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करतारपुर साहिब कॉरिडोर भारतीय श्रद्धालुओं के लिए खुल चुका है. भारत के डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे और पाकिस्तान के करतापुर साहिब गुरुद्वारे को जोड़ने वाले करतारपुर कॉरिडोर की शुरुआत के पीछे सिख समुदाय की प्रार्थनाएं शामिल हैं. भारतीय सिख समुदाय लंबे अरसे से चाहता था कि करतापुर साहिब कॉरिडोर बने, ताकि वे उस पवित्र स्थल के दर्शन करने जा पाएं, जहां गुरु नानक ने अपने जीवन के आखिरी 18 साल बिताए थे.
अब तक, भारतीय सिख समुदाय को बॉर्डर के पास भारतीय सीमा में स्थित डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे से दूरबीन के जरिए बॉर्डर पास स्थित करतारपुर गुरुद्वारे की एक झलक पाने की अनुमति थी.
जान-माल के नुकसान के अलावा, सिखों के लिए विभाजन का सबसे बड़ा घाव ये भी था, कि वे नानक साहिब और करतारपुर साहिब जैसे गुरु नानक से जुड़े पवित्र स्थलों से दूर हो गए थे. करतारपुर साहिब कॉरिडोर उनके घावों पर मरहम का काम करेगा.
सिखों के लिए इस महत्वपूर्ण क्षण के बीच करतारपुर साहिब को लेकर राजनीति हो रही है, जोकि दुखद है. हालांकि, पंजाब की राजनीति को देखते हुए यह हैरान करने वाला नहीं है कि तमाम नेता इस मौके का इस्तेमाल पॉलिटिकल नंबर बनाने के लिए कर रहे हैं.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने करतारपुर साहिब कॉरिडोर को वास्तविक बनाने का जिम्मा उठाते हुए अपने भारतीय समकक्ष नरेंद्र मोदी को थोड़ी दुविधा में छोड़ दिया.
एंटी पाकिस्तान रुख के साथ 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने के बाद पीएम मोदी सिखों के बीच समर्थन खोने के डर से करतारपुर कॉरिडोर को स्वीकार करने के लिए मजबूर थे. मोदी कॉरिडोर का क्रेडिट लेने के इच्छुक हैं. क्योंकि यह पंजाब में बीजेपी की पकड़ मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है.
हालांकि, मोदी को राजनीतिक रूप से उनके लिए काम करने वाले एंटी पाकिस्तान कार्ड को बनाए रखने के लिए एक संतुलन बनाना पड़ा है. यही वजह रही कि उन्होंने करतारपुर साहिब गुरुद्वारा जाने के बजाय भारतीय सीमा की तरफ ही कॉरिडोर का उद्घाटन किया.
पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह एक द्वंद में नजर आए. वो खुलकर इस कॉरिडोर का विरोध नहीं कर पाए, जिससे सिख वोट उनसे दूर हो सकता था. वहीं, वो इस प्रोजेक्ट को लगातार पाकिस्तान की ISI का खालिस्तान मूवमेंट को बढ़ावा देने की चाल बताते रहे. ये बात उन्होंने तब भी कही जब पाकिस्तान ने सिखों का स्वागत करते हुए एक वीडियो जारी किया जिसमें खालिस्तानी आइकॉन जरनैल सिंह भिंडरांवाले, जनरल शाहबेग बेग और भाई अमरीक सिंह के पोस्टर नजर आए थे.
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक सिंह का ये तरीका पंजाब के हिंदू वोट बैंक को जीतने की कोशिश है. ये वोट बैंक निर्याणक रूप से एक से दूसरी तरफ खिसकता रहता है और राज्य में चुनावी नतीजों पर प्रभाव डालता है. 2017 में इस वोट बैंक ने सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सपोर्ट किया लेकिन 2019 में ये बीजेपी की तरफ चला गया.
लेकिन कॉरिडोर को पाकिस्तान की चाल बताकर अमरिंदर सिंह ने सिखों की नाराजगी भी मोल ले ली है.
अकाली दल ने नवजोत सिंह सिद्धू की आलोचना करने का कोई मौका नहीं छोड़ा है. पिछले साल सिद्धू की पाकिस्तानी पीएम इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूदगी के दौरान ही इस प्रोजेक्ट की फिर बात चली थी.
लेकिन समय बीतने के साथ अकाली दल को पता लग गया कि इस प्रोजेक्ट को सिखों का भारी समर्थन हासिल है और उन्होंने अपना रुख बदल दिया.
अमरिंदर सिंह के पाकिस्तान की तरफ से जारी वीडियो को ISI के साजिश बताने के बावजूद अकाली लगभग खामोश रहे.
अकाली दल ने ये दिखाने की कोशिश की है कि वो सिखों की भावनाओं को कांग्रेस से बेहतर समझते हैं. हालांकि, ये कहना मुश्किल है कि उनके चुप रहने से अकालियों के खिलाफ बरगाड़ी बेअदबी कांड और कोटकापुरा फायरिंग मामलों से भड़के गुस्से को कितनी राहत मिलती है.
पंजाब में भारी संख्या में लोगों के लिए नवजोत सिंह सिद्धू करतारपुर साहिब मामले के हीरो बनकर उभरे हैं. सिख संगठन दशकों से इसकी मांग उठा रहे थे. लेकिन सिद्धू का इमरान खान के शपथ ग्रहण में जाना और आर्मी चीफ कमर जावेद बाजवा से मुलाकात इस प्रोजेक्ट को अस्तित्व में लाने के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई.
लोकसभा चुनाव से पहले एक्सिस और इंडिया टुडे के ओपिनियन पोल के मुताबिक, पंजाब में कांग्रेस की सफलता के पीछे करतारपुर साहिब मामले के बाद सिद्धू की लोकप्रियता थी.
लोकसभा चुनाव के बाद पंजाब में सिद्धू के लिए मुश्किलें पैदा हो गई थी. अमरिंदर सिंह ने सिद्धू को किनारे करना शुरू कर दिया था. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्षता में रूचि न लेने से सिद्धू को पार्टी आलाकमान से भी सपोर्ट नहीं मिला. लेकिन करतारपुर साहिब मामले से वो एक बार फिर लाइमलाइट में हैं.
पिछले कुछ हफ्तों में सिद्धू ने केंद्र और अमरिंदर से तल्खियां थोड़ी कम की हैं. उन्होंने कॉरिडोर के उद्घाटन में पाकिस्तान जाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार से इजाजत मांगी. दोनों सरकारों ने टालमटोली की जिसका राजनीतिक फायदा सिद्धू को मिला.
कई लोगों को लगता है कि करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन के बाद सिद्धू राज्य की पॉलिटिक्स में अपनी चाल चलेंगे. सिद्धू की छवि एक कट्टर सिख नेता की नहीं है. वो कई हिंदू मान्यताओं को फॉलो करते रहे हैं और माता वैष्णो देवी के भक्त हैं. लेकिन इस कॉरिडोर ने उन्हें धार्मिक सिखों के बीच नायक बना दिया है.
इस पूरे प्रकरण में सबसे उत्सुक इमरान खान रहे हैं. उनके इरादों पर काफी चर्चा रही. भारत में कई हलकों ने उनके करतारपुर कॉरिडोर के कदम को खालिस्तान मूवमेंट को दोबारा जिंदा करने की चाल करार दिया है.
लेकिन खान को कई भारतीय सिखों से तारीफ मिली है. और ये तारीफ न सिर्फ कॉरिडोर बल्कि थोड़े से वक्त में पाकिस्तान स्थित दरबार साहिब गुरूद्वारे के आसपास इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के लिए भी हुई है.
इमरान के लिए कई मायनों में फायदेमंद है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वो दिखा सकते हैं कि उनकी सरकार साउथ एशिया में शांति चाहते हैं और पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जरूरत का भी ध्यान रखते हैं.
सिखों की वाहवाही लूटने के अलावा खान ने पीएम मोदी को असमंजस की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया. कश्मीर मामले पर राजनयिक तनातनी के बीच पीएम मोदी का एक ऐसे प्रोजेक्ट से सामना हुआ जिसे पाकिस्तान ने शुरू किया है.
पंजाब के सिखों के बीच एक अनौपचारिक सर्वे भी ये बता देगा कि नेताओं के बीच सिद्धू को ही सबसे ज्यादा वाहवाही मिल रही है. इसके अलावा इमरान खान को कोशिशों के लिए तारीफ मिल रही है. पीएम मोदी को भारत-पाकिस्तान के बीच के तनाव का असर कॉरिडोर पर न पड़ने देने के लिए वाहवाही मिल रही है.
हालांकि, सिखों के बीच अमरिंदर सिंह की छवि को कुछ नुकसान हुआ है.
लेकिन असल श्रेय नेताओं को नहीं मिल सकता.
असली तारीफ करतारपुर के संगत लंगाह के अध्यक्ष भभीषन सिंह और करतारपुर साहिब अभिलाखी संस्था के गुरिंदर सिंह बाजवा और उनके जैसे कई एक्टिविस्ट की होनी चाहिए.
इन लोगों ने दशकों से कितनी ही बार भारत और पाकिस्तान की सरकारों को इसके लिए पेटिशन दी थी. इस कॉरिडोर की सफलता के हकदार वो सिख भी हैं जो इसके लिए बरसो से प्रार्थना कर रहे थे.
और इन सबसे ऊपर ये गुरू नानक देव की के विचार थे, जिससे साउथ एशिया के दो ऐसे देश साथ आए जिनके बीच तनाव लगभग हमेशा ही बना रहता है.
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