मेंबर्स के लिए
lock close icon

BJP ने कैसे गुजरात पर कब्जा किया था? । SIYASAT EP-03

Nitish Kumar को BJP से नाता तोड़ते वक्त महाराष्ट्र के अलावा क्या गुजरात की भी कहानी याद आई होगी?

उपेंद्र कुमार
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>SIYASAT EP-03: BJP ने कैसे गुजरात पर कब्जा किया था?</p></div>
i

SIYASAT EP-03: BJP ने कैसे गुजरात पर कब्जा किया था?

(फोटोः उपेंद्र कुमार/क्विंट हिंदी)

advertisement

साल 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी पर सत्ता लोभी होने का आरोप लगा, तो 13 दिन पुरानी सरकार से उन्होंने ये कहते हुए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था कि “पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है, तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा". नीतीश कुमार के बीजेपी से अलग होने पर अटल जी का ये भाषण मुझे याद आया. लेकिन अगर किसी को लगता हो कि बीजेपी ने हाल फिलहाल में अपने सहयोगियों की आहूति देकर सिद्धियां प्राप्त करना शुरू किया है तो वो भारत के सियासी इतिहास से अनभिज्ञ हैं. आज इस वीडियो में आपको बताएंगे कि कैसे गुजरात में मामूली लोकप्रियता वाली बीजेपी बढ़ी और अब सर्वशक्तिमान बन गई. वैसे बीजेपी के इस प्रपंच के उदाहरण गुजरात ही नहीं यूपी से लेकर महाराष्ट्र, नॉर्थ ईस्ट तक बिखरे पड़े हैं.

सबका साथ, सबका विकास और सबको साथ में लेकर चलने की जो फिलॉस्फी थी बीजेपी की अटल और आडवाणी के युग में वो धीरे-धीरे समाप्त हो गई है और मोदी-शाह के युग में येन-केन-प्रकारेण सत्ता में रहना है, जो उनके लिए सबसे सर्वोपरि हो गई है. इसके लिए चुनाव जीतकर सत्ता में आओ या चुनाव हार जाते हैं तो लोगों को तोड़कर सत्ता में आओ. इस फिलॉस्फी के साथ क्षेत्रीय दलों को और विपक्ष को भी करीब-करीब खत्म करने का प्रयास शुरू किया है.
अशोक वानखेड़े, वरिष्ठ पत्रकार

अब NDA की सबसे पुरानी सहयोगी रही JDU ने भी BJP से किनारा कर लिया है. बीजेपी के साथ नीतीश कुमार का दशकों पुराना नाता अब इतिहास बन गया है. नीतीश कुमार ने कहा भी है कि अब वो बीजेपी नहीं रही जो वाजपेयी और आडवाणी के जमाने में थी, जो सहयोगियों को मान-सम्मान देती थी.

RJD नेता और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने भी कहा है कि इतिहास हमें बताता है कि बीजेपी उन दलों को नष्ट कर देती है, जिनके साथ वह गठबंधन करती है. हमने पंजाब और महाराष्ट्र में ऐसा होते देखा है. हिंदी भाषी क्षेत्र में बीजेपी का कोई सहयोगी नहीं बचा है.

यही हाल पूर्वोत्तर के राज्यों में भी है. जहां, बीजेपी ने अपने सहयोगियों को या तो नष्ट कर दिया या उन्हें बीजेपी में ही समाहित होना पड़ा.

  • असम बोडोलैंड इलाके में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट की जगह UPPL ने ले ली.

  • सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी SDF की जगह सिक्किम क्रांति मोर्चा ने ले ली.

  • बाद में पूर्व सीएम पवन कुमार चामलिंग को छोड़कर SDF के सभी विधायक बीजेपी में शामिल हो गए.

  • नगा पीपुल्स फ्रंट की जगह NDPP ने ले ली. बाद में 25 में से 21 विधायक बीजेपी की सहयोगी NDPP में शामिल हो गए.

  • असम गण परिषद ने भी अपना अधिकांश आधार बीजेपी को सरेंडर कर दिया है.

अब आप पूछेंगे कि क्या ये हाल के दिनों में ही हुआ है, बीजेपी में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. बीजेपी के साम-दाम-दंड भेद की राजनीति मोदी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद से शुरू होती है. कहानी शुरू होती है गुजरात से,

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
1977 में चिमन भाई पटेल जनता दल के गुजरात में मुख्यमंत्री थे. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात BJP के संगठन महामंत्री थे. उस वक्त पाटीदार समुदाय चिमन भाई पटेल की वजह से जनता दल को सपोर्ट किया करता था और जो बाकी जातियां थीं, जैसे क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान वो कांग्रेस को सपोर्ट किया करते थे. क्योंकि माधव सिंह सोलंकी ने इन चारों जातियों को लेकर एक 'खाम' करके फॉर्मूला बनाया था. बीजेपी को गुजरात में स्थापित होना था, तो किसी एक को तोड़ना था. तो बीजेपी ने एंटी कांग्रेस सेंटीमेंट को देखते हुए पहले जनता दल से हाथ मिलाया और फिर बाद में जनता दल के बेस को अपना बेस बना लिया और जनता दल को हमेशा के लिए गुजरात से खत्म कर दिया. इससे जो पूरा पाटीदार समुदाय का वोट था, वो बीजेपी में चला गया. इस रणनीति के पीछे नरेंद्र मोदी का बहुत बड़ा हाथ था. जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो नरेंद्र मोदी उनके चाणक्य के रूप में उभरे.
आदित्य मेनन, राजनीतिक विशेषज्ञ

हालांकि, बाद में उन्हीं केशुभाई पटेल को पटखनी देकर नरेंद्र मोदी गुजरात की सत्ता पर काबिज हो गए और दोबारा उन्हें गुजरात में पनपने नहीं दिया. जब जब केशुभाई पटेल ने मोदी को चुनौती दी तब तब मोदी ने उन्हें परास्त किया

अब चलते हैं महाराष्ट्र में, साल 1984 में बीजेपी का गठन हुए 4 साल बीत चुके थे. 1984 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मात्र दो सीटें मिली थीं, ये सीट ना तो अटल जीते थे और ना ही आडवाणी. उस समय बीजेपी केंद्र की सत्ता में आने के लिए सहयोगी ढूंढ रही थी, इस बीच उसे महाराष्ट्र में बालासाहेब ठाकरे मिले.

