुनाव से कम नहीं दिख रहा. बीजेपी को भी इसका पूरा अहसास है. इसलिए बीजेपी ने इस समीकरण को तोड़ने के लिए सारी ताकत झोंक दी है. सूबे के एक दर्जन मंत्री इस उपचुनाव के लिए डेरा डाल चुके हैं.

तबस्सुम के पास 3 पीढ़ियों की विरासत, 4 दलों का आधार

राष्ट्रीय लोक दल (RLD) जाट नेता अजित सिंह की पार्टी है. तबस्सुम हसन खुद 2009 में इसी सीट से समाजवादी पार्टी की सांसद थीं. उनके पति मुनव्वर हसन 1996 में यहां से सांसद थे और बाद में 2004 में वो बहुजन समाज पार्टी से मुजफ्फरनगर के सांसद बने. तबस्सुम के ससुर अख्तर हसन 1984 में कैराना से कांग्रेस के सांसद थे. तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन कैराना विधानसभा से समाजवादी पार्टी के विधायक हैं. यानी तबस्सुम के परिवार का कैराना लोकसभा ही नहीं बल्कि मुजफ्फरनगर लोकसभा में भी काफी दखल है. इस क्षेत्र की तीन बड़ी पार्टियों कांग्रेस, बीएसपी और एसपी से इस परिवार के रिश्ते तीन पीढ़ी पुराने हैं. अब आरएलडी से भी रिश्ता जुड़ गया है और इस रिश्ते को बाकी तीन पार्टियों का समर्थन हैं.

2014 में कैराना से तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन ने चुनाव लड़ा था. लेकिन उन्हें बीजेपी के हुकुम सिंह के हाथों हार का सामना करना पड़ा. मगर इस बार खुद तबस्सुम तीन पीढ़ियों की विरासत और चार दलों के समर्थन का आधार लेकर मैदान में उतरेंगी.

हुकुम सिंह को मिले थे 50 फीसदी से ज्यादा वोट

लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हुकुम सिंह को 50.54 % यानी आधे से अधिक वोट मिले थे(फाइल फोटोः ANI)

मुकाबला बेहद कड़ा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां जबरदस्त ध्रुवीकरण और मोदी लहर में समूचा विपक्ष तिनके की तरह उड़ गया था. यहां 73% मतदान हुआ था.

भारी मतदान के बीच बीजेपी के हुकुम सिंह को 50.54 % यानी आधे से अधिक वोट मिले थे. समाजवादी पार्टी के नाहिद हसन को 29.49 %, बीएसपी के कंवर हसन को 14.33 %और आरएलडी के करतार सिंह भड़ाना को 3.81% वोट मिले थे.

ये सीट हुकुम सिंह की असमय निधन से खाली हुई है. हुकुम सिंह यहां काफी दखल रखते थे. वो पहली बार कांग्रेस के टिकट पर 1974 में कैराना के विधायक बने थे. उसके बाद 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर) और फिर 1985 में कांग्रेस से विधानसभा पहुंचे. 1996 से 2014 तक लगातार बीजेपी से विधायक रहे और फिर संसद पहुंचे. साफ है कि यहां उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है.

खबरों को सच माने तो इस बार बीजेपी हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतार रही है. वोटों का बिखराव न हो इसके लिए बीजेपी पूरे परिवार को पहले ही एकजुट कर चुकी है. ऐसे में मृगांका पास भी कई दशकों की सियासी विरासत होगी, मजबूत संगठन होगा और पिता के निधन से पैदा हुई जनता की सहानुभूति भी.

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कैराना में जीत-हार के मायने

इस उपचुनाव में मिली जीत और हार का असर 2019 लोकसभा चुनाव पर भी दिखेगा. गोरखपुर और फूलपुर में मिली हार के बाद बीजेपी जख्मी शेर की तरह मैदान में उतरेगी. पीएम मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ की यही कोशिश होगी कि कैराना की जमीन पर विपक्ष को हर हाल में शिकस्त दी जाए. उधर विपक्ष को भी इस चुनाव का महत्व पता है. इसके नतीजों का असर पूरे राज्य और देश पर पड़ने वाला है. इसलिए वो पहले से कहीं अधिक सतर्क और संगठित नजर आ रहा है. कैराना उपचुनाव में जीत-हार के क्या मायने हैं उन पर एक नजर:

बीजेपी की जीत के मायने

उपचुनाव में मिली जीत और हार का असर  बीजेपी को 2019 लोकसभा चुनाव पर भी दिखेगा (फोटोः PTI)
  • संगठित विपक्ष के खिलाफ जीत हासिल करने के लिए बीजेपी को फिर से 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल करना होगा. ऐसा हुआ तो इसका मतलब ये निकाला जाएगा कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का दबदबा कम नहीं हुआ है. हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना का प्रकरण जिस तरह उठा है, आने वाले दिनों में समाज को धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिशें और तेज होंगी. 2014 के आमचुनाव से पहले जो माहौल था वैसा ही माहौल तैयार करने की कोशिश फिर से होगी.
  • इसका एक अर्थ ये होगा कि गोरखपुर और फूलपुर में विपक्ष को मिली जीत दरअसल बीजेपी कार्यकर्ताओं और संगठन की उदासनीयता और जरूरत से ज्यादा भरोसा का नतीजा था. इस लिहाज से बीजेपी की दोनों हार का महत्व कम हो जाएगा.
  • सूबे में राजनीति का माहौल फिर से बीजेपी के पक्ष में हो जाएगा. जिस तरह हर बहस के केंद्र में गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी की टीस है, उसी तरह भविष्य में हर सियासी बहस के केंद्र में कैराना की जीत होगी.
  • बीजेपी संगठन और कार्यकर्ताओं के बीच नया उत्साह आएगा. उनके पास संगठित विपक्ष को हराने का फॉर्मूला होगा और उस पर अमल की रणनीति भी.

विपक्ष की जीत के मायने

राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी मिलकर लड़ रही हैं चुनाव(फोटोः Altered By HQ)
  • गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना की जीत का सीधा अर्थ यही होगा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी मोदी लहर की हवा निकल गई है. मतलब संगठित विपक्ष के आगे बीजेपी की दाल नहीं गलेगी. ऐसा हुआ तो 2019 में बीजेपी की सत्ता वापसी का ख्वाब अधूरा रहेगा.
  • तबस्सुम की जीत का सीधा अर्थ होगा कि हिंदू-मुस्लिम दंगों के जख्म भरने लगे हैं. लोग अतीत की खौफनाक यादों से उबर कर खुद को और समाज को नई दिशा देने में जुट गए हैं.
  • ये धर्म आधारित राजनीति के मुंह पर करारा तमाचा होगा और बीजेपी को बड़ा सबक मिलेगा कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती. लोगों का दिल जीतने के लिए उनके जरूरतों के बुनियादी मुद्दों पर काम करना होता है. चुनाव पूर्व के वादों को पूरा करना होता है.
  • दोहरी जीत से उत्साहित संगठित विपक्ष के पास पूरे प्रदेश और देश में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को हराने का मंत्र होगा और रणनीति भी. ये मुमकिन है कि इस जीत से विपक्षी नेताओं को निजी अहंकारों को छोड़ कर देश की राजनीति को नई दिशा देने की प्रेरणा मिले.

क्या है कैराना का समीकरण?

कैराना लोकसभा सीट 1962 में अस्तित्व में आई थी. यहां कुल 17 लाख मतदाता हैं जिनमें से 5 लाख मुसलमान हैं. यहां अब तक 14 बार चुनाव हुए हैं और उनमें से 6 बार मुसलमान जीते हैं. उनके अलावा यहां पर 4 लाख पिछड़े (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य) और 2.5 लाख दलित मतदाता हैं.

2014 का चुनाव दो वजहों से अलग था. एक तो मोदी लहर थी और दूसरे मुजफ्फरनगर दंगों के चलते यहां जोरदार धार्मिक ध्रुवीकरण था. इसका फायदा हुकुम सिंह को मिला. इस बार चुनाव थोड़ा अलग है. मोदी लहर कमजोर पड़ चुकी है. दंगों को लंबा वक्त बीत गया है. विपक्ष एकजुट है. जाहिर है मुकाबला दिलचस्प होगा. सूबे और देश की राजनीति पर इसके नतीजों के दूरगामी परिणाम पड़ेंगे.

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Published: 07 May 2018,09:43 PM IST

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