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Jalore Student Death: पानी के लिए दलितों की लड़ाई बहुत पुरानी है।SIYASAT EP-04

Mahad Satyagraha Of BR Ambedkar: भारत की आजादी के 75 साल बाद भी दलित ‘आजादी’ की लड़ाई लड़ रहे हैं.

उपेंद्र कुमार
पॉलिटिक्स
Updated:
<div class="paragraphs"><p>जब B R Ambedkar ने दो घूंट पानी पीकर दी थी जातिवाद को चुनौती। SIYASAT EP-04</p></div>
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जब B R Ambedkar ने दो घूंट पानी पीकर दी थी जातिवाद को चुनौती। SIYASAT EP-04

(फोटोः उपेंद्र कुमार/क्विंट)

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राजस्थान के जालोर में सरस्वती विद्या मंदिर में एक दलित बच्चे को टीचर ने पीटकर मार डाला. उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपने सवर्ण शिक्षक के पानी के घड़े को छूने की जुर्रत की थी. ऐसा लगता है कि देश जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो करीब 20 करोड़ लोग दलित अब भी ‘आजादी’ की लड़ाई लड़ रहे हैं. अगर किसी को ऐसा लगता है कि जालोर की घटना अपवाद है और इसका आगा पीछा कुछ नहीं, तो वो गलत है. क्विंट के लिए लिखे एक लेख में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार लिखती हैं कि 100 साल पहले उनके पिता बाबू जगजीवन राम को भी स्कूल में ऐसे ही पानी पीने से रोका गया था.

दरअसल जिस पानी के लिए दलित छात्र की हत्या हुई है, उसपर बराबरी का हक पाने के लिए दलित सदियों से लड़ रहे हैं. दलितों के मसीहा अंबेडकर ने भी पानी पर हक की लड़ाई लड़ी.

महाड़, पश्चिम महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र में एक कस्बा है. इसी महाड़ कस्बे में चावदार तालाब था. उस तालाब में सवर्ण हिन्दू नहा सकते थे, कपड़े धो सकते थे, यहां तक की जानवर भी पानी पी सकते थे, लेकिन वहां दलित का पानी पीना और प्रवेश वर्जित था.

ये वो दौर था जब जातिवाद अपने घिनौने रूप में मौजूद था.

1920 के दशक में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर लंदन से वकालत की पढ़ाई करके भारत लौटे थे. बाबा साहब ने अपने समाज के लोगों को जागरूक करना शुरू किया कि सार्वजनिक स्थान से पानी पीने का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है. इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक कार्यों और राजनीतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया.

1923 में बम्बई विधान परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया कि सरकार के द्वारा बनाए गए और संरक्षित तालाबों से अछूतों को भी पानी पीने की इजाजत है. 1924 में महाड़ नगर परिषद ने इसे लागू करने के लिए एक प्रस्ताव भी पास किया. फिर भी अछूतों को स्थानीय सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के कारण पानी पीने की इजाजत नहीं थी.

इसके बाद बाबा साहब ने यह निश्चय किया कि हमारा अछूत समाज इस तालाब से पानी पीकर रहेगा. बाबा साहब ने इसके लिए सम्मेलन का आयोजन किया. इसके प्रचार-प्रसार के लिए लोगों को गांव-गांव भेजा गया कि 20 मार्च 1927 को दलित समाज चावदार तालाब से पानी पीएगा.

एक मुसलमान की जमीन पर पंडाल बनाया गया. बताया जाता है कि सवर्ण हिंदुओं ने सम्मेलन के लिए जमीन नहीं देने के लिए मुसमान पर दबाव डाला था.

बाबा साहब की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर लिखते हैं कि...

सम्मेलन में करीब 10 हजार लोग इकट्ठा हुए थे. इस सम्मेलन में बाबा साहब ने अछूतों की भीड़ के सामने ओजस्वी भाषण दिया था.
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महाड़ कूच करने से पहले बाबा साहब ने कहा था कि तीन चीजों को तुम्हें छोड़ना होगा. उन कथित गंदे पेशों को छोड़ना होगा, जिनके कारण तुम पर लांछन लगाए जाते हैं. मरे हुए जानवरों का मांस खाने की परम्परा भी छोड़नी होगी और सबसे अहम है कि तुम उस मानसिकता से मुक्त हो जाओ कि तुम अछूत हो.

उन्होंने पीने के पानी पर सबके समान हक की बात दोहराते हुए कहा था कि यहां हम इसलिए नहीं आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? या यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं ? यहां हम इंसान होने का अपना हक जताने आए हैं. यह समाज की पुनर्संरचना का प्रयास है, सामंतवादी समाज और उसकी असमानता को मिटाने का प्रयास है. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित नए समाज को बनाने का प्रयास है.

भाषण समाप्त करने के बाद बाबा साहब शांतिपूर्ण तरीके से अपने अनुयायियों के साथ तालाब पहुंचे. सबसे पहले बाबा साहब तालाब की सीढ़ियों से उतरे और पानी हाथ में लेते हुए कहा कि इस पानी को पीने से हम अमर नहीं हो जाएंगे, लेकिन इससे ये साबित होगा कि हम भी इंसान हैं. इसके बाद उन्होंने पानी की घूंट भरी और फिर सभी लोगों ने पानी पीया. भारत के समकालीन इतिहास में ये पहली घटना थी जब अछूतों ने सार्वजनिक तालाब से पानी पिया था.

इन्हीं बाबा साहेब ने आगे चलकर दलितों को उनके हक संविधान में अंकित कर दिए. जिसकी बदौलत आज छूआछूत गैरकानूनी है. लेकिन ये गैरकानूनी सिर्फ कागज पर है.

25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में बाबा साहब ने एक आशंका की ओर इशारा करते हुए कहा था कि

26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोधी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. हमारे राजनीतिक जीवन में समानता होगी, लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे. लेकिन, हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे. कब तक हम इन अंतर्विरोधों का जीवन जिएंगे? कब तक हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देंगे.

बाबा साहेब की ये चेतावनी एकदम सही साबित हुई. दलितों को वोट का हक तो मिला लेकिन समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला. लड़ाई जारी है. मुझे डर है कि ‘जालोर’ आखिरी जुल्म नहीं होगा.

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Published: 20 Aug 2022,08:02 PM IST

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