साल 1989 में बीजेपी ने छोटे भाई की हैसियत से बड़े भाई शिवसेना के साथ गठबंधन किया और साल 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा. इस चुनाव में बीजेपी ने 42 सीटें जीती थीं, जबकि शिवसेना को 52 सीटे हासिल हुई थीं. इसके बाद से सत्ता में आने की बात हो या विपक्ष में एक साथ बैठने की, दोनों साथ-साथ नजर आए.

शिवसेना का साथ बीजेपी को फायदा पहुंचाता रहा. इसका नतीजा ही रहा कि साल 2014 के विधानसभा चुनाव में जहां बीजेपी को 122 सीटें मिली थीं, वहीं शिवसेना 63 सीटों पर ही सिमटकर रह गई थी. यही हाल साल 2019 के चुनाव में भी हुआ. इस चुनाव में बीजेपी को 106 सीटें मिली तो शिवसेना 57 सीटों पर ही रह गई. यानी बीजेपी को शिवसेना का साथ पसंद आ रहा था, लेकिन, शिवसेना चुनाव दर चुनाव नेपथ्य में जा रही थी.

2019 का चुनाव ही था, जिसके बाद से ही शिवसेना और बीजेपी की राहें जुदा हो गईं. शिवसेना ने महाविकास अगाड़ी के साथ सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने उद्धव ठाकरे लेकिन, करीब 2.5 साल पुरानी सरकार को बीजेपी ने शिवसेना में सेंधमारी कर गिरा दी. महाराष्ट्र में बीजेपी के खेवनहार बने एकनाथ शिंदे और उद्धव नेपथ्य में चले गए.

2014 के बाद से बीजेपी के तेवर ही बदल गए हैं. उसके पहले बीजेपी एक हिंदी स्पिकिंग पार्टी, हिंदुवादी पार्टी मानी जाती थी और काऊ बेल्ट की पार्टी थी. लेकिन, 2014 के बाद से पार्टी को देश में स्थापित होने का एक नशा सा चढ़ा हुआ है. इसलिए जिन-जिन राज्यों में गठबंधन करके अपनी जगह बनाई वहां, उसी पार्टी को खाकर अपना विस्तार पूर्ण करकर, उस राज्य में अपने खुद की सरकार बनाने का लगातार उनका प्रयास चल रहा है. महाराष्ट्र उसका बेहतर उदाहरण है. इसलिए जो भी उनके पुराने साथी जैसे अकाली दल, शिवसेना, जनता दल यूनाइटेड का साथ भी बहुत पुराना है. ये सभी लोग लगातार इसी लिए अलग हो रहे हैं. अकाली दल ने बहुत पहले समझ लिया, शिवसेना ने लेट किया तो इसका खामियाजा वो भुगत रहे हैं और सबसे इंटेलेजेंट जनता दल यूनाइटेड रहा, जो पहले ही खतरे को भांपते हुए किनारे हो गया और RJD के साथ मिलकर सरकार बना ली.
अशोक वानखेड़े, वरिष्ठ पत्रकार

बीजेपी का ऑपरेशन कमल सिर्फ, महाराष्ट्र, बिहार, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर के राज्य और पंजाब तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बीजेपी ने यत्र-तत्र सर्वत्र की राजनीति उत्तर प्रदेश में भी चलाई थी, जिसका लोगों को भनक तक नहीं लगा था.

बीजेपी ने यही हाल उत्तर प्रदेश में भी किया. वो BSP के साथ गए और मायावती के साथ सरकार बनाई और धीरे-धीरे मायावती को ही खा गए. आज की स्थिति ये है कि मायावती को अपने-आप को पूरा सरेंडर करना पड़ा है. वही हाल उन्होंने असम में किया. असम गण परिषद का साथ लिया और असम गण परिषद को ही खा गए. अब असम में खुद के भरोसे बीजेपी की सरकार है. लेकिन, कुछ क्षेत्रीय दल हैं, जो बिल्कुल बीजेपी को पैर रखने की जगह नहीं देते हैं. ओडिशा में BJD है. बंगाल में ममता बनर्जी हैं, तेलंगाना में KCR है, आंध्रा में जगनमोहन रेड्डी है. तमिलनाडु में एमके स्टालिन है. AIADMK भी बड़ी कॉन्सियस होके उनके साथ है. लेकिन, अब तो AIADMK को भी डर लगने लगा है.
अशोक वानखेड़े, वरिष्ठ पत्रकार

यानी कुल मिलाकर अब तमाम क्षेत्रीय दल BJP से धीरे-धीरे अलग होने लगे हैं. एक कहावत भी है कि जभी जागो तभी सवेरा. ऐसे में साल 2024 के लोकसभा चुनाव में मजबूत सहयोगी की गैरमौजूगी बीजेपी को धक्का पहुंचा सकती है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT