आजादी के 70 साल बाद दलितों का एक अच्छा-खासा शहरी मिडिल क्लास बन चुका है, जो छुआछूत के परंपरागत तरीकों का शिकार नहीं है. वह महत्वाकांक्षी है और उसे अब राजकाज की उच्च संस्थाओं से लेकर देश की अमीरी में हिस्सा चाहिए. नेताओं के दलित भोज से उसे प्रभावित नहीं किया जा सकता.
- अभी इस बात को सौ साल भी नहीं हुए हैं. मुंबई के पास महाड़ के चावदार तालाब में दलितों को पानी पीने से रोका जा रहा था. रोकने वालों का तर्क साधारण, लेकिन बेहद दमदार था. इस तालाब का पानी गांव के सवर्ण इस्तेमाल करते थे और इससे पहले दलितों ने कभी मांग भी नहीं की थी कि वे भी इसी तालाब से पानी पीएंगे. आखिरकार दलितों ने 20 मार्च, 1927 को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में इस तालाब में पानी पीकर अपना मनुष्य होने का हक हासिल किया. लेकिन यह एक सांकेतिक कदम ही था. उस समय देश के बड़े हिस्से में दलित उन तालाबों का पानी नहीं पी सकते थे, जिसका इस्तेमाल बाकी जातियों के लोग करते थे.
- इसके तीन साल बाद नासिक के पास कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए बाबा साहेब के नेतृत्व में एक आंदोलन हुआ. इस लोकप्रिय मंदिर में दलितों को घुसने की इजाजत नहीं थी. यहां भी दलितों ने मंदिर प्रवेश का अधिकार हासिल किया.
- देश के कई होटलों में लंबे समय तक दो तरह के गिलास रखने का चलन था. दलितों के गिलास अलग रखे जाते थे, ताकि सवर्ण जातियों की जाति शुद्धता बनी रहे.
- आजादी से पहले, छुआछूत मिटाने के लिए मोहनदास करमचंद गांधी वाल्मीकि बस्ती में जाकर रहते थे. तब इसे बहुत क्रांतिकारी कदम माना जाता था.
यह आजादी के पहले का भारत था. दलितों को तब अछूत कहा जाता था और छुआछूत सख्ती से लागू होती थी. जाति भेद की कई शक्लें हैं. यह कई तरह से काम करता है. जातिवाद के मूल में शुद्धता और अशुद्धता के द्वैत या बायनरी का काफी महत्व है. कोई किसे छू सकता है और किसे नहीं, कौन किसका छुआ हुआ खा सकता है और किनका छुआ हुआ खाना वर्जित है, किनका छुआ हुआ कच्चा खाना लिया जा सकता है और किनका बनाया हुआ पक्का खाना खाया जा सकता है, कौन मंदिर के किस हिस्से तक आ सकता है, किस तरह का खाना शुद्ध है और कौन सा खाना अशुद्ध है, जैसी बातों को लेकर न सिर्फ शास्त्रीय विधान हैं, बल्कि लोक व्यवहार में भी यह तय होता है.
जातिवाद की हायरार्की यानी ऊंच और नीच की क्रमिक व्यवस्था में छूत और अछूत और शुद्ध और अशुद्ध का स्पष्ट विधान है.
आजादी के बाद बहुत कुछ बदल गया है. संविधान में ही लिखा है कि छुआछूत मना है. सिविल राइट्स एक्ट के जरिए छुआछूत को दंडनीय अपराध बनाया गया है. इसके अलावा एससी-एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम, 1989 के जरिए भी छुआछूत को प्रतिबंधित किया गया है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में इस एक्ट को ढीला कर दिया है, जिसके खिलाफ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दाखिल की है.
इस पर अभी सुनवाई चल रही है. इतना तय है कि आजादी से पहले वाला छुआछूत अब उसी रूप में लागू नहीं है. जाति मौजूद है, लेकिन छुआछूत के बंधन ढीले पड़े हैं.
जब किसी पार्टी के सवर्ण नेता किसी अछूत या ओबीसी जाति के व्यक्ति के घर जाकर खाना खाते हैं, तो वे जाति के शुद्धता और अशुद्धता के बंधनों के खिलाफ जाकर काम कर रहे होते हैं. यह एक आधुनिक समाज में एक दूसरे के घर पर खाना खाने जितना सरल मामला नहीं है.
सवर्ण नेता खाना खाकर यह भी बता रहे होते हैं कि तुम जाति व्यवस्था में नीच हो और मेरा शास्त्र मुझे इजाजत नहीं देता कि मैं तुम्हारे घर पर खाना खाऊं, लेकिन मैं ऐसा कर रहा हूं. यह सवर्ण उदारता का प्रदर्शन है.
ऐसा करके कोई सवर्ण अच्छा फील कर सकता है कि मैंने एक नीच के घर भोजन किया और जाति के बंधन को, कम से कम खाने के मामले में अस्वीकार कर दिया. सवर्णों का एक हिस्सा इससे आगे बढ़कर यह सोच सकता है कि शुद्धता और अशुद्धता का विभाजन नकली और अमानवीय था, लिहाजा हमें इसके आगे बढ़ना चाहिए.
यह भी सवर्ण उदारता ही है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वही सवर्ण व्यक्ति, जाति के तमाम बंधनों से मुक्त हो गया है. शादी या ऐसे ही तमाम और मामलों में वह जातिवादी बना रह सकता है. खाने की प्लेट और शादी के मंडप में जाति अलग-अलग तरीके से काम कर सकती है.
यह तो हुई सवर्ण प्रतिक्रिया की बात. सवाल उठता है कि दलितों के घर भोजन करने के कार्यक्रम की दलित मानस पर क्या प्रतिक्रिया होती होगी?
ऐसे मामलों में दो तरह की प्रतिक्रियाओं की उम्मीद की जा सकती है. वह दलित व्यक्ति यह सोच सकता है कि नेताजी कितने उदार हैं कि उन्होंने मेरे घर का भोजन स्वीकार किया, जबकि उनका शास्त्र उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता. उसे लगेगा कि हिंदू धर्म में सुधार की एक प्रक्रिया चल रही है और देर-सबेर जाति के बंधन कमजोर पड़ जाएंगे और उसकी एक सम्मानजनक जगह हिंदू व्यवस्था के अंदर होगी.
ऐसा सोचने वाले दलितों की संख्या काफी हो सकती है. उन्हें अच्छा महसूस हो सकता है कि ऊंची जाति के माने गए लोग घर पर आकर खाना खा रहे हैं. इस तरह कम से कम भोजन के मामले में, उसके अशुद्ध होने का बोध कमजोर हो सकता है. यह एक नागरिक के रूप में उसके सामान्यीकरण को मजबूत करेगा.
लेकिन ऐसी प्रतिक्रिया हर दलित की नहीं होगी.
आज से सौ साल पहले जब किसी दलित को तालाब में पानी पीने की इजाजत मिल जाती होगी या मंदिर में घुसने दिया जाता होगा, तो यह उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होती होगी, क्योंकि इससे उसका अशुद्ध होने का हीनताबोध खत्म होता होगा.
लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में क्या दलित इस बात को लेकर संतुष्ट हो सकते हैं कि उसे बाकी लोगों के साथ पानी पीने दिया जा रहा है या कि किसी सवर्ण ने उसके घर में आकर भोजन कर लिया?
अब दरअसल दलितों का एक विशाल शहरी मध्यवर्ग बन चुका है. इस मध्यवर्ग के निर्माण में सबसे बड़ा योगदान सरकारी नौकरियों में दिए जाने वाले आरक्षण का है. देश भर में सरकारी, अर्धसरकारी, स्थानीय निकाय और पीएसयू में कुल मिलाकर दो करोड़ के आसपास कर्मचारी और अधिकारी हैं.
आरक्षण के नियमों के मुताबिक, अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों और अफसरों की संख्या 44 लाख से ज्यादा होनी चाहिए. 44 लाख से ज्यादा मध्यवर्गीय परिवारों के अलावा, रिटायर्ड यानी पेंशनभोगी कर्मचारियों की भी विशाल संख्या है. शहरीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के कारण भी जातियां परंपरागत कारोबार और कामकाज से मुक्त हुईं हैं. इस वजह से निजी क्षेत्र में भी दलितों का एक मिडिल क्लास बना है. ये सब पढ़े-लिखे और सक्षम लोग हैं. इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ियां शिक्षित हो रही हैं, शहरों में रह रही हैं.
इस दलित मध्यवर्ग के लिए इस बात के क्या मायने हैं कि सवर्ण नेता दलितों के घर में खाना खा रहे हैं?
यह दलित मध्यवर्ग बेहद महत्वाकांक्षी है. वह तरक्की की सीढ़ियां तेजी से चढ़ना चाहता है. वह किसी समुदाय के सदस्य के बजाए, नागरिक की तरह जीना चाहता है, जहां उसे उसकी जन्म की पहचान से न तोला जाए. उसे यह बिल्कुल पसंद नहीं आएगा कि कोई उसे बताए कि “तुम अशुद्ध हो, तुम्हारे घर का खाना खाने की हमारे शास्त्रों में पाबंदी है, लेकिन हम तुम्हारे घर पर खाना खाने आए हैं. हम तुम पर उपकार कर रहे हैं.”
आज का शहरी मध्यवर्गीय दलित इन प्रतीकात्मक चीजों से ऊपर उठ चुका है. इस तबके में एक हिस्सा ऐसा भी है, जिसने छुआछूत को झेला भी नहीं है. वह खुद को अशुद्ध या किसी से नीच मानता भी नहीं है. खानपान की शुद्धता वैसे भी शहरों में काफी कमजोर पड़ चुकी है. डाइनिंग आउट के बढ़ते चलन के कारण अब बहुत लोग इसकी परवाह भी नहीं करते कि खाना किसने बनाया है और किसने परोसा है.
नए उभरते दलित मध्यवर्ग की मांगें और महत्वाकांक्षाएं अलग हैं. राज्य की संस्थाओं से उसकी मांग शुद्ध कहलाने की नहीं है. वह शिक्षा के बेहतर अवसर चाहता है, स्कॉलरशिप चाहता है, अच्छी नौकरियां चाहता है, बैंक लोन चाहता है. उसकी महत्वाकांक्षाएं भौतिक हैं और उसकी तरक्की से जुड़ी है.
यही दलित मध्यवर्ग दलित समुदाय का ओपिनियन मेकर है. इस वर्ग की बात पूरे समुदाय में सुनी जाती है. कोई नेता अगर सोच रहा है कि दलितों के घर में रात बिताकर या उनके घर पर खाना खाकर वह दलितों के मध्यवर्ग पर कोई असर डाल पाएगा, तो वह गलतफहमी में है. इस तबकों को साथ लेने के लिए शासन और सत्ता के तमाम केंद्रों में विविधता लाने की जरूरत है. 2018 में दलितों के एक बड़े हिस्से की ऐसी ही महत्वाकांक्षाएं हैं.
हम यह कैसे भूल सकते हैं कि 1930 के कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन के बाद बाबा साहेब ने सारी लड़ाई दलितों के अधिकारों के लिए लड़ी. छुआछूत मिटाने की लड़ाई की निरर्थकता को वे समझ चुके थे.
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